________________
सम्यचारित्र-चिन्तामणिः ताववन्तरमस्त्यत्र मुनीर्ना गृहिणां पुरः। चतुरङ्गुलमानयं रसना प्रेरणी तथा ॥ १६ ।। क्वाति यादशं दुखिं न ततोऽग्यत तादृशमः ।
हहो भव्यानयो रागं त्यक्त्वा त्वं हि सुखी भव ।। २७॥ अर्थ-जिह्वा इन्द्रियके अधीन हुए पुष्ट शरोर वाले मच्छ जिस प्रकार बन्धनको प्राप्त हो मारे जाते हैं उसी प्रकार जिह्वा इरिद्रयके अधोन मनुष्य दुषित आहारसे पोड़ित हो पृथिवोतलपर मृत्युको प्राप्त होते देखे जाते हैं। जगत्में कोई तिक्त प्रिय है-चिरपरा भोजन रुचिसे करते हैं, कोई मधुर भोजनको पसन्द करते हैं, कोई खारा भोजन अच्छा मानते हैं और कोई बिना नमकका भोजन करते हैं । कुछ लोग विरुद्ध आहार पानीके मिलने पर कुद्ध हो कलह करते हुए निरन्तर खिन्न चित्त रहते हैं। लोकमें वे मुनि धन्य हैं जो नीरस आहार करते हैं । किन्होंके जीवन पर्यन्तके लिये मिष्ठान्न का त्याग है, किन्हींके नमकका त्याग है, कोई नीरस गर्म पानी पोते हैं, कोई जोवन-पर्यन्तके लिये दूधका त्याग किये हैं और यावज्जीवन घो छोड़े हुए हैं। उन मुनिराजोंके सामने गृहस्थोंका गार्हस्थ्य जोवन संकटोंसे भरा हुआ है । मेक पर्वत और सरसोंमें जितना अन्तर है उतना अन्तर मुनि और गृहस्थोंके सामने है । चार अंगुल प्रमाण रसना इन्द्रिय तथा कामेन्द्रिय जैसा दुःस्व देती है वैसा दुःख उनसे भिन्न अन्य इन्द्रियां नहीं देती। आचार्य कहते है--हे भव्य ! इन दोनों इन्द्रियों का राग छोड़, तूं सुखो हो जा ॥६-१७॥ आगे नाणेन्द्रिय जयका वर्णन करते हैं
रक्तपीतारविन्दानां संचयेन समाधिते। विकसत्पुण्डरीकाणां मण्डलेन च मण्डिते ।। १८ ।। कजकिअल्फपीताभसलिले सलिलाशये । सौगन्ध्यमापिनन् गन्धलोलुपो चमरोभ्रमन् ॥ १९॥ सायं निमीलिते पये ह्यासक्त्या संस्थितोऽभवत् । प्रातः सूर्योदये जाते पद्म विकसिते सति ।। २० ॥ क्षणायोस्पतिष्यामि स्वेष्टधासेति चिन्तयन् । रजन्याः प्रथमे मागे सलिलं पातुभागतः ।। २१ ॥ गज एको जलं पीत्वा पद्मिनी तां चचर्व सः । भ्रमरः स्वविचारेण सह मृत्युमुपागतः ॥ २२ ॥ सौगन्ध्यलोभतो मृत्यु यथा भ्रमर आगतः । तथायं मनुजो लोभा विविधः कष्टमश्नुते ॥ २३ ॥