________________
षष्ठे प्रकाश
७५
अभाव होनेसे यह निदान नहीं माना जाता क्योंकि मुनियोंने आगामी भोगाकांक्षाको निदान माना है ।। ६०-६३ ।।
आगे प्रतिक्रमण आवश्यकका वर्णन करते हैं—
ज्ञातावृष्टस्वभावोऽयमात्मा मोहोदयाद्यदा । स्वभावाद्विच्युतो भूत्वा प्रमाशापतितो भवेत् ॥ ६४ ॥ तदा स्वभावमास्पृश्य प्रमादाज् ज्ञो निवर्तते । तपस्विनः प्रयासोऽसौ प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ ६५ ॥ देवसिकादिमेवेन सप्तधा जायते तु तत् । दिवसस्यापराधेषु कृतं देवसिकं मतम् ।। ६६ ।। निशाया अपराधेषु कृतं तने शिकं स्मृतम् । पक्षोयापराधेषु विहितं पाक्षिकं भवेत् ॥ ६७ ॥ चतुर्मासापराधेषु चातुर्मासिक मुध्यते । संवत्सरापराधेषु साम्यस्परिकमिध्यते ॥ ६८ ।।
ईर्ष्याया अपराधेषु स्यावोर्यापथिकं तु तत् । संन्यासे संस्तरारोहात्पूर्वं गुरुपुरः स्थितः ।। ६९ यावज्जीवापराधानां क्रियते यनिवेदनम् । औत्तमायेंतिनाम्ना तत् प्रसिद्धं भूषि वर्तते ॥ ७० ॥ सौकर्याह साधूनामेकः पाठः प्रदीयते । वस पाठमात्रेण न भवेच्छुद्धिरात्मनः ॥ ७१ ॥ मनः शुद्धि विधायैव तत्पाठः कार्यकृद् भवेत् । फर्मावनिरोधाय मनसशुद्धिरिष्यते ॥ ७२ ॥
अर्थ --- ज्ञाताद्रष्टा स्वभाववाला यह आत्मा जब मोहके उदयसे स्वभावसे च्युत हो प्रमादमें आ पड़ता है तब ज्ञानो पुरुष स्वभावसे सम्बन्ध स्थापित कर प्रमादसे दूर हटता है । तपस्वी का यह प्रयास ही प्रतिक्रमण कहलाता है । वसिक आदिके भेदसे यह प्रतिक्रमण सात प्रकारका होता है । दिवस सम्बन्धी अपराधों में जो किया जाता है वह देवसिक प्रतिक्रमण माना गया है। रात्रि सम्बन्धी अपराधोंके विषय में जो किया जाता है वह नैशिक प्रतिक्रमण माना गया है। पक्षके भीतर होनेवाले अपराधों के विषय में जो किया जाता है वह पाक्षिक प्रतिक्रमण है । चार मास सम्बन्धी अपराधों के विषय में किया गया चातुर्मासिक प्रतिक्रमण है। एक वर्षके अपराधों के विषयमें किया गया साम्बरसरिक प्रतिक्रमण माना जाता है । ईयगमन सम्बन्धो अपराधोंके विषय में