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सम्यक्चारित्न-चिन्तामणिः सुपात्राय सदा देयं वानमत्र चतुविधम् । सुपात्रं त्रिविधं पापुलमारि : ११ : रत्नत्रयेण संयुक्ता मुनयः शान्तमूर्तयः। शयापुत्तमपाणि ह्यायिका मातरस्तथा ॥ ३३॥ वेशवृत्तयुता जेया ऐलफादिपदान्विताः। सूक्तानि मध्यपात्राणि जनतत्त्वविशारः ।। ३४ ॥ व तेन रहिताः सम्यग्वृष्टयो जिनभाक्तिकाः । प्राप्ता जघन्य पात्रत्वं कथितारचरणागमे ॥ ३५ ॥ एभ्यस्त्रिविध पात्रेभ्यो देयं दानं चतुर्विधम् । माहारोषध शास्त्राद्यभयभेदाच्चतुर्विधम् ॥ ३६ ॥ वानं महर्षिभिः प्रोक्तं गृहिण पुण्यकारणम् । दानेनैव शुध्यन्ते गहाणि गहिणामिह ॥ ३७॥ अन्ते सल्लेखना कार्या प्रतिभिविधिसंयुता।
सल्लेखना विधिः पूर्व प्रोक्तो विस्तरतो मया ॥ ३८॥ अर्थ-प्रातः, पध्याह्न और सायंकाल कृतिकर्म-कायोत्सर्ग आवतं आदि सहित कमसे-कम दो घडोतक सामायिक करना चाहिये। अष्टमी और चतर्दशोको चारों प्रकारके आहारका त्याग करना प्रोषधोपवास है। यह धारणा और पारणाके एकासनसे सहित होता है। जो एक बार भोमे जाते हैं वे भोजन आदि भोग हैं और जो बारबार भोगे जाते हैं वे आभूषण आदि वस्तु स्वरूपके ज्ञाता पुरुषों द्वारा उपभोग कहे जाते हैं। विवेको मनुष्योंको इनका परिमाण करना चाहिये। यही भोगोपभोग परिमाणवत है। सुपात्रके लिये सदा चार प्रकारका दान देना चाहिये । उत्तम, मध्यम और जघन्यके भेदसे सुपात्र तीन प्रकारका' कहा गया है । जो रत्नत्रयसे सहित तथा शान्तिको मानों मति हैं ऐसे मुनि और आथिका मातार उत्तम पाय जानने योग्य हैं । जो देशवासे सहित हैं ऐसे ऐलक आदि पदसे सहित व्रतो, जैनतत्त्वके ज्ञाता पुरुषोंके द्वारा मध्यम पात्र कहे गये हैं और जो वतसे रहित हैं तथा जिनेन्द्र देवके भक्तसम्यग्दष्टि हैं वे चरणानु योगमें जघन्य पात्र माने गये हैं। इन तोनों प्रकार के पात्रोंके लिये चाय प्रकारका दान देना चाहिये। महषियोंने आहार, औषध, शास्त्रादि उपकरण और अभयके भेदसे दानके चाय भेद कहे हैं। वास्तवमें गृहस्थोंके घर दानसे हो शुद्ध होते हैं । अन्त में यती मनुष्योंको विधि