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चतुर्थ प्रकाश भाषा
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विमानते। निरर्थक भवेत्तस्य भाषायाः सौष्ठवं महत् ॥ २२ ।। एकस्य वचनं शुत्वा लोके युद्धः प्रजायते । एकस्य वचनं श्रुत्वा युद्धशान्तिः प्रजायते ॥ २३ ॥ एकस्य वचनं श्रोतं समायान्ति सहस्रशः । मा, एकस्य संश्रोतुं वित्रास्तिष्ठन्ति मानवाः ।। २४ ॥ व्यर्थं वचनविस्तारं विदधाति च यो नरः। अल्पायोऽधिक वानीव विषावं लभते स वै ॥२५ ।। दोलेव भारती यस्य भवतीह बलाचला। प्रत्यवं तस्य मर्त्यस्य को नु कुर्याद् धरातले ॥ २६ ॥ स्वप्रतिष्ठा स्थिरीकर्तु भूमिल के महस्विनाम् ।
भाषासमितिबन्नान्यत् साधमं वर्तते क्वचित् ॥ २७ ॥ अर्थ--अब यहाँ भाषा समितिके लक्षणकी चर्चाको जाती है । सत्यमहानतमें जो असत्यवचनका परित्याग हुआ था उसको रक्षाके लिये भाषा समितिका सुप्रयोग किया जाता है। भाषा समितिके धारक मुनिराज सदा हित, मित और प्रिय वाणो बोलते हैं। उनके मखचन्द्रसे जो वचन समूह निकलता है वह अमृतके झिरने के समान श्रोताओंको आनन्द देता है। इस पृथिबो लोकमें वाणी ही परस्पर प्रोति करानेवालो है । कौएका अप्रिय शब्द और कोयलको मीठो कुहू सुनकर भाषा विज्ञानसे शोभित मनुष्य दोनोंका अन्तर जान लेता है । सधर्मीजनोंके साथ वार्तालाप करनेवाला भाषासमितिका धारक मुनि धर्मका पक्ष दढ़ करनेके लिये कभी बहुत भी बोलता है। भाषाके सौष्ठव स्पष्टताको प्राप्तकर जो स्वच्छन्द रूपसे बोलता है उसको भाषाका बहुत भारी सौष्ठव निरर्थक होता है। एकका वचन सुनकर लोकमें युद्ध भड़क उठता है और एकका वचन सुनकर युद्ध शान्त हो जाता है। एकका वचन सुननेके लिये हजारों मनुष्य आते हैं और एकका वचन सुननेके लिये दो तोन हो मनुष्य बैठते हैं। जो मनुष्य व्यर्थका वचन विस्तार करता है वह अल्प आयवाला होकर अधिक दान करनेवालेके समान विषादको प्राप्त होता है। इस जगत्में जिसकी वाणो दोलाके समान अत्यन्त चञ्चल है उस मनुष्य का विश्वास भूतलपर कौन करेगा? अथात् कोई नहीं। महस्वो तेजस्वो मनुष्यों को पृथिवोपर अपनो