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प्रथम प्रकाश
के द्वारा चारित्र कहा जाता है। इस जगत्में चारित्र ही मोक्ष प्राप्तिका प्रमुख हेतु माना गया है ।।
अथवा मोहध्वान्तापहारे प्रकटितविशदज्ञानपुञ्जो जनो यो
रागादीनां निवृत्त्य परिहनि सनः पापताप दुरन्सम । चारित्रं तन्मुनीन्द्रः शिवसुखसवनं कोर्यंते कीर्तिपात्र
राचारात्मनिष्ठनिखिलगुणधरः स्वात्मसंवेदनादयः ॥१०॥ अर्थ-मोह-मिथ्यात्वरूपी अन्धकारके नष्ट हो जानेपर प्रकट होने वाले निर्मल ज्ञान समूहसे युक्त मनुष्य, रागादिक विभाव भावों को नष्ट करने के लिए जो सदा दुःखदायी पापरूपो सन्तापका त्याग करता है वहीं आत्मनिष्ठ--आत्मध्यानमें लोन, समस्त गगोंका धारक तथा स्वात्मानुभूतिसे युक्त यशस्वी, मुनिराज आचार्यों द्वारा चारित्र कहा जाता है । यह चारित्र मोक्ष सुखका सदन है अर्थात् चारित्रसे हो मोक्ष सुखकी प्राप्ति होती है ।। १० ।।
अथवा आत्मस्व मावे स्थिरता मुनीमा या वर्तते स्वास्मसुखप्रदात्री । सा कोत्यंते निर्मलबोधयद्भिश्चारित्र नामा परमार्थतश्च ॥ ११॥
अर्थ-निश्चयनयसे मुनियोंकी, स्वात्मसुखको देनेवालो जो आत्मस्वभावमें स्थिरता है वही निर्मल ज्ञानधारो मुनियोंके द्वारा चारित्र कहा जाता है॥ ११॥
अथवा हिंसाविपापाद् व्यवहारतो या भवेन्मुनीनां विनित्तिरेषा । चारित्रनाम्ना भुवि सा प्रसिद्धा कौघकक्षानल पुञ्जभूता ।। १२॥
अर्थ---व्यवहारनयसे-चरणानुयोगकी पद्धतिसे मुनियोंको जो हिंसादि पापोंसे निवृत्ति है वहो पृथिवीपर चारित्र नामसे प्रसिद्ध है। यह चारित्र कर्मसमूहरूप वनको भस्म करने के लिये अग्नि समूहके समान है ॥ १२ ॥ आगे चारित्रको कौन मनुष्य प्राप्त होता है, यह कहते हैं
मोहस्य प्रकृतीः सप्त हवा प्राप्तसुदर्शनः । कर्मभूमिसमुस्पन्नो नरो भव्यस्वभूषितः ॥ १३ ॥ तस्वज्ञानयुतो भीतो भवभ्रमणसन्सलेः। आजवं जवसिन्धोरच सोरं प्राप्य प्रसन्नधीः ॥ १४ ॥