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को परम्परा कारण माना जाता है । तथापि आन्तरिक शुद्धिके अभावमें बाह्यक्रिया मोक्षका कारण नहीं।
प्रस्तुत ग्रन्थमें व्यवहारतः चारित्रका वर्णन है जो साधकके लिए अनिवार्य है।
समानारिमा अक्षर "विन क्रियो परमः चारित्रम्" कहा गया है बन्धके कारण पाँच प्रत्यय माने गये हैं। उनके नाम हैं—मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । भगवान केवलोके भो पूर्वके चार प्रत्ययों का अभाव होनेपर भो योगके सद्भाव में परमोत्कृष्ट चारित्र नहीं माना गया। उसके अभावमें हो रत्नत्रयको पूर्णता है तभी तोनोंको एकता होती है और बहो मोक्षका साक्षात् कारण बनता है ।
सम्यक्त्वके आधारपर चतुर्थ-गुणस्थान होता है। पंचममें मात्र देशचारित्र होता है। मुनि अवस्था षष्ठ गुणस्थानरो लेकर अन्तिम चौदहवें तकको है। इनमें १३वां, १४वाँ केवलो अवस्थाके हैं। इनमें छठेसे बाहरवं तक गुणस्थान छमस्थ मुनियोंके हैं। सप्तम ( सातिशय ) अप्रमत्तसे ११वें तक उपशम श्रेणो और वें से १२वं तक धपक श्रेणी ऐसो दो श्रेणी विभाजित है। क्षपक श्रेणी चढ़ने वाला हो मुक्तिको प्राप्त होता है पर उपशम श्रेणो बाला गिर कर नोचे आता है।
प्रस्तुत ग्रन्थमें इन सबका विशद विवेचन है। सामान्यतः दोक्षार्थी आचार्य के पास जाकर आत्म-कल्याण को भावना प्रकट करता है तथा उसका मार्ग उनसे प्राप्त करनेको इच्छा करता है। नियम यह है कि आचार्य कल्याण का पूर्ण महावत स्वरूप साधुत्तर्याका स्वरूप बताते हैं और उसे ग्रहण करनेको अनुज्ञा देते हैं। यदि दोक्षार्थी मुनिश्रतके पालनका साहस नहीं करता-अपनो कमजोरो प्रकट करता है तब आचार्य उसे देशचारित्र' ( श्वावक व्रत ) का उपदेश देते हैं। इसी प्राचीन आगम पद्धतिको ध्यानमें रखकर इस ग्रन्थके लेखकने सर्वप्रथम साधु-धर्मका हो वर्णन किया है। प्रथमाध्यायमें साधुके मूलगुणोंका वर्णन किया है। द्वितीय अध्यायोंसे नवम अध्याय तक मुनिके पाँच प्रकारके सयमा १४ गुणस्थानों, १४ मार्गणास्थानों तथा ५ महावतों, ५ समितियों का विशेष वर्णन करते हुए प्रसंगानुसार प्रतोंको ५.५ भावनाओं इन्द्रिय-विजय साधुको एषणा-वृत्ति घर-आवश्यक ध्यान, तप अनित्यादि भावनाओका विस्तृत वर्णन किया है। दश अध्यायमें