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तृतीय प्रकाश
हिंसाविपापाद विरतेर्भवन्ति मनस्विनां पञ्चविधानि तानि । सेषां स्वरूपं श्रमशो बदाम्य हिंसा मुखानां हि महावतानाम् ॥ ४ ॥
अर्थ- अब मोक्ष सुखके इच्छुक सत्पुरुषोंके द्वारा धारण किये जानेवाले उन महावतोंको कहूंगा जिनके बिना मनुष्य संसारके बन्धन रोकने में कभी भी समर्थ नहीं हो सकते। जो लोकमें स्वयं महान हैं को महान पुरुषोंके द्वारा धारमा किये गए तथा जो महान् फल प्रदान करते हैं वे महावत माने गये हैं। हिंसादि पांच पापोंसे निवृत्ति होने के कारण वे पाँच प्रकारके होते हैं तथा मनस्वी-साहसी-उपसर्ग विजयी मनुष्योंके होते हैं । यहाँ क्रमसे उन अहिंसा आदि महानतोंका स्वरूप कहता हूँ।
भावार्थ-हिंसा, असत्या, चौर्य, कुशील और परिग्रह इन पांच पापोंका सर्वधा त्याग करनेसे अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच महाव्रत होते हैं। इन्हें उपसर्ग तथा परिषहोंपर विजय प्राप्त करनेवाले पुरुष हो धारण कर सकते हैं । आगे इन्हों पांच महाव्रतोंका विस्तारसे वर्णन किया जायगा ।। २-४ ॥ अब सर्वप्रथम अहिंसा महाव्रतका कथन करते हैं
प्रागहिसावतं वक्ष्ये समस्तब्रतभूषणम् । विमतेन न शोभन्ते साधूनां व्रतसञ्चयाः ॥ ५ ॥ प्रमत्तयोगाजीशनां प्राणान व्यपरोपणम् । हिसानाम महापापं नरकद्वारसन्निभम् ॥ ६ ॥ एतस्या विरतिर्या हि मनोवाक्कायकर्मभिः।
आचे महाव्रतं ज्ञेयहिसानाम संहितम् ॥ ७॥ अर्थ-समस्त व्रतोंके आभूषण अहिंसा महावतको कहूंगा। क्योंकि इसके बिना साधुओंके समस्त ब्रतोंके समुह सुशोभित नहीं होते। प्रमत्तयोगसे जोवोंके प्राणोंका विधान करना हिंसा नामका महापाप है। यह पाप नरक द्वारके समान है। इस हिंसासे जो मन, वचन, कायपूर्वक विरति होतो है अर्थाद तीनों योगोंसे उसका त्याग होता है वही अहिंसा नामका पहला महानत है ।। ५-७ ।। आगे जोव-जातियों के ज्ञान विना हिंसाका त्याग नहीं हो सकता, इसलिये संक्षेपसे जीव-जातियों का वर्णन करते हैं
जीवजातिपरिज्ञानमन्तरेण न साध्यते । हिसायापपरित्यागस्तमः किञ्चित् प्रवभिन साम् ॥ ८॥