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___ अष्टम प्रकाश
१२१ धर्म होना न शोमन्ते निर्गन्धा इव किशुकाः। सम्यक्त्यमूलो धर्मोऽस्ति मूलं रक्ष्यं ततो नभिः ।। ११८॥ सम्यक्त्ववन्तो ये जीक्षा चारित्रं वधते परम् । ते ब्रुतं शिवमायान्ति स्थायिसौख्यसमन्वितम् ॥ ११ ॥ ये नरा धर्मात्य भोगाकांक्षा पनि । ते नूनं काचखण्डन विक्रोणन्ति महामणिम् ।। १२० ॥ मोगाकांक्षामहानद्यो बहसाना नराः सवा । अन्ते निगोदनामानं महाब्धि प्रविशन्ति वै ॥ १२१ ॥ दुर्लभं मानुषं लन्ध्या धर्मेण सफलीकुरु । समुद्रे पतितं रत्नं यथा भवति दुर्लभम् ॥ १२२ ।। तथा गतं मनुष्यत्वं दुर्लभं व वर्तते ।
विपदप्रस्तं नरं लोके धर्मो रक्षति रक्षितः ॥ १२३ ॥ अर्थ-वनमें मार्गसे भ्रष्ट, समुद्र में पतित, दरिद्रतारूपो समुद्रके तलमें निमग्न और पर्वतसे गिरे हए मनुष्यको रक्षा करने के लिए पृथिवीपर धर्म ही समर्थ है अन्य कोई नहीं। धर्म, त्रिवर्गका मूल है
और त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ, काम-सूखका साधन है ! अतः मूलको रक्षा करना चाहिये क्योंकि मूलका नाश होनेपर सुख किससे हो सकता है ? आत्माका जो स्वभाव है वही ज्ञानीजनों द्वारा धर्म कहा जाता है ! रत्नत्रय और क्षमा आदिक भो धर्म शब्दसे कहे जाते हैं। धर्मसे हो मनुष्योंका जोवन सफल होता है। धर्महोन मनुष्य गन्धरहित टेसूके फूलके समान शोभित नहीं होते । धर्म, सम्यक्त्वमूलक है अतः मनुष्योंको मूलकी रक्षा करना चाहिये । जो सम्यग्दृष्टि मनुष्य उत्तम चारित्र धारण करते हैं वे शोन हो शाश्वत सुखसे सहित मोक्षको प्राप्त होते हैं । जो मनुष्य धर्म धारण कर उसके बदले भोगोंको आकांक्षा रखते हैं वे निश्चित ही कांच के टुकड़ेसे महामणिको बेचते हैं। निरन्तर भोगाकाङ्क्षारूपो महानदोमें बहने वाले मनुष्य अन्तमें निगोद नामक महासागरमें प्रवेश करते हैं । दुर्लभ मनुष्य पर्यायको प्राप्त कर उसे धर्मसे सफल करो। समुद्र में पड़ा हुआ रत्न जिस प्रकार दुर्लभ होता है उसो प्रकार गया हुआ मनुष्य भव दुर्लभ है । रक्षा किया हुआ धर्म हो लोकमें विपत्तिग्रस्त मनुष्यकी रक्षा करता है ॥ ११४-१२३ ।।