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परिशिष्ट
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२१. त्रिवलित-ललाट पर तोन सिकुड़न डालकर रुद्रमुद्रा में वन्दना करना विवलित दोष है।
२२. कुंचित-संकुचित हाथों से शिर का स्पर्श करते हुए अथवा घुटनों के बीच शिर झुकाकर वादना करना कुंचित दोष है ।
२३. दृष्ट-आचार्य यदि देख रहे हैं तो विधिवत् वन्दना करना अन्यथा जिस किसी तरह नियोग पूर्ण करना, अथवा इधर उधर देखते हुए वन्दना करना दृष्ट दोष है।
२४. अदृष्ट-आचार्य आदि को न देखकर भूमि प्रदेश और अपने शरोर का पीछोसे परिमार्जन किये बिना बन्दना करना अथवा आचार्य के पृष्ठ देश-पीछे खड़ा होकर वन्दना करता अदृष्ट दोष है ।
२५. संघकर मोचन-वन्दना न करने पर संघ रुष्ट हो जायगा; इस भयसं नियोग पूर्ण करनेके भाव से वन्दना करना संघकर मोचन दोष है।
२६. आलब्ध-उपकरण आदि प्राप्त कर वन्दना करना आलब्ध दोष है।
२७, अनालब्ध-उपकरणादि मुझे मिले, इस भाव से वन्दना करना अनालब्ध दोष है।
२८. हीन-शब्द, अर्थ और काल के प्रमाण से रहित होकर वन्दना करना होन दोष है, अर्थात् योग्य समय पर शब्द तथा अर्थ की ओर ध्यान देते हुए पाठ पढ़कर वन्दना करना चाहिये । इसका उल्लंघन कर जो चम्बना करता है वह होन दोष है।
२९, उत्तर धूलिका-वन्दना का पाठ थोड़े ही समय में बोलकर 'इच्यामि भन्ते' आदि अंचलिका को बहुत काल तक पढ़कर वन्दना करना उत्तर चुलिका दोष होता है।
३०. मूक-जो मूक-गूंगे के समान मुख के भीतर ही पाट बोलता हुआ अथवा गुंगे के समान हुंकार आदि करता हुआ चन्दना करता है उसके मूक दोष होता है।
३१. वर्दुर-जो मेंढक के समान अपने पाठ से दूसरों के पाठ को दबाकर कलकल करता हुआ वन्दना करता है उसके दर्दुर दोष होता है।
३२. मुकुलित - जो एक ही स्थान पर खड़ा होकर मुकुलित अंजलि को घुमाता हुआ सबको वन्दना कर लेता है उसके मुकुलित दोष होता है।