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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः सूक्ष्मस्थूलविभेदेन द्विविधं वर्ततेऽनृतम् । तस्य त्यागो नृणां शेयं सत्यं नाम महाव्रतम् ॥ २८॥ सर्वपा परवस्तूनां त्यागो हास्तेयमुच्यते । दाराः स्वपरभेदेन द्विविधाः परिकीर्तिताः ।। २९ ॥ मानुसार परिवार का सार महाशाम । बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्विविधोऽस्ति परिप्रहः ।। ३० ॥ तस्य त्यागी नुभिर्यस्तु सोऽपरिग्रह उच्यते ।
महायतस्वरूपं वे गवितं ते समासतः॥ ३१ ।। अर्थ-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये आचार्यों द्वारा पांच महावत कहे गये हैं। मनुष्य जो त्रस और स्थावर जीवोंको हिंसाका त्याग करते हैं वह अहिंसा महावत है। सूक्ष्म और स्थूलके भेदसे असत्य दो प्रकारका है । मनुष्योंके जो दोनों प्रकारके असत्यका त्याग है वह सत्य महावत है। बिना दो हुई परवस्तुओंका सर्वथा त्याग करना अचौर्य महानत है। स्व और परके भेदसे स्त्रियां दो प्रकारकी कही गई हैं, उनका मनुष्यों द्वारा जो त्याग होता है वह ब्रह्मचर्य नामका महाव्रत है। बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे परिग्रह दो प्रकारका है। मनुष्यों द्वारा उसका जो त्याग किया जाता है, वह अपरिग्रह महाव्रत कहलाता है । इस प्रकार मैंने तुम्हारे लिये संक्षेपसे पाँच महाव्रतोंका स्वरूप कहा है ॥ २६-३१ ।। आगे पाँच समितियोंका स्वरूप कहते हैं
ईर्याभाषेषणादानन्यासव्युत्सर्गसंज्ञिताः । महाव्रतस्य रक्षार्थं ज्ञेयं समितिपञ्चकम् ॥ ३२ ॥ विवादण्डमितं भूभीभार्ग वृष्ट्वा मुनीश्वरः। गम्यते यत् सुविज्ञेया होर्यासमितिरत्र सा ॥ ३३ ॥ हिता मिता प्रिया वाणी मुनिभिर्या समुच्यते। भाषासमितिरक्ता सा सत्यवागविजिनः ॥ ३४ ॥ एकवारं विधा मुडवते मुनियंत्पाणिपात्रयोः। एषणा समितिलेया साधुकल्याणकारिणी ।। ३५ ।। ज्ञानोपकरणादीनो समीक्ष्यादानसंस्थिती। आवामन्याससंज्ञा सा समितिबुधसम्मता ॥ ३६॥ मलमुत्रादिबाचाया मित्तिर्गसजन्तुके । घामति भियते या सा व्युत्सर्गसमितिमता ॥३७ ।।