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सभ्यधारित-चिन्तामणिः कूटलेख क्रिया निन्या न्यासस्यापतिस्तथा । साकारो मन्त्रभेवश्च सस्थाणुव्रतशालिभिः ॥ ४५ ॥ अतिचारा इमे त्याज्याः सत्याणुव्रतशालिभिः।
व्रतं निर्दोषमेवस्वादात्मशुद्धि विधायकम् ॥ ४६ ॥ अर्थ-हित चाहनेवाले पुरुषोंको अज्ञान अथवा प्रमादसे मिथ्या उपदेश देना, स्त्री-पुरुषोंके रहस्य-एकान्त बातको प्रकट करना, कूटलेख क्रिया-झूठे लेख लिखना, धरोहरका अपहरण करनेवाले वचन कहना और साकार मन्त्र भेद-चेष्टा आदिसे किसीका अभिप्राय जानकर प्रकट करना, ये सत्याणवतके अतिचार हैं। निर्दोष बतके इच्छुक सत्याणु व्रतियों को इनका त्याग करना चाहिये, क्योंकि निर्दोष बत ही आत्मशुद्धि करनेवाला होता है ।। ४४.४६ ।।
अचौर्षागुनतके अतिचार स्तेनप्रयोग चौरार्थावाने लोभस्थवद्धितः। बिरुद्धराज्येऽतिक्रान्तिानोन्मानीय स्तुनोः ।। ४७ ।। होनाधिक विधानं च सदशस्यापि मिश्रणम् । इत्येते पञ्च विशेषा अतिधारा: प्रदूषकाः ।। ४८॥ अचौर्याण व्रतस्येह वर्जनीया विवेकिभिः।
अतिचारयुतं वृत्तं न स्याच्छोभास्पदं चित् ।। ४९ ॥ अर्थ--स्तनप्रयोग-लोभको अधिकतासे चोरको चोरोके लिये प्रेरित करना, तवाहुतावान- चुराकर लायो हुई वस्तुको खरीदना, विरजराज्याति प्रम—विरुद्ध राज्यसे तस्कर व्यापार करना, हीनाधिक मानोन्मान-नाप-तौलके वस्तुओंको कम चढ़ रखना और सक्शसनिमय–असलो वस्तु में नकलो वस्तु मिलाना; ये अचोर्याणुव्रतके अतिचार विवेको जनोंके द्वारा छोड़ने योग्य हैं, क्योंकि अतिचार सहित व्रत कहीं भी शोभित नहीं होता ।। ४७-४६ ॥
ब्रह्मचर्याणवतके अतिचार कृतिरस्य विवाहस्थ द्विविधत्वरिकागती । अनङ्ग कोडनं तीव्र कामेच्छा प्रतधारिणः ॥ ५० ॥ अतिचारा हमे ज़या ब्रह्मचर्यवतस्य हि । एतान् सर्वान् परित्यज्य विधेयं त्रिमलं व्रतम् ॥ ५१ ।।
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