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षष्ठ प्रकाश
ते मे सबै क्षान्तियुक्ता भवन्तु
क्षान्त्या तुल्यं नास्ति रत्नं यवन ॥ ९॥ दुःखे सौखये बन्धुवर्गे रिपो या
स्वर्णे ताणे वा गहे प्रेतगेहे। मृत्यूत्पस्योर्वा समन्ता जिनेन्दो
मध्यस्थं में मानसं साम्प्रतं स्यात् ।। १० ।। माता तातः पुत्रमित्राणि बन्धु
भार्याश्याला स्वामिनः सेवकाधा। सर्वे भिन्नाश्चिच्चमत्कारमात्रा
वस्मनुपाच्चिचमत्कार शन्याः॥११॥ मोहध्यान्तेनावतोसोधचक्षुः
स्वारमाकारं न स्म पश्यामि मासु। अघोजिन्नज्योतिरश्मिप्रजासः
स्वात्माकारं तेन पश्यामि सम्यक ॥ १२ ॥ रागद्वेषो निराकृत्य चित्तं कृत्वा च सुस्थिरम् ।
सामायिकं प्रकर्तव्यं कृतिकर्मपुरस्सरम् ।। १३ ॥ अर्थ-जीव-जोबपर - प्रत्येक जोपर मेरा साम्यभाव है, सब जीव भी मुझपर साम्यभावसे युक्त होंवे | आत्तं और रोद्र इन दोनों ध्यानोंको छोड़कर मैं साम्यभावरूप सम्यम्भावना करता हूँ। पृथिवो, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा दोन्द्रियादिक जो जीवोंके भेद हैं वे सब मुझपर क्षमाभावसे युक्त हों क्योंकि इस जगत्में क्षमःके तुल्य दूसरा रत्न नहीं है। दुःख में, मुखमें, बन्धु वर्गमें, शत्रुमें, सुवर्णमें, तृण, समूहमें, महलमें, श्मशानमें, मृत्यु में और जन्ममें हे जिनचन्द्र ! आपके प्रसादसे मेरा मन इस समय मध्यस्थ भावसे युक्त हो । माता, पिता, पुत्र, मित्र, बन्धु, भार्या, साले, स्वामी और सेवक आदि चैतन्य चमत्कारसे शून्य हैं तथा चैतन्य' चमत्कार रूप मेरे स्वरूपसे भिन्न हैं । मेरा ज्ञानरूपी चक्ष मोहरूपी अन्धकारसे आच्छादित था इसलिये मैं आत्मस्वरूपको नहीं देख सका। आज मेरी ज्ञान ज्योति उद्धिन-प्रकट हुई है, इसलिये मैं अपने आत्माके स्वरूपको अच्छी तरह देख रहा हूं।
रागद्वेषको दूर कर तथा चित्तको स्थिर कर कृतिकर्म-आवर्त तथा नति पूर्वक यया समय सामायिक करना चाहिये ।। .१३ ।। आगे वन्दना नामक आवश्यकका वर्णन करते हैं