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सम्पचारित्र-चिन्तामणि ७.कच्छपरिणित-कछुवेके समान कटिभाग से सरक कर वन्दना करना कच्छपरिङ्गित दोष हैं ।
८. मत्स्योद्वर्त--मत्स्य के समान कारभाग को ऊपर उठाकर वन्दना करना मत्स्योद्वर्त दोष है।
९. मनोदुष्ट-मन से आचार्य आदि के प्रति द्वेष रखते हुए वन्दना करना मनोदुष्ट दोष है।
१०. बेदिकाबद्ध-दोनों घुटनों को हाथों से बांधकर वेदिका को आकृति में वन्दना करना वेदिकाबद्ध दोष है।
११. भय-भय से घबड़ाकर वन्दना करना भय दोष है ।
१२. बिभ्यत्व-गुरु आदिसे डरते हुए अथवा परमार्थ ज्ञान से शून्य अज्ञानी होते हुए वन्दना करना बिभ्यत्व दोष है ।
१३. ऋद्धि गौरव-वन्दना करने से यह चतुर्विध संघ मेरा भक्त हो जायगा, इस अभिप्राय से वन्दना करना ऋद्धिगौरव है।
१४. गौरव-आसन आदि के द्वारा अपनो प्रभुता प्रकट करसे हुए वन्दना करना गौरव दोष है।
१५. स्तेलित बोष-मैंने वन्दना की है, यह कोई जान न ले, इस. लिये चोर के समान छिपकर बन्दना करना स्तेनित दोष है।
१६. प्रतिनीत-गुरु आदि के प्रतिकूल होकर बन्दना करना प्रतिनोत दोष है।
१७. प्रदुष्ट-अन्य साधुओं से द्वेषभावकलह आदिकर उनसे क्षमाभाव कराये बिना वन्दना करना प्रदुष्ट दोष है।
१८. तजित-आचार्य आदिके द्वारा तजित होता हुआ वन्दना करना तजित दोष है, अर्थात् नियमानुकूल प्रवृत्ति न करने पर आचार्य कहते हैं कि 'यदि तुम विधिवत् कार्य न करोगे तो संघ से पृथक् कर देगें' आचार्य की इस तर्जना से भयभीत हो वन्दना करना तजित दोष
१९. शब्द-मौन छोड़, शब्द करते हुए वन्दना करना शब्द दोष है।
२०. हीलित-वचन से आचार्य का तिरस्कार कर पद्धतिवश वन्दना करना होलित दोष है।