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षष्ठ प्रकाश
सुगुणरत्नगिरेऽमिवाक्पते
भवतु मां धिगिमां च सुरक्षियम् ॥ ४१ ॥
इति मयं विजहाँ सुरशालनो गुरुयुतोऽपि यदीयगुणस्तुतौ । निर्वाध शुभ गुणशेवधि हतविधि सुविधि विनमामि तम् ।। ४२ ।। ( युग्मम् )
अर्थ - हे सुगुणरूप रत्नोंके गिरि ! हे अपरिमित वचनोंके स्वामी ! हे सुविधिनाथ भगवान् ! अल्पज्ञानो तथा अल्पशब्दोंसे सहित मैं आपको स्तुति कैसे कर सकता हूँ ? इस प्रकार वृहस्पतिसे सहित होने पर भी इन्द्रने जिनकी स्तुतिमें मद-गर्व छोड़ दिया था उन मसीम, कल्याणके धारक, गुणों के निधि तथा कर्मोंको नष्ट करनेवाले सुविधिनाथ भगवान्को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ४१-४२ ॥
इष्टानिष्ट वियोगप्रयोगसन्तापतप्त जनशानाम् ।
मेघातिं हि येन प्रवन्दनीयः स शीतलः सततम् ।। ४३ ।।
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अर्थ - इष्टवियोग और अनिष्ट संयोगरूप संतापसे संतप्त जनसमूहके लिये जिन्होंने मेचके समान आचरण किया था, वे शीतलनाथ भगवान् सदा वन्दनीय हैं ॥ ४३ ॥
येन स्वयं बोधमयेन लोके प्रकाशितः श्रेष्ठ शिवस्य पन्थाः । श्रेयः पदप्रापणहेतुभूतं जिनं तमेकादशमानमामि ॥ ४४ ॥
अर्थ - स्वयं ज्ञानमय रहनेवाले जिन्होंने जगत् में मोक्षका मार्ग प्रकाशित किया था तथा जो कल्याणकारी पद - मोक्ष की प्राप्तिमें कारणभूत हैं उन ग्यारहवें भगवान् श्रेयोनाथकी में नमस्कार करता हूँ ॥ ४४ ॥
जयति जनसुवन्द्य श्चिच्च मकारनन्द्यः
शमसुखभरकन्दोऽपास्तकर्मारिन्दः ।
निखिलगुणगरिष्ठः कीर्तिसत्ताबरिष्ठः
सकल सुरपपूज्यो वासुपूज्यो जिनेन्द्रः ॥ ४५ ॥
अर्थ - जो मनुष्यों के द्वारा वन्दनीय हैं, चैतन्य चमत्कारसे नन्दनीय हैं, शान्ति सुख-समूह के कम्द हैं. कर्मरूप शत्रुओंके समूहको नष्ट करनेवाले हैं, समस्त गुणोंसे श्रेष्ठ हैं, कीर्ति सद्भावसे महान् हैं और समस्त इन्द्रोंसे पूज्य हैं वे वासुपूज्य जिनेन्द्र जयवन्त प्रवर्तते हैं ।। ४५ ।। बरबोध विरागशरेण हि यः सकलं शकलीकृतवान हितम् । निजकर्मम तमहो सततं ह्यमलं विमलं बिनमामि सुनिम् ॥ ४६ ॥