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सभ्यश्चारित्र-चिन्तामणिः अपने स्वरूप में ही रहती है। श्रेष्ठ आचार्योंके द्वारा यह गोचरोवृत्ति कहो जाती है। अहो ! वैराग्यको महिमा कनेके लिये कौन समर्थ है ? ॥ ३६-४२॥ आगे अग्निप्रशमनोवृत्ति कहते हैं
कस्यचिद् भवने वह्निालासन्ततिरुत्थिता। तस्थाः प्रशमने हेतुर्जलधारंव मृग्यते ॥४३॥ तज्जलं मधुरं वा स्यारक्षारं वा च भवेत् क्वचित् । एवं हयुदरमध्येऽपि सुधाग्निवर्धते विरात् ॥ ४४ ।। तस्य प्रशमने हेतुः पाणिस्था ग्राससन्ततिः । सरसा नीरसा सा स्यादिति चिन्ता न विद्यते ।। ४५॥
अग्निशमनी नाम वृत्तिरेषा निगद्यते। अर्थ-यदि किसोंके मकानमें अग्नि-ज्वालाओंका समूह उठा है तो उसे शान्त' करनेके लिये जलधारा ही खोजी जाती है, कहीं वह जल मीठा होता है और कहीं खारा भी हो सकता है। इसी प्रकार उदरके भीतर क्षुधारूपी अग्नि चिरकालसे बढ़ रहो है। उसे शान्त करनेके लिये हाथ में स्थित प्रासोका समूह हो कारण है। वह ग्रास समूह सरस हो या नीरस, इसका विचार नहीं रहता । यह अग्नि प्रशमनीवृत्ति कहो जातो है ॥ ४३-४५ ॥ अब गर्तपूरण वृत्तिको कहते हैं--
गृहाङ्गणगतो गर्तो यथा केनापि पूर्यते ॥ ४६॥ तयायमौदरो गर्तः सरसनारसैरपि । ग्रासः पूरयितुं शक्यो विरक्तस्य महामुनेः ।। ४७ ।।
गतपूरणनाम्नीयं प्रास्ता वृत्तिरिष्यते। अर्थ-जिस प्रकार धरके आंगनका गर्त किसी साधारण मिट्टो आदिके द्वारा भरा दिया जाता है उसी प्रकार विरक्त महामुनिके उदरका गर्त सरस अथवा नीरस ग्रासोंके द्वारा भर दिया जाता है अर्थात् मुनिराज सरस और नीरस आहारमें रागद्वेष नहीं करते। यह गर्तपूरण . नामको उत्तम वृत्ति मानी जाती है ॥ ४६-४७ ।। आगे अक्षम्रक्षण वृत्तिका निरूपण करते हैं
अक्षस्य म्रक्षणे जाते गन्त्री लक्ष्य प्रगच्छति ॥४८॥