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प्रशस्ति
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गल्लीलाल तनूजेन मानक्युपरसंभुवा । दयाचन्द्रस्थ शिष्येण सागरग्रामवासिना ॥ ४॥ पन्नालालेन बालेन रचितोऽल्पधिया मया । जोयाश्चिन्तामणिर्लोके चारित्राधो निरन्तरम् ॥ ५ ॥ अज्ञालाद्वा प्रमााा जाता ग्रन्थ विनिर्मिती । याः कश्चित् त्रुटयः सन्ति शोधनीया बुधस्तु ताः ॥ ६ ॥ जिनाज्ञा भङ्गतो नूनं मिमि भूरिमूरिशः । अतो मत्स्खलने वृष्ट्या हसन्तु बुधोत्तमाः ।। ७ ॥ त्रुटीनां शोधने कुर्य विद्वान्सी महती कृपाम् ।
सर्वेषां सयोगेन अनवाक्प्रसरो मवेत् ॥ ८॥ अर्थ-गल्लीलालके पुत्र, जानको माताके उदरसे उत्पन्न, दयाचन्द्र जीके शिष्य, सामर-निबासी, अल्पबुद्धि वालक पन्नालालके द्वारा रचा हुआ यह सम्पा-चारित्र-चिन्तामणि ग्रन्थ निरन्तर जयवन्त रहे। ग्रन्धको रचनामें अन्नान अथवा प्रसादको न कोई बुद्धि हुई हैं जो विद्वज्जन शुद्ध करें। सचमुच हो मैं जिनाज्ञा भङ्गसे अत्यधिक भयभोत रहता हूँ। इसलिये उत्तम ज्ञानो जन मेरो त्रुटि देखकर हँसे नहीं । किन्तु विद्वज्जन त्रुटियोंको शुद्ध करने में महतो कृपा करें। भावना यह है कि सबके सहयोगसे जिनवाणीका प्रसार हो।। ४-८॥