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परिशिष्ट
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३१. पादेन किंचिद् ग्रहण- यदि पैर से कोई वस्तु ग्रहण की जावे तो यह अन्तराय होता है ।
३२. करेण किचित् ग्रहण -- यदि आहार करते समय कोई दाता भूमि पर पड़ी वस्तु को हाथ से उठा ले तो करेण किंचिद् ग्रहण नामका अन्तराय होता है ।
विशेष - यद्यपि उपयुक्त ३२ अन्तरायों के सिवाय चाण्डाल स्पर्श, कलह, इष्टमरण, साधमिक संन्यास पतन तथा प्रधान का मरण आदि भी भोजन त्याग के हेतु हैं तथापि उपलक्षण होने से इनका उपयुक्त अन्तरायों में अन्तर्भाव समझना चाहिये ।
वन्दना सम्बन्धी कृति कर्मके बत्तीस दोष
१. अनादृत, २. स्तब्ध, ३. प्रविष्ट ४. परिपोडित, ५, दोलायित ६. अंकुशित, ७. कच्छप रिङ्गित, ८. मत्स्योदूर्त, ९. मनोदुष्ट, १०. वेदिकाबद्ध, ११. भय, १२. बिभ्यत्व, १३. ऋद्विगौरव, १४. गौरव, १५. स्ते निल, १६. प्रतिनिीत, १७. प्रदुष्ट, १८. तजित, १६. शब्द, २०. होलित, २१. त्रिवलित, २२. कुञ्चित, २३. दृष्ट, २४. अदृष्ट, २५. संघकर मोचन, २६. आलब्ध, २७. अनालब्ध. २०. होन, १६ उत्तर चूलिका, ३० मूक, ३१. दर्दुर और ३२. चुलुलित। इनके लक्षण इस प्रकार हैं
१. अनादृत - आदर या उत्साह के बिना जो कुतिकर्म किया जाता है वह अनादूत दोष से दूषित है ।
२. स्तब्ध - विद्या आदिके गर्वसे उद्धत होकर क्रिया-कर्म करता स्तब्ध दोष है ।
३. प्रविष्ट - पञ्चपरमेष्ठीके अति निकट होकर कृतिकर्म करना प्रविष्ट दोष है । वन्द्य और वंदक के बीच कम से कम एक हाथ का अन्तर होना चाहिये |
४. परिपीडित-हाथ से घुटनों को पीड़ित कर अर्थात् घुटनों पर हाथ लगाकर खड़े होते हुए कृति कर्म करना परिपोड़ित दोष है ।
५. दोलायित - दोला झूला के समान हिलते हुए वन्दना करना दोलायित दोष है ।
६. अंकुशित - अंकुश के समान हाथ के अंगूठों को ललाट पर लगा कर बन्दना करना अंकुशित दोष है ।