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एकादश प्रकाश
१४१ बिना सल्लेखना रूप नदीके बीच स्थित क्षपक अपने लक्ष्य स्थानपर नहीं पहुंच सकता। इसलिये निर्यापकाचार्य बनाना चाहिये। जो साधु उपसर्ग सहन करने वाला हो, आयुर्वेदका ज्ञाता हो, शरीर स्थितिके जानने में समर्थ हो, क्षमासहित हो, महान् प्रभावशाली हो, मिष्टभाषी हो, सरल चित्त हो तथा जिसने अनेक संन्यासमरण कराये हैं, ऐसे साधुको संन्यास ग्रहण के समय निर्माणकाचार्य बनाना चाहिये । यह निर्यापकाचार्य का निर्णय संन्यासग्रहण के पूर्व कर लेना चाहिये
।। २१-२४ ।। आगे क्षपक निर्यापकाचार्य से सल्लेखना कराने की प्रार्थना करता हैभगवन् ! संन्यासदानेन मज्जन्मसफलीकुरु । इत्थं प्रार्थयते साधुनिपकमनीश्वरम् ॥ २५ ॥ क्षपकस्य स्थिति शास्था दद्यात्नियांपकी मुनिः । स्वीकृति स्वस्थ संन्यासविधि सम्पादनस्य वै ।। २६ ।। द्रथ्यं क्षेत्रं च कालं च भावं या क्षपकस्य हि । विलोक्य काश्येसेन ह्युत्तमार्थं प्रतिक्रमम् ॥ २७ ॥ क्षपकः सकलान् बोषान् निर्व्याजं समुदीरयेत् । क्षमयेत् सर्वसाधून् स स्वयं कुर्यात्क्षर्मा च तान् ॥ २८ ॥ एवं निःशल्यको भूत्वा कुर्यात्संस्तरोहणम् । निर्यापकरच विज्ञाय क्षपकस्य तनूस्थितिम् ॥ २९ ॥ अन्नपानादि संत्यागं कारयेतु यथाक्रमम् । पूर्वमन्नस्य संत्यागं नियमेन पेयस्यापि ततस्त्यागं कारयति क्षपकस्य महोत्साहं वर्धयेदनिशं अर्थ - 'हे भगवन् ! संन्यास देकर मेरा जन्म प्रकार साधु निर्यापक मुनिराज से प्रार्थना करता है। क्षपक की स्थिति जानकर संन्यास- विधि कराने के लिये अपनो स्वीकृति देते हैं । निर्यापकाचार्य सबसे पहले द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकोदेखकर क्षपकसे उत्तमार्थं प्रतिक्रमण कराते हैं। क्षपकको भी छल रहित अपने समस्त दोष प्रकट करना चाहिये । तत्पश्चात् क्षपत्र नि कल्य होकर सब साधुओंसे अपने अपराधोंको क्षमा कराता है और स्वयं भी उन्हें क्षमा करता है। निर्धापकाचार्य क्षपक्की शरीरस्थितिको अच्छी तरह जानकर क्रमसे अन्न-पानका त्याग कराते हैं। पहले
यमेन वा ॥ ३० ॥ यथाविधि ।
सुधीः ।। ३१ ।।
सफल करो, इस
निर्यापक मुनि
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