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नियम प्रकाश
नरकगती भवेवाद्यं गुणस्थानचतुष्टयम् । अपर्याप्त न विधेत द्वितीयं च तृतीयकम् ।। ३ ।। द्वितीयादि पृथिव्यां त्वपर्याप्तं प्रथमं मतम् । पर्याप्तेषु हि जायेस गुणधामचतुष्टयम् ॥ ४ ॥ तिर्यग्गतौ भवेदाद्यं गुणस्यानीयपञ्चकम् । अपर्याप्तेषु जायेत वर्जयित्वा तृतीयकम् ।। ५ ।। आद्यं चतुष्टयं ज्ञेयं भोगभूमिभवेषु वै । कर्मभूमिज सिर्यं पर्याप्तेषु तु पञ्चकम् ॥ ६ ॥
अपर्याप्त तृतीयं नो जातुचिदपि सम्भवेत् । कर्मभूमिज मर्त्येषु सर्वाण्यपि भवन्ति हि ॥ ७ ॥ अपर्याप्तेषु विमाचं बाधि
चतुर्थञ्च
समुद्धात गतवलिनी मतम् ॥ ८ ॥ देवेष्वाद्यचतुष्टयम् ।
त्रयोदश अपर्याप्तेषु
गुणस्यानं
विज्ञेयं तृतीयस्थानमन्तरा ॥ ९॥
अर्थ - अब आगे ध्यानतत्त्वको सिद्धिके लिये यथाबुद्धि और यथागम मार्गणाओं में गुणस्थानोंका कथन करूँगा । प्रथम ही गतिमार्गणाकी अपेक्षा कहते हैं - सामान्यरूपसे नरकगतिमें आदिके चार गुणस्थान होते हैं किन्तु अपर्याप्त नारकियोंके द्वितीय और तृतीय गुणस्थान नहीं होता [ इसका कारण है कि तृतीय गुणस्थान में मरण नहीं होता और द्वितीय गुणस्थान में मरा जीव नरक नहीं जाता । यह प्रथम पृथिवोके अपर्याप्तकोंको अपेक्षा कथन है ]। द्वितीयादि पृथिवियोंके पर्यात प्रथम गुणस्थान हो होता है क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीवकी उनमें उत्पत्ति नहीं होती । पर्याप्तकों के चार गुणस्थान होते हैं ।
तिर्यञ्चगतिमें आदिके पाँच गुणस्थान होते हैं परन्तु अपर्याप्तकों के तृतीय गुणस्थान नहीं होता । भोगभूमिज तियंवों में आदिके चार गुणस्थान होते हैं परन्तु अपर्याप्तक अवस्था में तृतीय गुणस्थान सम्भव नहीं है । कर्मभूमिज तिर्यश्वमं पर्याप्तकोंके आदिके पांच गुणस्थान हैं । परन्तु अपर्याप्तकों तृतीय गुणस्थान कभी नहीं होता ।
मनुष्यगति में कर्मभूमि मनुष्योंमें सभी चौदह गुणस्थान होते हैं । परन्तु अपर्याप्तकों के प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ और समुद्घातगत केवलो - को अपेक्षा त्रयोदश-तेरहवाँ गुणस्थान होता है । भोगभूमिज मनुष्यों