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परिमिष्ट
१७५ ४. भाजीवक दोष-जाति, कुल; शिल्प, तप और ईश्वरता ये आजोय हैं, इनसे आहार प्राप्त करना आजोवक दोष है। ये साधु हमारो जाति या कुलके हैं, ये अनेक शिल्पके ज्ञाता हैं, तपस्वी हैं और ये पहले हमारे स्वामो रहे हैं अथवा इनको बड़ी प्रभुता रही है, इस विचारसे जो आहार दिया जाता है और साधु उसे लेता है तो वह आधीपक कोष है ।
५. बनीपक बोष-.-'अमुक-अमुक व्यक्तियोंको दान देने में पुण्य होता है या नहीं इस प्रकार वाताके पूछने पर उसके अनुकूल वचन कहना तथा उससे प्रसन्न होकर दाता जो आहार देता है और साधु लेता है तो वह वनीपक दोष है।
६. चिकित्सा दोष-गृहस्थको किसो रोगकी चिकित्सा (औषध ) बताना उससे प्रभावित होकर गृहस्थ आहार देता है तथा साधू उसे ग्रहण करता है तो वह चिकित्सा दोष होता है ।
७. क्रोध दोष-क्रोध दिखाकर गृहस्पसे आहार प्राप्त करना क्रोध दोष है।
८. मान दोष-मान दिखाकर गृहस्थसे माहार प्राप्त करना मान दोष है।
९. माया दोष-माया दिखाकर गृहस्थसे आहार लेना माया दोष है।
१०. लोभ दोष-लोभ दिखाकर गृहस्थसे आहार लेना लोभ दोष है।
११. पूर्वस्सुति बोष-आहारके पूर्व हो गृहस्थको प्रशंसा करना जैसे आप बड़े दानो हैं, आपके सिवाय इस प्राममें साधुओंको आहार देने वाला कौन है ? इस प्रकारको प्रशंसासे प्रभावित होकर गहस्थ जो आहार देता है और साधु उसे लेता है तो वह पूर्वस्तुति दोष है।
१२. पश्चात् स्तुति दोष-आहार लेनेके बाद गृहस्थकी प्रशंसा करना जिससे वह पुनः भी आहार दे। इस तरह जो आहार प्राप्त किया जाता है वह पश्चात् स्तुति दोष है।
१३. विद्या दोष-मैं तुम्हें अमुक विद्या दूंगा। इस प्रकार विद्याका प्रलोभन देकर गृहस्थसे जो आहार लिया जाता है वह विद्या दोष है । * विद्या और मन्नमें अन्तर विद्या सिद्ध करने पर काम देती है और मन्त्र,
आज्ञा मानसे काम देता है।