Book Title: Niyamsara Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्दनियमसार ( खण्ड - 2 ) (मूलपाठ - डॉ. ए. एन. उपाध्ये) (व्याकरणिक विश्लेषण, अन्वय, व्याकरणात्मक अनुवाद) संपादन कमलचन्द सोगाणी डॉ. द- रचित अनुवादक श्रीमती शकुन्तला जैन w णाणुज्जीवो जोवो जैनविद्या संस्थान श्री महावीरजी प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी राजस्थान Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द-रचित नियमसार (खण्ड-2) (मूलपाठ-डॉ. ए. एन. उपाध्ये) (व्याकरणिक विश्लेषण, अन्वय, व्याकरणात्मक अनुवाद) संपादन डॉ. कमलचन्द सोगाणी • निदेशक जैनविद्या संस्थान-अपभ्रंश साहित्य अकादमी अनुवादक श्रीमती शकुन्तला जैन सहायक निदेशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी माना कमलनयन। मायामा पाणुज्जीवी जीवो जैनविद्या संस्थान श्री महावीरजी प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी राजस्थान Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी श्री महावीरजी - 322 220 ( राजस्थान ) दूरभाष- 07469-224323 प्राप्ति - स्थान 1. साहित्य विक्रय केन्द्र, श्री महावीरजी 2. साहित्य विक्रय केन्द्र दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी सवाई रामसिंह रोड, दूरभाष - 0141-2385247 जयपुर - 302 004 प्रथम संस्करण : जून, 2015 सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन मूल्य - 600 रुपये ISBN 978-81-926468-5-5 पृष्ठ संयोजन फ्रैण्ड्स कम्प्यूटर्स जौहरी बाजार, जयपुर - 302 003 दूरभाष- 0141-2562288 मुद्रक जयपुर प्रिण्टर्स प्रा. लि. एम.आई. रोड, जयपुर - 302 001 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ संख्या - लं 2 44 . ० 22 10. अनुक्रमणिका क्र.सं. विषय प्रकाशकीय ग्रंथ एवं ग्रंथकारः सम्पादक की कलम से संकेत सूची परमार्थप्रतिक्रमण-अधिकार निश्चयप्रत्याख्यान-अधिकार परमआलोचना-अधिकार शुद्धनिश्चयप्रायश्चित-अधिकार परमसमाधि-अधिकार 8. परमभक्ति-अधिकार निश्चयपरमावश्यक-अधिकार शुद्धोपयोग-अधिकार 11. मूल पाठ 12.. परिशिष्ट-1 (i) संज्ञा-कोश (ii) क्रिया-कोश (iii) कृदन्त-कोश (iv) विशेषण-कोश (v) सर्वनाम-कोश (vi) अव्यय-कोश परिशिष्ट-2 छंद परिशिष्ट-3 सहायक पुस्तकें एवं कोश 101 131 145 160 165 169 176 178 184 187 Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय आचार्य कुन्दकुन्द -रचित 'नियमसार ( खण्ड - 2 ) ' हिन्दी - अनुवाद सहित पाठकों के हाथों में समर्पित करते हुए हमें हर्ष का अनुभव हो रहा है। आचार्य कुन्दकुन्द का समय प्रथम शताब्दी ई. माना जाता है। वे दक्षिण के कोण्डकुन्द नगर के निवासी थे और उनका नाम कोण्डकुन्द था जो वर्तमान में कुन्दकुन्द के नाम से जाना जाता है। जैन साहित्य के इतिहास में आचार्य श्री का नाम आज भी मंगलमय माना जाता है। इनकी समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार, रयणसार, अष्टपाहुड, दशभक्ति, बारस अणुवेक्खा कृतियाँ प्राप्त होती हैं। आचार्य कुन्दकुन्द - रचित उपर्युक्त कृतियों में से 