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सम्पचारित-चिन्तामणिः सब साधुओंको नमोऽस्तु करना पड़ता है। इस प्रायश्चित्तको जानकर अपराधसे भयभीत रहना चाहिये ।।७३-८४ ।। आगे विनयतपका वर्णन करते हैं
गुरुक्रमाब्जयोरग्रे स्वस्य या नमन किया। साधोनिगा मानिस्वं स एष बिनयो मतः ॥ ८५॥ शामदर्शनचारित्रोपचारणं प्रभवतः । विनयस्यापि चत्वारो मेवाः शास्त्र प्ररूपिताः ॥ ८६ ॥ क्वचिच्च तपसा साध पञ्चभेदाः प्ररूपिताः। विनयो मोक्षसोधस्य प्रवेशद्वारमुच्यते ॥ ८७ ॥ विनयातीर्थकृत्वस्य प्राप्तिभवति योगिनः ।
विनयेन प्रहो म ऊ शिरा मिनि ॥ अर्थ-अपने मानको रोककर गुरुके चरण कमलोंके आगे साधुका जो नम्रोभत होना है वह विनय है । ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचारके भेदसे विनय तपके भी चार भेद शास्त्र में बताये गये हैं। कहीं मूलाचार आदिमें तपके साथ पाँच भेद भी कहे हैं अर्थात् दर्शन-विनय, शान-विनय, चारिश्र-विनय, तपो-विनय और उपचार-विनय । विनय, मोक्ष-महलका प्रवेशद्वार कहा जाता है । विनयसे तीर्थङ्कर पदकी प्राप्ति होती है ! विनयसे रहित व्यक्तिकी सब शिक्षा निरर्थक है ॥८५-८८ ॥ अब वैयावृत्य तपका लक्षण कहते हैं
आयाते संकटे साधौ भवत्या तन्निवारणम् । शुश्रूषाप्रियवाक्पूर्व वयाश्यं निगद्यते ॥ ८९ ।। आचार्मादिप्रभेन वयावत्यं तपः पुनः ।
भिद्यते दशधालोके . चारिप्रस्थैर्य कारणम् ॥१०॥ अर्थ-साधुपर संकट आनेपर भक्तिपूर्वक संकटका निवारण करना और प्रियवचन बोलते हुए उनकी सेवा करना वैयावृत्य कहलाता है। वैयावृत्य तप आचार्य आदि पात्रों के भेदसे लोकमें दश प्रकारका होता है । यह वैयावृत्य चारित्रकी स्थिरताका कारण है 11 ८६.६० ॥
मावार्थ-आचार्य, उपाध्याय, तपस्वो, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, सङ्घ और साधुके भेदसे साधुओंके दश भेद होते हैं । इनको सेवा करने से वैयावृत्य दश प्रकारका होता है ।
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