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नवम प्रकाश
१२७ बारहवे तक गुणस्थान होते हैं और केवल दर्शन में अन्तके दो गुणस्थान माने जाते हैं। कृष्ण, नोल और कापोत लेश्या प्रथमसे चतुर्थ गुणस्थान तक होती है। पोत और पद्म लेश्या प्रथमसे सप्तम तक होतो है और शुक्ल लेश्या प्रथमसे तेरहवें गुणस्थान तक होती है। भव्यत्व मार्गणामें सभी गुणस्थान होते हैं परन्तु सदा संसारमें ही निवास करने वाली अभव्यत्य मागंणामें नियमसे पहला ही गुणस्थान होता है ।। २८-३१ ।। आगे सम्यक्त्व, संज्ञो और आहारक मार्गणामें गुणस्थान बताते हैं
आद्योपशमसम्यक्त्वे मायोपशमिके तया ।। ३२ ॥ चतुर्थात्सप्तमान्तानि गुणस्थानानि सन्ति । सायिके तु चतुर्थाविनिखिलान्यापि भवन्ति हि ॥ ३३ ॥
जोशमे के मौकामावलिम ! संशिनि गुणधामानि भवन्ति द्वादशावधिम् ॥ ३४ ॥ असंशिनि अवेवाचं केवलिनी स्ति तद द्वयम् । अनाहारे भषेबाचं द्वितीयं च चतुर्थकम् ।। ३५ ।। चतुर्दशं च विशेयमाहारस्य निरोधतः। आहारके तु योध्यानि ह्याधापेव प्रयोदश ।। ३६ ॥ इत्यं च मार्गणास्थाने गुणस्थाननिदर्शनम् । संक्षेपाद्विहितं धिनस्यं ध्यानस्येन सुयोगिना ॥ ३७ ।। एवं चिन्तयश्चित्तं विषयेभ्यो निवर्तते ।
निर्जरा विपुला च स्यात् कर्मणां दुःखदायिनाम ॥ ३८ ॥ अर्थ-प्रथमोपशम सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक सम्यक्त्वमें चतुर्थसे लेकर सप्तम तक गुणस्थान होते हैं। क्षायिक सम्यग्दर्शनमें चतुर्थसे लेकर सभी गणस्थान हैं और द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें चतुर्थसे लेकर एकादश तक गुणस्थान होते हैं [ सम्यक्त्व मार्गणाके भेद सम्यग्मिध्यात्वमें तृतीय, सासादन में द्वितीय और मिथ्यात्वमें प्रथम गुणस्थान जानना चाहिये ] । संजी मार्गणामें प्रथमसे लेकर बारहवें गुणस्थान तक बारह और असंज्ञी मार्गणामें प्रथम गुणस्थान हो होता है । सासादन गुणस्थानमें मरकर एकेन्द्रियों में उत्पन्न होनेवाले जोवोंके अपर्याप्तक दशामें दूसरा गुणस्थान भी सम्भव है ] | केवली भगवान्के संज्ञी और असंज्ञोका व्यवहार नहीं होता है। अनाहारक मार्गणामें पहला, दूसरा, चौथा और चौदहवाँ गुणस्थान होता है [ समुद्घातको अपेक्षा तेरहवाँ गुणस्थान भी होता है ] । आहारक मार्गणामें आदिके तेरह