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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः यम या नियम रूपसे अन्नका त्याग कराते हैं पश्चात् क्रमसे पेयका भो त्याग कराते हैं। बुद्धिमान् निर्यापकाचार्य निरन्तर रूपकका उत्साह बढ़ाते रहते हैं ।। २५-३१ ।। आगे नियपिकाचार्य क्षपकको क्या उपदेश देते हैं, यह कहते हैं
अस्पिासादिना म नातिनः। दूरीकुर्यात सवा साधुनिर्यापणविधिक्षमः॥ ३२॥ साधो ! न विद्यते कश्चित् पुदगलो जगतीतले । यो न भुक्तस्त्वया पूर्व केयं भुक्ते रतिस्तव ॥ ३३ ॥ नारके कियतो वाधा विसोडा क्षत्तषोस्त्वया । संस्मरनित्यमात्मानं ज्ञानानन्दस्वभावकम् ।। ३४ ॥ आत्मा न म्रियते जातु पर्यायो ह्येवमुच्यते। पर्यायस्य स्वभावोऽयं न हतु शक्य एष ते ॥३५॥ विधिना कृत संन्यासो भव्यः सान्तभवार्णवः। नियमानि ति याति पृथकत्वभव मध्यके ।। ३६ ॥ बालबालोऽथवा बालो बालपण्डित एव च । मृत्यवो बहनः प्राप्ता भ्रमता भवकानने ॥ ३७॥ पण्डितोऽधमृतिः प्राप्ता विधेोता सुनिर्मलाम् । पण्डिते मरणे प्राप्त पण्डित पण्डित सम्मृतिः ।। ३८।। सुलभा ते भवेवेव साहसं कुरु सत्वरम् । निर्यापकवचः श्रुत्वा कपकः शु बचेतसा ॥ ३९ ॥ ध्यायन पञ्च नमस्कार मन्त्रं प्राणान विसर्जयेत।। क्षपस्त्रिदिवं याति संभ्यासस्य प्रभावतः ॥ ४० ॥ तत्र भड़कते चिरं मोगान् वन्दते च जिनालयान् ।
मेरु नन्दीश्वरावीनां स्थायिनोऽकृतिमान् सदा ॥ ४१ ॥ अर्थ-निर्यापण विधि कराने में समर्थ साधु निर्यापकाचार्य, क्षधातृषा आदिसे उत्पन्न कष्टको अनेक दृष्टान्तोंके द्वारा दूर करता रहे। हे साधो ! इस पृथिवोतलपर ऐसा कोई पुरुष नहीं है जिसे तूने पहले भोगा न हो। अतः भक्त-भोगी हुई वस्तुमें तुम्हारा यह राग क्या है ? नरकपर्यायमें तूने क्षुधा तृषाको कितनी बाधा सही है । तूं निरन्तर ज्ञानानन्द स्वभावो आत्माका स्मरण करा । आत्मा कभी नहीं मरतो है, मात्र पर्याय हो छूटतो है, पर्यायका यह स्वभाव तुम्हारे द्वारा हरा नहीं जा सकता । जिसका संसार सागर सान्त हो गया है, ऐसा भव्य