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वाण प्रकाश
१६१ नामक लिङ्गका आवरण ( लंगोटो) धारण करते हैं और क्षुल्लक कोपीनके सिवाय एक खण्ड वस्त्र भो ग्रहण करते हैं। ऐलक हाथमें हो भोजन करते हैं परन्तु क्षुल्लक पात्रभोजी होते हैं। ऐलक और क्षुल्लकदोनों ही बैठकर आहार करते हैं । ऐलक, विधि अनुसार केशोंका लोंच करते हैं और क्षल्लक लोंच, कैची अथवा उस्तराके द्वारा केशोंको दूर करते हैं। दोनों हो जीव-रक्षाके लिये मयूरपिच्छ ग्रहण करते हैं और शौचबाधा की निवृत्तिके लिये कमण्डलु धारण करते हैं । ___ आर्यिका सोलह हायकी सफेद साड़ी ग्रहण करती है और क्षुल्लिका साडोके ऊपर एक सफेद चद्दर भी रखती है। इन सबको चर्मानित ऐलकके समान जानना चाहिये । आर्यिकाएं उपचारसे महावतसे युक्त कहो गई हैं परन्तु क्षुल्लिका श्राविका ही है इसमें संशय नहीं करना है। ग्रन्थकर्ता कहते हैं कि जिन्होंने निर्दोष-चारित्र धारण करनेसे अपना जन्म सफल किया है वे धन्य हैं तथा धन्यभाग हैं, उनका संसारसागर प्रायः सूख गया है । बड़े-बड़े मुनियोंका चारित्र धारण करनेको जिनकी शक्ति नहीं है उनके लिये श्रावकाचारका वर्णन करनेके लिये मेरा यह प्रयास है क्योंकि जैनधर्म सब जीवोंकर हित करने वाला है।। ११०-१२०॥ आगे इस प्रकरणका समारोप करते हैं--
वृत्तं मुनीनां गृहिणां नृणां च यथेच्छमाचर्य महोत्सवेन । दुःखानिवृत्योसमसौल्पराशौ मग्ना भवेयुः सततं पुमासः ।। १२१॥ आधार एवं प्रथमोऽस्ति धर्म इति श्रुति ये हृदये घरन्ते । तेश्वधनुःखाद विनिवर्तमानाः स्वर्गापवर्गीय सुखं लभन्ते ।। १२२॥
अयं--प्रग्यकारकी भावना है कि मुनियों तथा गृहस्य मानवोंके चारित्रको हर्षपूर्वक इच्छानुसार धारणकर पुरुष दुःखसे निवृत्त होते हुए उत्तम-सुख समूहमें सदा निमग्न रहे । 'आचारः प्रथमो धर्मः' आचार पहला धर्म है इस श्रुतिको जो हृदयमें धारण करते हैं वे नरक के दुःखसे दूर रहते हुए स्वर्ग और मोक्षके सुखको प्राप्त होते हैं ॥ १२१-१२२ ।।
इस प्रकार सम्यक्-चारित्र-चिन्तामणिमें श्रावकाचारका
वर्णन करने वाला द्वादश प्रकाश पूर्ण हुआ।