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षष्ठ प्रभाषा
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अर्थ-दुःख है कि मन क्रोधसे, मानसे, मदस, माथाभावसे, लोमसे, कामसे, मोहसे और मात्सर्य समूहसे सदा दुःखदायक कर्म किया है ।। ७६ ॥ प्रमावमाझन्मनसा मयते
दयेकेन्द्रियाद्या भविनो भ्रमन्तः । निपीडिता हन्त विरोधिताश्च
संरोधिताः क्वापि निमीलिताश्च ॥ ७७ ॥ अर्थ-प्रमादसे उन्मत्त हृदय होकर मैंने भ्रमण करते हुए द्वो-इन्द्रिय तथा एकेन्द्रिय आदि जीवोंको विरोधित किया है, कहीं रोका है और निमोलित भो किया है अर्थात्तु उनके अंगों-उपाङ्गोंको जोर देकर दबाया है।। ७७॥ बाल्ये मया बोधसमुझितेन
कुज्ञानचेष्टानिरतेन नूनम् । अभक्ष्यसम्भक्षणादिक हा
पापं विचित्र रचितं न कि किम् ॥ ७ ॥ अर्थ-बाल्यावस्थामें ज्ञानरहित तथा कुज्ञानको चेष्टाओंमें लोन रहनेवाले मैंने अभक्ष्य भक्षण आदि क्या-क्या विचित्र पाप नहीं किया है ।। ७८ ॥ तारुण्यभावे कमनीयकान्ता
कण्ठाग्रहाश्लेषसमुद्भवेन । स्तोमेन मोवेन विलोभिलेन
कृतानि पापानि बहूनि हन्त ।। ७९ ॥ अर्थ-यौवन अवस्थामें सुन्दर स्त्रियोंके कण्ठालिङ्गनसे उत्पन्न अल्पसुखमें लुभाये हुए मैंने बहुत पाप किये हैं ।। ७६ ।। बाला युवानो विधवाश्च भार्या
जरमछरीरा। सरलाः पुमान्सः । स्वार्थस्य सिद्धौ निरतेन नित्यं ।
प्रतारिता हन्त मया प्रमोदात् ।। ८०॥ अर्थ स्वार्थसिद्धिमें लगे हुए मैंने बालक, युवा, विधवा स्त्रियों, वृक्ष तथा सोधे पुरुषोंको, खेद है कि बड़े हर्षसे सदा ठगा है ॥ ८ ॥