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सर्वपा
अधःस्थ१
द्वितीय प्रकाश
शान्तमोहोऽयमेकादशगुणस्थितः । भवेत् ।। ६२ ।।
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संयुक्तशरत्कासारवद्
अर्थ - यह मुनि अन्तर्मुहूर्त तक पूर्ववत् स्थितिकाण्डकघात आदि क्रियाओं को करते हुए नवम गुणस्थानमें स्थित रहते हैं । पश्चात एक अन्तर्मुहूर्त के द्वारा अन्तरकरण करते हैं अर्थात् अप्रत्याख्यानादि बारह कषाय और नौ नोकषाय के नीच और ऊपरके निषेकोको छोड़कर बीके कितने ही निषेकोंके द्रव्यको निक्षेपण कर बोचके निषेकोंमें से मोहनीय कर्मका अभाव करते हैं। पश्चात् नपुंसक वेदका उपशम करते हैं, फिर अन्तर्मुहूर्त व्यतीत होनेपर स्त्रोवेदका उपशम करते हैं। तदनन्तर पुरुषवेदके नवबन्धको छोड़कर सत्ता में स्थित उसके समस्त द्रव्यका छह नोकषायोंके साथ उपशम करते हैं । पश्चात् बढ़ती हुई विशुद्धिके द्वारा अल्पकालमें स्वदोष -- रागांशके कारण बँधते हुए पुरुषवेदके नवकबन्धका उपशम करते हैं। पश्चात् समय-समय अर्थात् प्रत्येक समय में गुणश्रेणी विधानसे संज्वलन क्रोधके नवक द्रव्यको छोड़कर सत्ता में स्थित संचित द्रव्यका भावोंकी विशुद्धतासे उपराम करते हैं। पश्चात् अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा मध्यम कषायअप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यातावरण सम्बन्धी क्रोधका उपशम करते हैं । पुनः संज्वलन क्रोध के नवकबन्धका उपशम करते हैं। तदनन्तर प्रति समय असंख्यात गुणश्रेणीरूपसे बढ़ती हुई विशुद्धिके द्वारा संज्वलन सम्बन्धी मानके नवकवन्धको छोड़कर सत्ता स्थित सकल द्रव्यका उपशम करते हैं साथ हो मध्यम कषाय सम्बन्धी मानके सत्तामें स्थित सकल द्रव्यका शोघ्र ही उपराम करते हैं। पश्चात् असख्यात गुणश्रेणी द्वारा विशुद्धिसे बढ़ते हुए मुनिराज अन्तर्मुहूर्त में मात्र कालके द्वारा मध्यम कषाय सम्बन्धी मायाका उपराम कर संज्वलन मानके नवबन्धका उपशम करते हैं। पश्चात् प्रत्येक समय असंख्यात गुणश्रेणीसे संज्वलन मायाके नवबन्धको छोड़कर सत्ता में स्थित समस्त द्रव्यका उपशम करते हैं। पुनः आगे चलकर मध्यम कषाय सम्बन्धी माया और संज्वलन मायाका उपशम करते है । पुनः प्रत्येक समग्र असंख्यात गुणश्रेणीरूपसे बढ़ती हुई विशुद्धिसे उपशम करते हुए सूक्ष्मकृष्टि करते हैं और भारहोन जैसे हो जाते हैं। पश्चात् संज्वलन लोभके नवबन्धको छोड़कर सत्ता में स्थित समस्त द्रव्य का अपने पौरुषसे उपशम करते हैं। तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त में मध्यम कषाय