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सम्यकचारित्न-चिन्तामणिः जो इन्द्रियोंके दास हैं उनकी दया कहाँ निगाजतो है अर्थात कहीं नहीं। स्त्रोके कोमल शरोरमें और रूक्ष पाषाण खण्ड में जिसके राग, द्वेष नहीं है वह स्पर्शनेन्द्रिय जयो कहलाता है। इष्ट और अनिष्ट रस वाले भोजनमें जिसको मध्यस्थता विद्यमान रहती है उसका रसनेन्द्रिय विजय पृथिवोपर साधुओंके द्वारा प्रशंसित होता है। सुगन्ध और दुर्गन्धमें जो मध्यस्थताको नहीं छोड़ता है वह कर्म-क्षयमें उद्यत घ्राणेन्द्रियजयी होता है। मनोज और अमनोज्ञ रूपमें जिसके विषमता और विरोध नहीं है वह चक्षुरिन्द्रिय विजयो होता है। निन्दा और स्तुतिमें जिसको मध्यस्थता नहीं छूटती वह मुनि-दोक्षामें तत्पर रहने घाला मनुष्य कर्णेन्द्रियजयी होता है। जिस प्रकार लगामसे रहित घोड़े कुमार्गगामी होते हैं उसी प्रकार संयमसे रहित मनुष्य कुमार्गगामो होते हैं ॥ ३८.४५ ॥ आगे छह आवश्यकोंका कथन करते हैं
साधुमातुक्निं कार्य षडावश्यकपालनम् । समता बन्दना चापि स्तुतिस्तीर्थकृतां सदा ।। ४६ ॥ प्रतिक्रमणं च प्रत्याख्यानं ध्युत्सर्ग एव च । इत्येते षड् सुधिज्ञेयाः प्रोक्ता आवश्यका जिनः ।। ४७ ।। इष्टानिष्टपवार्थेषु रागद्वेषविवर्जनम् । समता शस्यते सद्धिरात्मशुद्धिविधायिनी ॥ ४५ ॥ चतुविशतितीर्थेशामेकस्य स्तवनं मुदा । क्रियते साधुना यसद् यन्वना नाम कथ्यते ॥ ४९ ॥ सर्वतीर्थंकृतां भक्त्या स्तवनं यद विधीयते । स्तुतिरावश्यकं ज्ञेयं मुनीनां मोदवायनम् ॥ ५० ॥ भूतकालिकदोषाणां प्रायश्चित्त विधायिनी । क्रिया या साधुसङ्घस्य सा प्रतिक्रमणं मतम् ॥ ५१ ।। भाविकाले विधास्यामि जातुचिन्नव पातकम् । इत्येवं यत्प्रतिज्ञानं प्रत्याख्यानं तदुच्यते ।। ५२ ॥ अन्तर्बाह्योपधित्यागे कायमोहविवर्जनम् ।
ध्यायं ध्यायं महामन्त्रं व्युत्सर्गः सोऽभिधीयते ।। ५३ ॥ अर्थ–साधुको प्रतिदिन छह आवश्यकोंका पालन करना चाहिये समता, वन्दना, तोथंकरोंकी स्तुति, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और व्युत्सर्ग ये छह आवश्यक जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कहे गये हैं, अतः