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द्वितीय प्रकाश होते हैं और वहाँ विशुद्धिसे अत्यन्त बढ़ते रहते हैं। वे मुनि इस गुणस्थानमें प्रति समय असंख्यात गुणश्रेणि निर्जरा करते हैं। एक एक अन्तर्मुहूर्तमें एक-एक स्थितिकाण्डकका घात कर अपने कालके भीतर संख्यात हजार स्थितिकाण्डक घात करते हैं तथा उतने ही बन्धापसरण नगरे हैं। मसात् प्रसंसा गत अगाण्डकोंका घात करते हैं। इस सबके पश्चात् वे महामुनि अनिवृत्तिकरण नामक नवम गुणस्थानमें प्रवेश करते हैं। उसके भो संख्यातभागों में पूर्ववत्-अपूर्वकरणके समान क्रिया करते हैं। पश्चात् शेष संख्यात भागोंमें स्त्यानगृद्धि आदि सोलह कर्मप्रकृतियोंका क्षय करते हैं पश्चात् अन्तर्मुहूर्तमें शुक्लध्यान--पृथक्त्ववितर्कविचार नामक प्रथम शुक्लध्यानके आठ मध्यम कषायोंका युगपत् क्षय करते हैं। यह क्रम सत्कर्मप्राभृतके अनुसार है।
कषायप्राभूतके अनुसार क्रम यह है कि आठ मध्यम कषायोंकी क्षपणाके पश्चात् स्थानगृद्धि आदि सोलह प्रकृतियोंका क्षय होता है। एक-एक अन्तर्मुहूर्तमें नपुंसकवेद, स्त्रोवेद, पुंवेद तथा संज्वलन, क्रोध, मान और मायाका क्रमसे क्षय करते हैं। तदनन्तर संज्वलन लोभको लेकर दशमगुणस्थानको प्राप्त होते हैं और वहां उसके अन्तमें उस संज्वलन लोभका भी क्षय करते हैं। इस प्रकार के मुनि क्षणभरमें क्षोणमोह नामक बारहवें मुणस्थानको प्राप्त होते हैं। ग्रन्थकार कहते हैं कि जबतक मोहनीयकमकी एक कणिका भो विद्यमान रहती है तबतक यह जोव संसाररूपी वनमें भ्रमण करता रहता है। इसलिये मुमुक्षजनोंको प्रयत्नपूर्वक मोहनीयकर्मका क्षय करना चाहिये। मोहका भय होनेसे यह मनुष्य क्षणभरमें अन्तर्मुहूर्त के भीतर केवलज्ञानसे सहित हो जाता है ।। ७१-८३ ॥ आगे प्रकरणका समारोप करते हैंध्यायं ध्यायं जिनपतिपदं शुद्धसम्यक्त्वयुक्तः
श्रावं श्रावं जिनवरवचः प्राप्तवज्ज्ञानपुजः। श्रायं श्रायं सुगुरुचरणं लब्धचारित्रशुद्धिः ।
सद्यो मुक्तभंज भज सुखं भव्य ! कि बलाम्यसि स्वम् ॥ १४ ॥ अर्थ-हे भव्य ! त् जिनेन्द्रदेवके चरणोंका बार-बार ध्यान कर शुद्ध सम्यक्त्वसे युक्त हो-सम्यग्दृष्टि बन, पश्चात् जिनेन्द्रदेवके वचनोंको बार-बार श्रवण कय सम्यग्ज्ञानका समूह प्राप्त कर पश्चात् सुगुरुओं