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प्रथम प्रकाश
अर्थ - ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान-न्यास ( आदान-निक्षेप ) और व्युत्सगं ये पाँच समितियां महाव्रतोंकी रक्षा के लिये कहीं गई हैं । मुनिराज दिनमें जो चार हाथ जमीन देखकर चलते हैं वह ईर्ष्या समिति है। मुनि जो हित-मित प्रिय वाणीका बोलते हैं उसे सत्य वचनके स्वामी जिनेन्द्र भगवान्ने भाषा समिति कहा है। मुनि दिनमें एक बार जो यथाविधि पाणिपात्रमें भोजन करते हैं वह साधुओंका कल्याण करने वाली ऐषणा समिति जानने योग्य है । ज्ञानके उपकरण शास्त्र, शौचके उपकरण कमण्डलु और संयमके उपकरण पीछो आदिको देखकर उठाना रखना आदान न्यास ( आदान- निक्षेपण ) समिति ज्ञानो जनोंके द्वारा मानी गई है। जीवरहित स्थानमें मुनियों द्वारा जो मलमूत्र आदिको वाधासे निवृत्ति को जाती है वह व्युत्सर्ग या प्रतिष्ठापना समिति मानी गयी है ।। ३२-३७ ।।
आगे पञ्च इन्द्रिय-जयका वर्णन करते हैं
स्पर्शनं रसनं घ्राणं चक्षुः श्रवणमेव च । हृषीकाणि समुच्यन्ते सम्यग्ज्ञानघरैर्नरैः ॥ ३८ ॥ हृषकाणां जयः कार्यः साधुदीक्षासमुद्यतः । ये हि वासा हृषकाणां तेषां दीक्षा क्य राजते ॥ ३९ ॥ कामिनी कोमलाङ्गे च रूक्षं पाषाणखण्डके । रागद्वेषौ न यस्य स्तः स भवेत् स्पर्शनोज्जथी ।। ४० । इष्टानिष्टर से भोज्ये माध्यस्थ्यं यस्य विद्यते । रसनाक्षयस्तस्य शस्यते मुबि साधुभिः ॥ ४१ ॥ सौगन्ध्ये चापि दौर्गन्ध्ये माध्यस्थ्यं न जहाति यः । घ्राणाक्ष विजयो स स्यात् कर्मक्षपणतत्परः ॥ ४२ ॥ मनोज्ञे मनोज्ञे च रूपे यस्य न विद्यते । वंषम्यं विप्रपत्तिश्च स चक्षुविजयी भवेत् ।। ४३ ।। निन्दायां स्तवने यस्य माध्यस्थ्यं भंव होयते । श्रवणालजयी स स्यात् साधुवीलाधरो नरः ॥ ४४ ॥ यथा खलीनतो होना या कापयगामिनः ।
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तथा संयमतो होना नराः कापथगामिनः ॥ ४५ ॥
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अर्थ -- सम्यग्ज्ञानको धारण करनेवाले मनुष्योंके द्वारा स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और कर्ण ये पाँच इन्द्रियाँ कहो जाती हैं । मुनिदीक्षा के लिये उद्यत मनुष्यों को इन्द्रियोंको जय करना चाहिये। क्योंकि