'नियमसार' जैनधर्मदर्शन को प्रस्तुत करनेवाली शौरसेनी भाषा में रचित एक रचना है। इस ग्रन्थ में कुल 187 गाथाएँ हैं जिनमें से खण्ड-1 में 1 से 76 तक की गाथाएँ ली गई हैं। इसमें निश्चय और व्यवहार दृष्टि से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का निरूपण किया गया है। इसके साथ ही जीव द्रव्य, पुद्गल द्रव्य, धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य तथा काल द्रव्य का भी वर्णन किया गया है। पुद्गल द्रव्य को विशेष रूप से समझाया गया है। हु खण्ड-2 में 77 से 187 तक की गाथाएँ ली गई हैं। इसमें चारित्रिक दोषों शमन के लिए प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना, प्रायश्चित्त का वर्णन करते सिद्ध अवस्था की प्राप्ति के लिए आवश्यक, समाधि/सामायिक, आत्मस्वाधीनता/वशता, ध्यान व वचनव्यापार, केवलज्ञान का स्वरूप, केवली का व्यवहार तथा सिद्ध के स्वरूप का निरूपण किया गया है। (v) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'नियमसार' का हिन्दी अनुवाद अत्यन्त सहज, सुबोध एवं नवीन शैली में किया गया है जो पाठकों के लिए अत्यन्त उपयोगी होगा। इसमें गाथाओं के शब्दों का अर्थ व अन्वय दिया गया है। इसके पश्चात संज्ञा-कोश, क्रिया-कोश, कृदन्तकोश, विशेषण-कोश, सर्वनाम-कोश, अव्यय-कोश दिया गया है। पाठक 'नियमसार' के माध्यम से शौरसेनी प्राकृत भाषा व जैनधर्म-दर्शन का समुचित ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे, ऐसी आशा है। ___ प्रस्तुत कृति का खण्ड-2 प्रकाशित किया जा रहा है। जैन दार्शनिक साहित्य को आसानी से समझने और प्राकृत-अपभ्रंश की पाण्डुलिपियों के सम्पादन में नियमसार का विषय सहायक होगा। श्रीमती शकुन्तला जैन, एम.फिल. ने बड़े परिश्रम से प्राकृत-अपभ्रंश भाषा सीखने-समझने के इच्छुक अध्ययनार्थियों के लिए 'नियमसार (खण्ड-2)' का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया है। अतः वे हमारी बधाई की पात्र हैं। पुस्तक प्रकाशन के लिए अपभ्रंश साहित्य अकादमी के विद्वानों विशेषतया श्रीमती शकुन्तला जैन के आभारी हैं जिन्होंने 'नियमसार(खण्ड-2)'का हिन्दीअनुवाद करके जैनदर्शन व शौरसेनी प्राकृत के पठन-पाठन को सुगम बनाने का प्रयास किया है। पृष्ठ संयोजन के लिए फ्रेण्ड्स कम्प्यूटर्स एवं मुद्रण के लिए जयपुर प्रिण्टर्स धन्यवादाह है। न्यायाधिपति नरेन्द्र मोहन कासलीवाल महेन्द्र कुमार पाटनी अध्यक्ष मंत्री प्रबन्धकारिणी कमेटी दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी डॉ. कमलचन्द सोगाणी संयोजक जैनविद्या संस्थान समिति जयपुर वीर निर्वाण संवत्-2541 09.06.2015 (vi) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ एवं ग्रंथकार संपादक की कलम से आचार्य कुन्दकुन्द आध्यात्मिक जीवन के प्रबल समर्थक हैं। उनके लिए चार गतियों की यात्रा हेय है और सिद्ध अवस्था की ओर गमन उपादेय है। उनके अनुसार बहिर्मुखता संसार है और अन्तर्मुखता एक ऐसा कदम है जो अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति के लिए अपरिहार्य है । अन्तर्मुखता दिव्य