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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः वन्दना आवश्यकमें एक जिनके सिवाय अन्य गुरुजनोंको वन्दनाकी जातो है, यह कहते हैं
सूरीणां या गुरुणां वा प्रतिमानां च मस्तितः । धन्वना मुनिभिः कार्या यथाविधियथागमम् ॥ २४ ॥ पञ्चषट्सप्तहस्तेश्च दूरस्थाचाधिका कमात् ।
सूरि बहुश्रुतं साधूनन्यान् वन्देत भक्तितः ॥ २५ ।। अर्थ-आचार्यों, गुरुओं तथा प्रतिमाओंको भी बन्दना मुनियोंको आगमके अनुसार यथाविधि भक्तिपूर्वक करना चाहिये । आर्यिका पांच हाथ दूर बैठकर आचार्यकी, छह हाथ दुर बंकर उपाध्याय और सात हाथ दूर बैठकर अन्य साधुओंको भक्तिपूर्वक वन्दना करे ।। २४-२५॥ आगे गुरु वन्दनाके अवसर और विधिका वर्णन करते हैं
व्याक्षिप्तं वा परावसं निद्रादिनिरतं तथा। आहारं वाथ नीहारं कुर्वन्तं संयत अनम् ।। २६ ॥ न बन्देत मुनिः क्यापि वन्दनायो समुधतः । प्रतीक्ष्यः समवस्तेन वाहमायां समर्थितः ॥ २७ ॥ आसनस्थोगुरुवन्यः सम्मुखस्थश्च शान्त हृद। सस्यानुझां समादाय वन्दनां विवधीस सः ॥ २८ ॥ आलोचना विधानेषु प्रश्नानां चापि प्रच्छने । स्वेतापराधे समाते पूजास्वाध्याययोस्तथा ॥२९॥ वन्दना मुनिभिः कार्या कृतिकर्मपुरस्सरम् । प्रतिक्रमे च चत्वारि स्वाध्याये त्रीणि साधुना ॥ ३० ।। कृतिकर्माणि कार्याणि पूर्वाल्हे चापरालके ।
मथाधिध्येवकार्याणि प्रभवन्ति फलाय हि ॥ ३१॥ अर्थ-जिस समय संयत जन व्याक्षिप्त-अन्यमनस्क हों विपरोत मुख कर बैठे हों, निद्रामें निरत हों, आहार या नीहार कर रहे हों; उस समय बन्दनामें तत्पर साधु कहाँ भी उनको बन्दना न करे किन्तु वन्दनाके योग्य अवसरको प्रतीक्षा करे। जब गुरु आसनपर बैठे हों, सम्मुख हों और शान्त हृदय हों तब उनको आज्ञा लेकर वन्दना करनी चाहिये। अपने द्वारा अपराध हो जानेपर अथवा पूजा और स्वाध्याय के समय मुनियोंको कृतिकर्मके साथ वन्दना करनी चाहिये । प्रतिः