________________
२
सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः काल शुद्धिके समान द्रव्य क्षेत्र और भाव शुद्धि भी करना चाहिये, यह कहते हैं
स्वाध्यायावसरे पुभिः स्वाध्यायसमुद्यतः । मुक्त्वालस्यं मुदा कार्या द्रध्यक्षेत्रादिशुद्धयः ।। ३३ ।। शारीरे धिरत्राशयमांसाद्य निर्गमः । स्वाध्यायोद्यतसाधोश्च द्रव्यशुद्धिः प्रकथ्यते ॥ ३४ ॥ शसहस्तमिते क्षेत्रे रुधिरापूर्याचदर्शनम् । क्षेत्रशुद्धिः प्रगीतास्ति परमागमपारगः॥ ३५ ॥ क्रोधमानाविभावानामभायो भावशुद्धये ।
विधासम्यः सदा विज्ञः स्वाध्यायाय समुशतैः ।। ३६ ॥ अर्थ-स्वाध्यायके लिये उद्यत साधुओंको स्वाध्यायके समय आलस्य छोड़कर द्रव्य और क्षेत्र आदिको शुद्धियां करनी चाहिये । स्वाध्यायके लिये तत्पर साधुके शरीरसे रुधिर, पोप तथा मांस आदि नहीं निकल रहा हो, यह द्रव्य शुद्धि कहो जाती है। सौ हाथ प्रमाण और मधिर श पी आदि नहीं दियः रहा हो, यह क्षेत्र शुद्धि है। परमागमफे ज्ञाता पुरुषों द्वारा कही गई है। भाव शुद्धिके अर्थ स्वाध्याय के लिये उद्यत ज्ञानी पुरुषोंको अपने आपमें क्रोध तथा मानादि विकालो भावोंका अभाव करना चाहिये। यही भावशुद्धि है ।। ३३-३६ ॥ आगे विनयाचारन : वर्णन करते हैं
हस्तौ । नौ च प्रक्षाल्य पर्यासनसुस्थितः । शास्त्रस्य गर्जनं कृत्वा कायोत्सर्ग विधाय च ॥ ३७॥ चलं मनो वशीकृश्य विनयावनतो भवन । ऋषिप्रणीतः त्रस्य स्वाध्यायं प्रारभेत सः॥ ३८ ॥ प्रवृत्तिरेषा १ “धूनो विनयाचार उच्यते । विनयाधीतशास्त्र' ना द्रुतं विद्वद्वरो भवेत् ॥ ३६॥ स्वाध्यायं विदधत् धुर्हस्ताभ्यां न पदं स्पृशेत् ।
में स्पृशेन वाञ्छणं कक्षं नदेहं न खर्जयेत् ॥ ४० ॥ अर्थ-स्वाध्याय करने वाला' साधु हाथ पैर धोकर, पर्यशासनसे बैटकर, शास्त्रका परिमार्जन कर, पायोत्सर्ग कर और चञ्चल मनको वशमें कर विनयसे नम्रोभूत होता हुआ ऋषिप्रणोत शास्त्रोंका स्वा