जीवन की ओर मनुष्य को उन्मुख करती है। बाह्य उलझनों को छोड़कर स्वभाव-विभाव के भेद का सतत अभ्यास ही अंतरंग में स्थित होने को सुलभ करता है और इससे आत्मध्यानरूपी आचरण घटित होता है। ऐसे आचरण से जहाँ आचार्य के अनुसार एक ओर चारित्रिक दोषों का शमन होता है वहाँ दूसरी ओर परम समाधि, सामायिक, निर्वाण - योगभक्ति, स्वाधीनता, केवलज्ञान तथा सिद्धावस्था की प्राप्ति भी होती है। वे चारित्रिक दोषों के शमन के लिए प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना तथा प्रायश्चित्त में वचन - उच्चारण को स्वीकार तो करते हैं, किन्तु ध्यान-प्रक्रिया को परम औषधि के रूप में मान्यता प्रदान करते हैं। ऐसा माना गया है कि मन के अचेतन स्तर से कषाएँ दोष उत्पन्न करती हैं जो ध्यान के द्वारा शीघ्र समाप्त की जा सकती हैं। 1. चारित्रिक दोषों का शमनः (i) प्रतिक्रमण (अतीत के दोषों का शमन) : जो अन्तर्मुखी साधु ध्यान में लीन हैं वे सब दोषों का परित्याग करते हैं, इसलिए ध्यान ही सब दोषों का प्रतिक्रमण कहा जाता है (93)। जो साधु मन-वचन-काय की बाह्य प्रवृत्तियों (1) नियमसार (खण्ड-2 5-2) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को छोड़कर मन-वचन-काय की अन्तर्मुखी प्रवृत्तिवाला होता है वह प्रतिक्रमण करनेवाला कहा जाता है, क्योंकि वह उस समय आत्मध्यान से युक्त होता है (88)। जो देहात्मवादी मिथ्यामार्ग को छोड़कर अंतरंग में स्थित होता हुआ जिनमार्ग में स्थिर आचरण करता है वह प्रतिक्रमण करनेवाला कहा जाता है, क्योंकि वह उस समय आत्मध्यानसहित होता है (86)। प्रतिक्रमण के बाह्य शब्द-उच्चारण के कौशल को छोड़कर रागादि भावों के कर्तृत्व का निवारण करके जो आत्मा का ध्यान करता है उसके प्रतिक्रमण अर्थात् अतीत के दोषों का शमन होता है (83)। शुद्ध आत्मा की प्राप्ति जीवन का उत्तम प्रयोजन है, उसमें दृढ़तापूर्वक लगा हुआ उत्तम मुनि कर्म को समाप्त/नष्ट कर देता है । इसलिए ध्यान ही उत्तम प्रयोजन का हेतु होने से प्रतिक्रमण (है) (92)। प्रतिक्रमण नामक सूत्र में जिस प्रकार प्रतिक्रमण कहा गया है उसको उस प्रकार समझकर जो चिंतन करता है उसके उस समय प्रतिक्रमण होता है (94)। (ii) प्रत्याख्यान (भविष्य में होनेवाले शुभ-अशुभ विकल्पों का परिहार): जो साधु समस्त बाह्य वचन व्यापार को छोड़कर अंतरंग में स्थित होता हुआ शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है उसके प्रत्याख्यान होता है (95)। अन्तर्मुखी हुआ ज्ञानी इस प्रकार चिन्तन करता है- जो आत्मा केवलज्ञान स्वभाववाला, केवलदर्शन स्वभाववाला, अनन्त सुख से युक्त तथा केवलशक्ति स्वभाववाला है, वह मैं हूँ (96)। जो शुद्धआत्मा निजस्वभाव को नहीं छोड़ता है तथा थोड़ा सा भी परभाव ग्रहण नहीं करता है, सबको जानता-देखता है वह मैं हूँ (97)। वह विचारता है कि ज्ञान-दर्शन लक्षणवाला अकेला मेरा आत्मा शाश्वत है इसके अतिरिक्त शेष पदार्थ मेरे लिए बाह्य हैं क्योंकि वे सभी संयोग लक्षणवाले हैं (102)। कषायरहित, संयमी, परीषहजयी, जागरूक, संसार के (2) नियमसार (खण्ड-2) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भय से त्रस्त साधक का प्रत्याख्यान सुखपूर्वक होता है (105)। इस प्रकार जो सदैव आत्मा और कर्म के भेद का अभ्यास करता है वह संयमी नियमपूर्वक प्रत्याख्यान को धारण करने के लिए समर्थ होता है (106)। (iii) आलोचना (स्वकृत दोषों का प्रक्षालन): पंच प्रकार के शरीर और आठ प्रकार के कर्म से रहित तथा विभाव गुण-पर्यायों से रहित आत्मा का जो अंतरंग में स्थित होकर ध्यान करता है उस श्रमण के आलोचना घटित होती है (107)। जो साधु अंतरंग में स्थित होकर निज भावदशा को समभाव में संस्थापित करके निज आत्मा को देख लेता है उसको आलोचन' नामक आलोचना कही जाती है (109)। चूँकि निज आत्मा का परिणाम स्वाधीन और समभाववाला होता है, इसलिए वह अष्ट कर्मों से परिपूर्ण भूमि में उत्पन्न दोषरूपी वृक्ष के मूल का उच्छेदन करने में समर्थ है यह आलुछंण' नामक आलोचना कही गई है (110)। जो साधु कर्मों से भिन्न विमलगुणों के निवास शुद्ध-आत्मा (निजात्मा) का अंतरंग में निष्ठापूर्वक गुणगान करता है वह 'वियडीकरण' (गुण-प्रकटीकरण) नामक आलोचना समझी जानी चाहिए (111)। लोक अलोक को देखनेवाले अर्थात् केवलज्ञानियों द्वारा भव्यों के लिए यह कहा गया है कि- कामवासना, अहंकार, कपट और लोभरहित भाव से भावशुद्धि होती है यह ‘भावशुद्धि' नामक आलोचना है (112)। (iv) प्रायश्चित (निर्विकार चित्त की प्राप्ति): अपने क्रोधादि विभाव भावों के क्षय आदि के चिंतन में लीन होना और अंतरंग में स्थित होकर निज शुद्धात्मा के गुणों का चिंतन प्रायश्चित्त कहा गया है (114)। अधिक कहने से क्या (लाभ)? महामुनियों का जो बाह्य-अंतरंग तपरूपी श्रेष्ठ चारित्र है वह अनेक कर्मों के क्षय का निमित्त है। अतः वह पूर्ण प्रायश्चित्त है (117)। नियमसार (खण्ड-2) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतानंत भवों द्वारा उपार्जित शुभ-अशुभ कर्मसमूह बाह्य-अंतरंग तपरूपी चारित्र से नष्ट होता है इसलिए तप प्रायश्चित्त है (118)। आत्मस्वरूप के आलम्बन मात्र से जीव बहिर्मुखी सभी भावों का परिहार करने के लिए समर्थ है, इसलिए सभी बहिर्मुखी भावों का परिहार पूर्णरूप से ध्यान में घटित होता है (119)। शुभ-अशुभ बाह्य वचन कौशल को और रागादि भावों को रोक करके जो आत्मा को ध्याता है उसके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र घटित होता है (120)। 2. सिद्ध अवस्था की प्राप्ति के लिए आवश्यक है: (i) समाधि/सामायिकः बाह्य वचन उच्चारण की क्रिया को छोड़कर वीतराग भाव से जो अंतरंग में आत्मा को ध्याता है उसके परम-समाधि घटित होती है (122)। वनवास, कायक्लेश, अनेक प्रकार के उपवास, अध्ययन, मौन आदि कार्य समतारहित/ध्यानरहित श्रमण को क्या लाभ करेंगे? (124)। जो समस्त पापों से निवृत्त है, जो मन-वचन-कायरूप तीन गुप्तिवाला है, जिसके द्वारा इन्द्रियाँ नियन्त्रित की गई हैं उसके सामायिक/समभाव स्थिर होती है (125)। बाह्य प्रपंच से पराङ्मुख जिस साधु के बाह्य व अभ्यंतर संयम में, मर्यादित काल के आचरण स्वरूप नियम में तथा बाह्य और अभ्यंतर तप में शुद्ध