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तृतीय प्रकाश कलिविजयते कालो यस्मिन् नीतिधरा अपि। त्यक्त्वा न्यायपथं जाताः कष्टं कापथगामिनः ।। ६९ ॥ रामराज्यं प्रशंसन्तो वाचा मधुरया चराः। कुर्वन्ति रावणं कार्य मायाचारपरायणा: ।। ७० ।। जनानां क्षुद्रमाचार बुष्ट्या केचिद् विवेकिनः ।
भवारण्यपथनान्ता गलन्त्येतन्महाव्रतम् ॥ ७१।। अर्थ-प्रमादसे जो अदत्तवस्तुका ग्रहण है वह स्तेय-चोरी कहलातो है, उसका त्याग करना अचौर्य महावत है ! पृथिवी तलपर धन, पुरुषोंके प्राणतुल्य है इसलिये उसका नाश होनेपर उन्हें मरणतुल्य दुःख होता है । अपने पुण्य पापसे पुरुषोंको जो बहुत या कम चेतना चेतनात्मक धन प्राप्त होता है उसमें सन्तोष करना चाहिये अथवा न्यायसे उसे अजित करना चाहिये । पृथिवोतलपर विवेकी मनुष्यको जिस प्रकार दूसरोंका द्रव्य त्याज्य है उसी प्रकार दूसरोंका क्षेत्र भो त्याज्य है । साधारण जनोंकी चर्चा तो दूर रहे विशाल सम्पत्तिसे युक्त राजा भी पृथिवीतल पर निबंल राजाओंका राज्य अपहरण करने में संलग्न हैं। यह कलिकाल अपना प्रभाव बढ़ा रहा है जिसमें कि नोतिधारक मनुष्य भी न्यायमार्ग छोड़कर कुमार्गगामी हो गये हैं। आजके मायाचारी मनुष्य मधुर वाणोसे रामराज्यको प्रशंसा करते हैं परन्तु रावणका कार्य करते हैं । संसाररूपो अटवोमें मार्ग भूले हुए कोई विवेको जन, लोगोंका क्षुद् आचरण देख इस अचौर्य महावतको ग्रहण करते हैं ।। ६३-७१॥ आगे ब्रह्मचर्य महावतका वर्णन करते हैं
अयाने सम्प्रवक्ष्यामि ब्रह्मचर्य महानतम् । आत्मशुद्धः परं हेतुं सर्वोषद्रवनाशनम् ।। ७२ ॥ स्वपरस्त्रोपरित्यागो ब्रह्मचर्य समुच्यते । व्यवहारा निश्चयात्तु स्वरूपे चरणं मतम् ।। ७३ ।। ब्रह्मचर्यपरिचण्टा लोके सर्वत्र मानवाः । प्राप्नुवन्ति तिरस्कारं सुचिरं रावणा इव ।। ७४ ।। विधिना परिणीता या सा स्वस्य स्त्री निगद्यते । शेषाः परस्त्रियः प्रोक्ता दासीवेश्यादयो भुवि ।। ७ ।। नरीसुरोतिरश्ची च चेतना ललना मताः । काष्ठपाषाणनिर्माणाश्चित्रस्थाश्चेतनेतराः ॥७६ ।। एताश्चतुविधानार्यस्त्याज्याः स्वहितवाछिभिः । मलयोनो मलोत्पन्ने देहे दोर्गन्ध्यधारिणी ॥ ७ ॥