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सम्यवारिन-चिन्तामणिः ण तत्य पयडिपदेस बंधाणमस्थित्तं वोत्तं सकिज्जदे । दिदिबंधेण विणा उदयसरूवेण आगच्छमाणाणं पदेसाणमुक्यारेण इंधववएसुवदेसादो। ण च जिणेसु देस-सयलघम्मोव देसेण अज्जिय कम्मसंचओ वि अस्थि, उदयसरूव कम्मागमादो असंखेज्जगुणाए सेढोए पुषसंचिय कम्म णिज्जरं पडिसमयं करेंतेसु कम्मसंचयाणुववत्तीदो। ण च तित्थयरमण वयण-कायबत्तीओ इच्छा पुब्बियामो जेण तेसिं बंधो होज्जा किंतु दिणयर-कप्परुक्खा णं पत्तिओ व्य वयि ससियाओ।
शङ्का-चौबीसों तीर्थङ्कर सावद्य-सदोष हैं क्योंकि वे षट्कायिक जीवोंको विराधनामें कारणभूत श्रावक धर्मका उपदेश करते हैं । जैसेदान, पूजा, शील और उपवास—यह चार प्रकारका धावकधर्म है। यह चारों प्रकारका श्रावक धर्म षट्कायिक जीवोंका विराधक है। भोजन का स्वयं पकाना, दूसरोंसे पकवाना, अग्निका धोंकना, जलाना, खूतना तथा खुतवाना आदि कार्योसे जीवविराधनाके बिना दान नहीं बनता। इसी प्रकार वृक्षोंका काटना, कटवाना, ईंटोंका गिराना, गिरवाना तथा उनको पकाना पकवाना आदि षट्कायिक जीवोंके विराधनाके कारणभूत व्यापारके बिना जिन भवनका स्वयं बनाना तथा दूसरोंसे बनवाना नहीं हो सकता। अभिषेक, उपलेपन, सम्मान, चन्दन लगाना, फूल चढ़ाना तथा धूप जलाना आदि जीववधके अविनाभावी कार्योंके बिना पूजाका करना नहीं बनता। अच्छा, शीलरक्षा सदोष क्यों है ? ऐसी बात नहीं है क्योंकि स्वस्त्रीको पोड़ा पहुंचाये बिना शीलकी रक्षा नहीं हो सकती। उपवासका करना सदोष क्यों है ? अपने पेटमें स्थित जीवोंको पोड़ा पहुँचाए बिना उपवास नहीं हो सकता। अथवा स्थावर जीवोंको छोड़कर अस जोवोंको मत मारो ऐसा श्राविकाओंके लिये उपदेश देनेसे तीर्थङ्कर सावद्य-सदोष है । अथवा अनशन, ऊनोदर, वृत्तिपरिसंख्यान, रस. परित्याग, विविक्तशय्यासन, वृक्षमूल, आतापन, अभ्रावकाशयोग, उत्कुटासन, पर्यङ्कासन, अर्धपर्यशासन, स्वङ्गासन, गवासन, वीरासन, विनय, वयावृत्य, स्वाध्याय तथा ध्यान आदिसे होनेवाले क्लेशोंमें जीवोंको डालकर उन्हें ठगनेसे जिन निरवद्य नहीं हैं अतः वन्दनोय-स्तुति करने योग्य नहीं हैं।
समाधान-यहां पूर्वोक्त शङ्काका परिहार करते हैं-यद्यपि तीर्थकर ऐसा उपदेश देते हैं तो भो उनके कर्मबन्ध नहीं होता । क्योंकि वहाँ मिथ्यात्व, असंयम और कषायरूप प्रत्यय कारणका अभाव होनेसे वेद