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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि
मुनियोंके चौरासी लाख उत्तरगुण हिंसा, असत्य, चौयं, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, भय, जुगप्सा, रति और अरति ये तेरह दोष हैं। इनमें मन, वचन एवं काय इन तीनोंको दुष्टतारूप तीन दोष मिलानेसे सोलह होते हैं। इन १६ दोषोंमें मिथ्यात्व, प्रमाद, पिशुनता ( चुगलखोरी ) अज्ञान और इन्द्रियोंका अनिग्रह ( निग्रह नहीं करना ) ये ५ और मिला देनेसे २१ दोष हो जाते हैं। इन २१ दोषोंका त्याग करने रूप २१ गण होते हैं। यह त्याग अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचारके त्यागसे ४ प्रकारका होता है, अतः इन चारका २१ में गुणा करनेसे ८४ प्रकारके गुण होते हैं। इन ६४ में पृथिवीकायिक आदि ५ स्थावर एवं द्वन्द्रिय, त्रोन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय और संज्ञोपरचेन्द्रिय इन दशकायके जीवोंकी दयारूप प्राणिसंयम तथा इन्द्रियसंयमके ६ भेद सब मिलाकर १०० का गणा करनेपर ८४०० होते हैं। इनमें १० प्रकारकी विराधनाओं (स्त्रीसंसर्ग, सरसाहार, सुगन्ध संस्कार, कोमल शयनासन, शरीर-मण्डन, गोतवादित्र श्रवण, अर्थ ग्रहण, कुशोलसंसर्ग, राजसेवा एवं रात्रि-संचरणका गृणा करनेपर ८४,००० चौरासो हजार होते हैं । इनमें आलोचना सम्बन्धो १० दोष ( आकम्पित, अनुमानित, दृष्ट, वादर, सुक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त, तत्सेवी ) का गुणा करनेपर ८५,००,००० लाख उत्तरगुण हो जाते हैं।
निर्जरा निर्जरा भावनाके वर्णनमै पृष्ठ ११७ पर निर्जराके सविपाक और अविपाकके भेदसे दो भेदोंका वर्णन किया गया है। बद्धकर्म के प्रदेश आबाधा कालके बाद अपना फल देते हुए निषेक-रचनाके अनुसार क्रमसे निजीर्ण होते जाते हैं, इसे सविपाक निर्जरा कहते हैं । इस जीवके सिद्धोंके अनन्तवें भाग और अभव्य राशिसे अनन्त गुणित प्रमाण बाले समयप्रबद्धका प्रतिसमय बन्ध होता है। इतने हो प्रमाण वाले समयप्रबद्धको निर्जरा होती रहती है और डेढ़ गुणहानि प्रमाण समयप्रबद्ध सत्तामें बना रहता है। मोक्षमार्गमें इस निर्जराका कोई प्रभाव नहीं होता, क्योंकि जितने कर्मों की निर्जरा होती है उतने हो नवोन कर्मोका बन्ध हो जाता है। अविपाक निर्जरा वह है जो तपश्चरणके प्रभावसे उदय कालके पूर्व होतो है और जिसके होनेपर संबर हो जाता है।