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सम्यक्षारिन्न-चिन्तामणिः में आदिके चार गुणस्थान होते हैं परन्तु अपर्याप्तक अवस्था तृतीय गुणस्थान नहीं होता।
देवोंके आदिके चार गुणस्थान होते हैं परन्तु अपर्याप्तकोंमें तृतीय गुणस्थान नहीं होता ॥२-६॥ आगे इन्द्रिय और कायमार्गणाकी अपेक्षा वर्णन करते हैं
एकेन्द्रिये तु विज्ञेयं तेजो वायुविवजिते । आयद्वयं गुणस्थानमपर्याप्तवशायुते ॥१०॥ द्विहषीकातसमारभ्या संक्षिपञ्चेन्द्रियावधौ । गुणस्थानं भवेदराचं नान्यत्तत्र हि सम्भवेत् ॥ ११॥ पञ्चेन्द्रियेषु सन्स्येव धामानि निखिलान्यपि । स्थावरेषु भवेदाध-द्वयं नान्यत् प्रजायते। ॥ १२ ॥
असेषु सन्ति सर्वाणि गुणधामानि निश्चयात् । अर्थ-तेजस्कायिक और वायुकायिकको छोड़कर अन्य एकेन्द्रियोंके अपर्याप्तक दशामें आदिके दो गुणस्थान होते हैं। कारण यह है कि सासादन गुणस्थानमें मरा जीव यदि एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हो तो तेजस्कायिक और वायुकायिकमें उत्पन्न नहीं होता। सासादन गुणस्थान अपर्याप्तक अवस्थामें हो रहता है। पर्याप्तक होते-होते सासादन गुणस्थान विघट जाता है। द्वीन्द्रियसे लेकर असंज्ञो पञ्चन्द्रिय तक प्रथम गुणस्थान हो होता है अन्य गुणस्थान सम्भव नहीं हैं [ द्वितोय गुणस्थान में मरण कर विकलत्रयों में उत्पन्न होने वाले जीवोंके अपर्याप्तक अवस्थामें द्वितीय गुणस्थान भी सम्भव होता है ] 1 पञ्चेन्द्रियों में सभी गुणस्थान होते हैं । स्थावरोंमें आदिके दो गुणस्थान सम्भव हैं अन्य नहीं। त्रसोंमें निश्चयसे सभो गुणस्थान होते हैं ।। १०-१२ ।। आगे योग मार्गणाको अपेक्षा चर्चा करते हैं--
चतुर्यु चित्तयोगेषु वायोगेषु तथैव च ॥ १३ ॥ गुणस्थानानि सन्त्यत्र प्रथमाडू याब द्वादशम् । सत्यानुभययोगेषु वचोमानसयोस्तथा ।। १४ ।। आद्य त्रयोदशजेया गुणस्थानसमूहकाः । ओरालमिश्रके बोध्यमाद्यं चापि द्वितीयकम् ॥ १५॥ चतुर्थ चापि जीवानां सयोगे च त्रयोदशम् । औदारिके तु बोध्यामि सान्यायानि प्रयोवरा ॥ १६ ।।