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सम्यकचारित्र-चिन्तामणिः
नया
सामान्यमूल गुणाधिकार अब 'सम्यक्त्व-चिन्तामणि'के द्वारा सम्यग्दर्शन और 'सज्ज्ञानचन्द्रिका के द्वारा सम्यग्ज्ञानका वर्णन करने के पश्चात् सम्यक चारित्रका वर्णन करनेके लिये 'सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि' ग्रन्थका प्रारम्भ करते हैं । निर्विघ्न नन्थ-समाप्तिके लिये प्रारम्भमें मङ्गलाचरण करते हैं । ध्यानानले येन हुताः समस्ता रागादिदोषा भवदुःखवास्ते । आत्मविश्वाजितमत्र वन्दे जिनं जितानन्तभयोप्रवाहम् ॥१॥ ___अर्थ-जिन्होंने सांसारिक दुःख देने वाले उन प्रसिद्ध रागादिक समस्त दोषोंको ध्यानरूपी अग्निमें होम दिया है, जो अष्ट प्रातिहार्यरूप आर्हन्त्य पदमे सुशोभित हैं तथा जिन्होंने अनन्त' भवसम्बन्धी तोत्र दाहको जीत लिया है-नष्ट कर दिया है, उन जिनेन्द्र भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ ॥१॥ निहत्य कर्माष्टकशत्रुसैन्यं लोकाग्रमध्ये निवसन्ति ये तान् । सिद्धान विशुद्धान जगति प्रसिद्धान् वन्दे सदाहं मिनभावशुदध्ये ॥ २ ॥
अर्थ-जो अष्टकम समूहरूप शत्रुको सेनाको नष्टकर' लोकके अग्रभागमें निवास करते हैं, जो विशुद्ध हैं तथा जगत्में प्रसिद्ध हैं उन सिद्ध परमेष्टियोंको मैं अपने भावोंको शुद्धिके लिये सदा नमस्कार करता हूँ ॥२॥ आचार्यवर्यान् गुणरत्नधुर्यान् बहुश्रुतान् विश्वहितप्रसतान् । साधुन् सवा श्रायससाधनोमान नमामि नित्यं वर भक्तिभावात् ।। ३ ।।
अर्थ-गुणरूपी रत्नोंसे श्रेष्ठ उत्तम आचार्योको, सब जीवोंके हितमें संलग्न उपाध्यायोंको और सदा आत्मकल्याणके सिद्ध करने में उत्कण्ठित साधुओंको मैं उत्कृष्ट भक्तिभावसे नित्य ही नमस्कार करता हूँ ॥३॥ सम्यव्यवस्था प्रविधाय यः प्राक सम्पालयामास प्रजासमूहम् । विरज्य पश्चाद भवतो जनालों प्रदर्शयामास शिवस्य वम ॥ ४॥