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त्रयोदश प्रकाश
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स्ववीय वृत्तरत्नमत्र दुर्लभं परं मतं । इमे हरन्ति वञ्चनापरा नराधमा इह ॥४५॥ प्रमानिद्रिता दशां प्रमुञ्चत प्रमुञ्चत । धरस्व संयम द्रुतं नियम्य बुर्धरं मनः ।। ४६॥ पराजिसो विधीयतां हृषीक शसंचयः ।
मनुष्य जन्म सार्थक विधीयता विधीयताम् ।। ४७ ।। अर्थ-ऐ प्रमादो मनुष्यों! शोन हो सावधान होओ, इन्द्रिय वेषको धारण करनेवाले ये चोर घूम रहे हैं । तुम्हारा चारित्ररूपी रत्न इस लोकमें दुर्लभ माना गया है। धोखा देने में तत्पर रहने वाले ये अधम मनुष्य उस संयमरूपो रत्नका हरण कर रहे हैं, अपनो अत्यधिक निद्रा दशाको छोड़ो, छोड़ो। दुर्धर मनको रोककर शोध हो संयमको धारण करो। इन्द्रियरूपी शत्रओंके समूहको पराजित करो और मनुष्य जन्मको सार्थक करो, सार्थक करो ।। ४४.४७ ॥ इस प्रकार सम्यक चारित्र-चिन्तामणि ग्रन्थ में संयमासंघमल ब्धिका संक्षिप्त वर्णन करनेवाला
त्रयोदश प्रकाश पूर्ण हुआ।