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चतुर्थ प्रकाश
सरस्वतीभवनमें संगृहीत शास्त्रोंकी अपेक्षा यह कथन है । ग्रन्थनिर्माणके समय उसके सहकारी बहुत शास्त्रोंका पठन भी विधेय है- करने योग्य है । शास्त्र ज्ञानको बढ़ाते हैं इसलिये ज्ञानोपकरण कहलाते हैं । आत्म-कल्याणके इच्छुक साधुओंको इन सब उपकरणों के उठाते और रखते समय जीवबाधा नहीं करना चाहिये ॥ ५२-६५ ।। अब आगे व्युत्सर्ग समितिको चर्चा करते हैं
इतोऽग्रे संविधास्यामि व्युत्सर्गसमितेः कथाम् । मलमूत्रादिबाधाया निवृत्तिजन्तुर्जिते ॥ ६६ ॥ हरिदासाद्यसंकीर्ण ह्यनिरुद्धे सिरोहितं ।
निष्यामि ने विजने वा ॥ ६७ ॥ मले मलस्य पातो तो विधातव्यः कदाचन । शौचालयेषु शौचस्य करणं नोचितं क्वचित् ॥ ६८ ॥ एवा शरीरवृत्तिहि करणोया शरीरिभिः । जीवहिंसापरीहारे ध्यानं धेयं त्ववश्यतः ।। ६९ ।।
अर्थ - इसके आगे व्युत्सर्गे समितिकी कथा करूँगा जो जीवजन्तुओंसे रहित हो, हरी घास आदिसे व्याप्त न हो, रुकावट से रहित हो तथा तिरोहित-परदा सहित हो। ऐसे स्थानपर जंगल अथवा निर्जन स्थलपर मलमूत्रादि बाधाकी निवृत्ति करना चाहिये । मलके ऊपर मल कभी नहीं पटकना चाहिये तथा शोचालयोंमें शौच कहीं नहीं करना चाहिये | मलमूत्र त्याग, यह शरीरको वृत्ति है अतः अवश्य करनी पड़ती है परन्तु जीवहिंसा के बचाव पर अवस्य ध्यान देना चाहिये ॥ ६६-६६ ॥
आगे समिति अधिकारका समारोप करते हैंगृहीतव्रतेषु प्रदोषप्रसारो, भवश्यत्र लोके प्रभावप्रभावात् । अतो दोषहान्युद्यते भव्यलोकः प्रमादे प्रहारो विधेयो व्रताः ॥ ७० ॥
अर्थ - इस लोक में गृहोतत्रतोंके मध्य प्रमादके प्रभावसे दोषोंका प्रसार होता है अर्थात् अनेक दोष लगते हैं अतः दोषोंको नष्ट करनेके लिये उद्यत व्रती भव्य जीवोंको प्रमादपर प्रहार करना चाहिये ।
भावार्थ---प्रमाद के परित्यागते हो समितियोंका पालन होता है और समितियोंसे महाव्रतको रक्षा होती है। अतः चलने, बोलने, आहार करने, रखने, उठाने और मलमूत्र छोड़ने में प्रसादका त्याग करना चाहिये ॥ ७० ॥