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सम्यक् चारित्र चिन्तामणिः
शान्ति भूषितः ।
प्रत्याख्यानामृजतिब चारित्रं लमते कश्चिन् सति सज्वलनोनये ।। १५ ।। संयमलब्धिरित्येषाऽबद्धायुषकस्य सम्भवेत् । बद्धदेवायुषो वा स्यान्नान्यस्य जातुचिद् भवेत् ॥ बद्धदेवेतरामुकोऽणुव्रतं वा महाव्रतम् । सन्धर्तुं नैव शक्नोति नियोगाविह जन्मनि ॥
१६ ॥
१७ ॥
अर्थ - मोहनीयकी सात प्रकृतियों को नष्टकर उपशम, क्षय या क्षयोंपशमकर जिसने सम्यग्दर्शन प्राप्तकर लिया है, जो कर्मभूमिमें उत्पन्न है. भव्यस्वभावसे सहित है, तस्वज्ञान से युक्त है, संसार- भ्रमणकी सन्ततिसे भयभीत है तथा संसाररूपी समुद्रका तट प्राप्त होनेसे जिसको बुद्धि प्रसन्न है - संक्लेश से रहित है, प्रत्याख्यानावरण कषायका अनुदय होनेसे जो शान्तिसे विभूषित है ऐसा कोई मनुष्य संज्वलन तथा नोकषायों का यथासम्भव उदय रहते हुए चारित्रको प्राप्त होता है । यह संयमलब्धि - चारित्र की प्राप्ति उस मनुष्यको होती है जो अवद्धायुष्क है अर्थात् जिसने अभी तक परभव सम्बन्धो आयुका बन्ध नहीं किया है और यदि किया है तो देवायुका ही बन्ध किया है अन्य किसीको यह संयमलब्धि प्राप्त नहीं होती। क्योंकि ऐसा नियम है कि जिसने देवायुके सिवाय अन्य आयुका बन्ध कर लिया है ऐसा जीत्र इस जन्म में न तो अणुव्रत धारण करने में समर्थ होता है और न महाव्रत धारण करनेमें। तात्पर्य यह है कि संयमलब्धि और संयमासंयम लब्धि उपर्युक्त जोवको ही होती है ।। १३-१७ ॥
आगे मुनिदीक्षा लेनेवाला मनुष्य क्या करता है, यह कहते हैंबन्धुवर्गं समापृच्छय भङ्क्त्वा स्नेहस्य बन्धनम् । पञ्चाक्षोविजयं कृत्वा विरक्तो नेह पोषणात् ॥ १८ ॥ विपिने मुनिभिर्युक्तं
करुणाकरसन्निभम् । मोक्षमार्गनिरूपकम् ॥ १९ ॥
अषाविसर्ग वपुषा गुरु सम्प्राप्य तत्पाद-युगलं विनमम्मुदा । प्रार्थयते - दयासिन्धो ! माँ तारय भवार्णवात् ॥ २० ॥ न मे कश्चिद् भये नाहं वतें कोऽपि कस्यचित् । भवरपावह्वयं सुक्त्या शरणं नैव विद्यते ॥ २१ ॥ निर्ग्रन्यसत्वां तारयेह भवान्धितः । इत्थं सम्प्रार्थ्य तरपाबद्व खूबत्तविलोचनः ।। २२ ।।