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एकादम का
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जीव यदि विधिपूर्वक संन्यास मरण करता है तो वह सात-आठ भवमें नियमसे निर्माणको प्राप्त होता है। संसार बनमें भ्रमण करते हुए तूने बालबाल, बाल और बालपण्डितमरण बहत किये हैं। आज पण्डितमरण प्राप्त हुआ है सो इसे निर्मल-निर्दोष कर । पण्डितमरण प्राप्त होनेपर पण्डितपण्डितमरण सुलभ हो जावेगा, अतः शीघ्र हो साहस कर। निर्यापकाचार्य के बचन सुनकर क्षपक शुद्धचित्त से पञ्चनमस्कार मन्त्रका ध्यान करता हुआ प्राण छोड़ता है। संन्यासमरणके प्रभावसे क्षपक स्वर्ग जाता है तथा वहां चिरकालतक भोग भोगता है। साथ हो मेरु-नन्दीश्वर आदिके शाश्वत अकृत्रिम चैत्यालयोंकी वन्दना करता है ।। ३३-४१ ।।
भावार्थ-संक्षेपमें मरणके पाँच भेद हैं-१. बालबाल, २. बाल, ३. बालपण्डित ४. पण्डित और ५. पण्डित-पण्डित । मिथ्यादष्टिके मरणको बालवालमरण कहते हैं। अविरत सम्यग्दृष्टिके मरणको बालसरल नहते हैं । सितमले पर को सलपण्डितमरण कहते हैं। मुनिके मरणको पण्डितमरण कहते हैं और केवलीके ( मरण ) निर्वाणको पण्डितपण्डितमरण कहते हैं । आगे सल्लेखनाके प्रकरणका समारोप कहते हैंमनसि ते यदि नाकसुखस्पृहा
कुर हचि जिनसंयमधारणे। भज जिनेन्द्र पर्व यशारदा
जिन मुखाजभवां सुगुरुन् नम ।। ४२।। अर्थ-यदि तेरे मन में स्वर्ग सुखको चाह है तो जिनेन्द्र प्रतिपादित संयमके धारण करने में रुचि कर, जिनेन्द्र देवके चरणोंको आराधना कर, जिनेन्द्रके मुखकमलसे समुत्पन्न वाणीका आश्रय लें और सुगुरुओंको नमस्कार कर ॥ ४२ ।।
इस प्रकार सम्यक् चारित्र-चिन्तामणिमें संन्यास-सल्लेखनाका
वर्णन करनेवाला एकादश प्रकाश समान हुआ।