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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः तथा अपरिमित समीचीन वैभवके स्वामी हैं उन शंभवनाथ भगवान्को मैं नमस्कार करता हूं ॥ ३५॥ कारिदुःखीकृतमानसन्योऽभिनन्दयामास शिवप्रवानात् । भक्त्याभृतोऽहं जगदेकबन्धं नमामि नित्यं ह्याभनन्दनं तम् ॥ ३६॥
अर्थ-जिन्होंने मुक्ति प्रदानकर कमरूप' शत्रुओंसे दुःखित जीवोंको अभिनन्दित किया था तथा जो जगत्के एक अद्वितीय बन्धु थे उन अभिनन्दन भगवान्को मैं भक्तिपूर्ण हो नित्य ही नमस्कार करता
मोगाभुजङ्गा न विवेकवद्धिनिषेवणीया विषमा यतस्ते । एसत् समावेशि हि येन तत्त्वं जिनं सवा तं सुमति समोडे ॥ ३७॥ ___ अर्थ-विवेकी मनुष्यों द्वारा भोगरूपी भुजङ्ग-नाग सेवनोय नहीं है क्योंकि वे विषम हैं, यह तत्व-सारगर्भित बात जिन्होंने कही थी उन सुमति जिनेन्द्रको मैं सदा स्तुति करता हूँ ॥ ३७॥ वेहनभान्यवकृतपनपत्रं पप्रेशबन्धं कमलालयादयम् । तं भव्यपनाकरपग्रबन्धं परप्रभ सम्प्रणमामि नित्यम् ॥ ३८ ॥ ___ अर्थ-जिन्होंने शरीरको प्रभासे लाल कमलदलको तिरस्कृत कर दिया था, जो लक्ष्मीपति नारायणके द्वारा बन्दनीय थे, स्वयं लक्ष्मीसे सहित थे तथा भव्यजीवरूप कमलवनको विकसित करनेके लिये जो सूर्य थे उन पद्यप्रभ भगवानको मैं नित्य हो प्रणाम करता हूँ॥ ३८ ॥ कृपाणं स्वपाणी समाधिस्वरूपं गृहीत्या समूलं हता येन वल्ली। मराजन्ममृत्युस्वरूपा विरूपा सुपाय तमीशं भजे भक्तिभावात् ।। ३९ ॥ ___ अर्थ-जिन्होंने शुक्लध्यानरूपी कृपाणको अपने हाथमें लेकर जन्म जरामृत्युरूपो कुरूप लताको जड़ सहित काट डाला था उन सुपार्श्वनाथ भगवान्की मैं भक्तिपूर्वक आराधना करता हूं ॥ ३६॥ यस्यास्यकान्त्या जितचन्नमा स दिने विने क्षोणतरीभवन् । मन्ये ममज्जाधिजले सलजश्चन्द्रप्रमं तं प्रणमामि नित्यम् ।। ४० ।। ___अर्थ-जिनके मुखको कान्तिसे पराजित हुआ वह चन्द्रमा प्रतिदिन क्षोण होता हुआ मानों लज्जित होकर ही समुद्रमें मग्न हो गया था, उन चन्द्रप्रभ भगवान्को मैं नित्य ही प्रणाम करता हूँ ॥ ४ ॥ अयि कथं सुविधे वरबोधभाक्
विरलवाक् स्तवनं विदधामि ते ।