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सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः सोमाको स्मृतिमें रखना, ये दिग्वतके अतिचार हैं। निर्दोष दिग्बतको इच्छा रखने वाले पुरुषोंके द्वारा ये छोड़ने योग्य हैं ।। ५५-५५ ।।
वेशव्रतके अतिचार आनयनं बहिः सोम्नो यस्य कस्यापि वस्तुनः । प्रेषणं प्रेष्यवर्गस्य शब्दस्य प्रेषणं बहिः ॥ १६ ॥ प्रदर्शनं स्वरूपस्य क्षेपणं पुद्गलस्य च । इत्थं मनीषिभिः प्रोक्ता दोषा देशवतस्य हि ।। ५७ ॥ त्याज्या मनस्विििनत्यं निर्दोषव्रतवाञ्छिभिः ।।
वतं सदोषं नो भाति मलिनं ह्यम्वरं यथा ॥ ५८ ॥ अर्थ-मर्यादाके बाहरसे जिस किसी वस्तुको बुलाना, मर्यादाके बाहर सेवक समूहको भेजना, मर्यादाके बाहर अपना शब्द पहुँचानाफोन आदि करना, मर्यादाके बाहर कार्य करने वालाको अपना स्वरूप दिखाना और मर्यादाके बाहर पुद्गल-कंकड़-पत्थर फेंकना या पत्र आदि भेजना, ये विद्वज्जनोंके द्वारा देशवतके अतिचार कहे गये हैं। निर्दोषन्नतको इच्छा रखने वाले विचारशील मनुष्योंको इनका सदा त्याग करना चाहिये, क्योंकि सदोष व्रत मलिन वस्त्रके समान सुशोभित नहीं होता ।। ५६-५८ ।।
अनर्थदण्डवतके अतिचार कन्दर्पश्च कौत्कुच्यं च मौखयं चासमीक्ष्य वै । अधिकस्य समारम्भः स्वप्रयोजनमन्तरा ।। ५९ ।। भोगोपभोगवस्तूनां संग्रहोऽनर्थको महान् । चित्तविक्षेपकारित्वादाकुलताविधायकः ॥६०॥ अतिचारा इमेत्याज्यास्तृतीयेऽनर्थदण्डके ।
लक्ष्यप्राप्तिर्यतो नास्ति सदोष व्रतधारणे ।। ६१ ॥ अर्थ-कन्दर्प-रागमिश्रित भण्ड बचन बोलना, कौत्कुच्य-उसके साथ शरोरसे कुचेष्टा करना, मौखर्य-उसके साथ निरर्थक अधिक बोलना, स्वकोय प्रयोजनके न होने पर भी विचार बिना अधिक आरम्भ कराना और भोगोपभोगको वस्तुओंका निरर्थक ऐसा बड़ा संग्रह करना जो चित्तविक्षेपका कारण होने से आकुलता उत्पन्न करने वाला हो । अनर्थदण्डवत नामक तृतीय गुणतके ये अतिचार छोड़ने याग्य हैं क्योंकि सदोष व्रतके धारण करने पर लक्ष्यको प्राप्ति नहीं होतो ॥ ५६-६१ ॥