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द्वादश प्रकाश
१७ दण्डग्रत है। कृषि आदि कार्योंका जो निरर्थक-निष्प्रयोजन उपदेश दिया जाता है वह पापोपवेश नामका अनर्थदण्ड है। पापासवका निरोध करनेवाले मायोको उसका मागबारा चाहिए अनुष बाण आदि हिंसाके उपकरणोंका निरर्थक देना हिसादान नामका अनर्थ दण्ड है, उसका त्याग करना व्रत है। जिनके सुननेसे मनुष्यों को रागद्वेषकी वृद्धि होती है वह दुःश्रुति नामका अनर्थदण्ड है, इसका त्याग करना व्रत है। रागद्वेषसे अन्य लोगोंके वध-बन्धन आदिका चिन्तन करना अपध्यान अनर्थदण्ड है, उसका त्याग करना श्रेष्ठ व्रत है। पर्वत, उद्यान तथा समुद्र आदिमें निरर्थक भ्रमण करना प्रमावर्या है उसका त्याग करना व्रत कहलाता है ।। १५-२४ ॥ आगे चार शिक्षावतोंका वर्णन करते हैं
मुनिधर्मस्य शिक्षायाः प्राप्तिर्यस्मात्प्रजापते । शिक्षावलं तु तज्ज्ञेयं चतस्त्रः सन्ति तजिवाः ॥ २५॥ आचं सामायिक शेयं द्वितीयं प्रोषधाह्वयम् ।। भोगोपभोगवस्तूनां परिमाणं तृतीयकम् ।। २६ ॥ शिक्षावतं चतुर्थ स्यादतियोसंविभागकम् ।
श्रावका पालनोयानि यथाकालं यथाविधि ॥ २७ ॥ अर्थ-जिससे मुनिधर्मको शिक्षाकी प्राप्ति होती है उसे शिक्षाव्रत जानना चाहिये। इसके चार भेद हैं.--पहला सामायिक, दुसरा प्रोषधोपवास, तीसरा भोगोपभोग परिभाग और चौथा अतिथि संविभाग। श्रावकोंको यथासमय विधि-पूर्वक इनका पालन करना चाहिये ।। २५-२७ ॥ आगे इनका स्वरूप कहते हैं
प्रातमध्याह्नसन्ध्यासु कृतिकर्मपुरस्सरम् । सामायिकं सुकर्तव्यं घटिकाद्वयसम्मितम् ॥२८॥ अष्टम्यां च चतुर्दश्यां चतुराहारवर्जनम् । प्रोषधः स हि विज्ञेय एकासनपुरस्सरः ॥ २९ ।। ये भज्यन्ते सकून् भोगा: कश्यन्ते तेऽशनादयः। भयोभूयोऽपि भुज्यन्ते ये तेऽलंकरणावयः ॥ ३०॥ उपभोगाः प्रकीयन्ते वस्तु तत्व विशारदै । परिमाणं सदा ह्येषां विधातव्यं विवेकिभिः ।। ३१ ॥