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सम्यधारित-चिन्तामणिः पृथग् विसर्फवीचार एकत्वाचवितर्फ का।
सूक्ष्मत्रियोकं नाम तुर्य ध्युपरसक्रियम् ॥ ११३ ॥ अर्थ-रागको कालिमासे रहित शुक्ल-वोतराग परिणाम वाले मनुष्य के जो ध्यान होता है वह शुक्लध्यान कहा गया है । यह शुक्लध्यान घोक्षका प्रधान कारण है। शक्लध्यानके भो चार भेद शास्त्रों में कहे गये हैं। ये सभी ध्यान कर्म निर्जराके उपाय है तथा मुनियोंके ही होते हैं। पहला शुक्लध्यान पृथक्त्व वितर्कवोचार, दूसरा एकत्व वितकं, तोसरा सूक्ष्म क्रियापत्ति और चौथा व्युपरतक्रिया निवति है ॥ १११.११३ ।।
भावार्थ-जिसमें द्रव्य, पर्याय, शब्द, अर्थ और योगमें परिवर्तन हो वह पृथकश्व वितर्कयोचार नामका पहला शुक्ल ध्यान है। यह तीनों योगोंके आलम्बनसे होता है। जिसमें द्रव्य, पर्याय आदिका परिवर्तन नहीं होता है वह एकत्व वितकं नामका दूसरा शुक्लध्यान है। यह तीनमेंसे किसो एक योगके आलम्बनसे होता है । तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम अन्तर्मुहर्त में जब मात्र काययोगका सूक्ष्म स्पन्दन रह जाता है तब सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति नामका तीसरा शुक्लध्यान होता है और जब सूक्ष्म काययोगका भी स्पन्दन बंद हो जाता है पूर्वरूपसे योग रहित अवस्था हो जाती है तब चौदहवें गुणस्थानमें व्युपरत-क्रिया-निति नामका चौथा शुक्लध्यान होता है। प्रथम शुक्लध्यानसे मोहनीय कर्मका उपशम अथवा क्षय होता है । द्वितीय शुक्लध्यानसे शेष तोन धातिया कर्मोका क्षय होता है । तृतीय शुक्ल ध्यानसे कर्मोको अत्यधिक निर्जरा होतो है और चतुर्थ शुक्लध्यानके द्वारा अघातिया कर्मोको पचासो प्रकृतियोंका क्षय होता है। आगे तप आचारका समारोप करते हैं
एषोऽस्ति तप आचारः साधूनां प्रमुखा किया। एतेनेय विलीयन्ते फर्माणि निखिलान्यपि ॥ ११४ ॥ अव तप आचारे मुनयः कर्मनिर्जराम् । चिकोर्षद स्तपस्पन्ति धृत्वा नानावतान्यपि ॥ ११५ ॥ सिंहनिष्क्रीडितादोनि कठिनानि महान्यपि ।
एषां विधिविधानानि ज्ञेपानि हरिवंशतः ।। ११६ ।। १. इनका स्वरूप सधा गुणस्यान आदिका वर्णन पहले सम्यक्त्व-चिन्तामणि
और सज्जात चन्द्रिकामें किया गया है, अतः विस्तार भयसे यहाँ भेदमात्र कहे गये हैं।