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तृतीय प्रकाश पृथ्वीजीवः स विशेयः साम्प्रतं विग्रहस्थितः।
एवं जलाविभेदानां विजेया लक्षणायली ।। २१॥ अर्थ-- एकेन्द्रिय आदिके भेदसे तिर्यंच पाँच प्रकारके माने गये हैं। उनमें एकेन्द्रिय स्थावर हैं द्वीन्द्रिय आदि त्रस माने गये हैं। पृथियो, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिके भेदसे स्थावर पाँच प्रकारके हैं। ये स्थावर नाना प्रकारके दुःखोंसे सहित हैं । पृथिवी, पृथिवीकाय, पृथिवोकायिक और पृथिवी जोबके भेदसे पृथिवीकायके चार भेद हैं। जल, जलकाय', जलकायिक और जल जोवके भेद से जलकायके चार भेद हैं । अग्नि, अग्निकाय, अग्निकायिक और अग्निजीव, ये अग्निकायके चार प्रकार हैं। वायु, वायुकाय, वायुकायिक और वायुजीव ये वायुकायके चार भेद हैं। वनस्पति, वनस्पतिकाय, वनस्पतिकायिक और वनस्पति जोव ये वनस्पतिकायके चार प्रकार हैं। पृथिवो सामान्य है, पृथिवो कायिक जोके द्वारा छोड़ा हुआ कलेबर पृथिवीकाय है, पृथिवी शरोरमें स्थित जीव पृथिवीकायिक है और पूथिनोमें जन्म लेनेके लिये उद्यत तथा सम्प्रति विग्रह गतिमें स्थित जोव पृथिवीजीव जानना चाहिये। इसी प्रकार जल, जलकाय आदि भेदोंके लक्षण जानना चाहिये। ___ भावार्थ-पृथिवीकायिक जीवके द्वारा छोड़ा हुआ कलेवर जब तक अपने उसो आकारमें रहता है तब तक पृथिवीकाय कहलाता है और जब उसका आकार परिवर्तित हो जाता है तब पृथियो सामान्य हो जाता है । ऐसा जल आदि सभी भेदोंमें समझना चाहिये । पृथिवी, जल, अग्नि और वायु इन चारको आगममें धातु संज्ञा है, आयु पूर्ण होने पर इनका जोव निकल जाता है और उसो शरोरमें उसो कायके दूसरे जीव उत्पन्न हो जाते हैं ।। १२-२१ ।। आगे पृथिवी, जल, अग्नि और वायुक जीवोंके कुछ विशेष प्रकार कहते हैं
मृदुकर्कशमेवेन सा पृथ्वी विविधा मता। गरिकाविस्वरूपा या मृबरे सा पृथिवी स्मृता ॥ २२ ॥ रजतस्वर्णलोहारफूटताम्राविभेवतः । कर्कशपृथिवीमेवा बहवः सन्ति भूतले ॥ २३ ॥ जलस्यमेवा विद्यन्ते हिमवर्षापलाययः । अधिश्वालावलीविद्यारिवज्योतिरावयः ।। २४ ।।