आत्म द्रव्य अन्तर्वर्ती है उसके समभावरूप/सामायिक स्थिर होती है (127)। जो साधु शुभ परिणति से उपार्जित पुण्य कर्म को और हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रह के परिणाम से उत्पन्न होनेवाले पाप कर्म को सदैव छोड़ता है उसके समभावरूप/सामायिक स्थिर होती है (130)। जो साधु धर्म और शुक्ल ध्यान को नित्य ध्याता है उसके समभावरूप सामायिक स्थिर होती है। ऐसा केवली के शासन में कहा गया है (133)। नियमसार (खण्ड-2) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ii) निर्वाण/योगभक्तिः जो श्रावक अथवा श्रमण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में भक्ति करता है उसके निर्वाणभक्ति होती है (134)। मोक्षमार्ग में अपने को स्थापित करके (जो) निर्वाणभक्ति करता है उससे वह असहाय गुणवाली (स्वतन्त्र गुणवाली) निज-आत्मा को प्राप्त करता है (136)। जो साधु रागादि के परिहार में तथा सर्वविकल्पों के अभाव में निज को लगाता है वह योगभक्ति से युक्त है (137, 138)। (iii) आत्म-स्वाधीनता/वशताः जो जीव अंतरंग में स्थित है तथा बाह्य प्रपंच से पराङ्मुख है वह अन्य के वश नहीं होता है उसके ही ध्यानस्वरूप आवश्यक कर्म होता है (141)। जो जीव अन्य के वश नहीं है वह अवश है तथा अवश का ध्यानस्वरूप कर्म आवश्यक है। इससे जीव अशरीरी (सिद्ध) होता है (142)। जो साधु अंतरंग और बाह्य जल्प में क्रियाशील होता है वह बहिरात्मा होता है और जो साधु अंतरंग और बाह्य जल्पों में क्रियाशील नहीं होता है वह अन्तरात्मा कहा जाता है और अन्तरात्मा ही स्ववश होता है (150)। जो श्रमण अशुभ भाव या शुभ भाव से युक्त होता है वह अन्य के वश होता है, इसलिए उसके आवश्यक लक्षणवाला ध्यानस्वरूप कर्म घटित नहीं होता है (143, 144)। जो श्रमण द्रव्य, गुण, पर्यायों में मन को लगाता है वह भी अन्य के वश है (145)। परभाव को छोड़कर जो साधु निर्मल स्वभाववाले निज-आत्मा को ध्याता है वह निश्चय ही आत्मा के वश होता है तथा उसके ही आवश्यक कर्म है (146)। 3. ध्यान व वचनव्यापारः नियमपूर्वक किया गया वचनमय प्रतिक्रमण, वचनमय प्रत्याख्यान, वचनमय नियम और वचनमय आलोचना- ये सब स्वाध्याय है (153)। यदि कोई प्रतिक्रमण आदि करने के लिए समर्थ है तो वह ध्यानमय प्रतिक्रमण करे। यदि कोई शक्तिरहित है तो श्रद्धान ही करे (154)। नियमसार (खण्ड-2) (5) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. पूर्णता की प्राप्तिः - (i) केवलज्ञान का स्वरूप: जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश और ताप एक ही साथ विद्यमान रहता है उसी प्रकार केवलज्ञानी का ज्ञान तथा दर्शन एक ही साथ विद्यमान रहता है (160) । मूर्त-अमूर्त, चेतन - अन्य अचेतन द्रव्य को, स्व को और सभी पर को देखते हुए का ज्ञान प्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय होता है । इसलिए केवली के स्व तथा लोकालोक प्रत्यक्ष होता है (167) । ज्ञान के स्वपर प्रकाशपने के सिद्धान्त को ध्यान में रखते हुए आचार्य ने एक ओर ढंग से अपनी बात पुष्ट की है और कहा है: चूँकि ज्ञान स्वपरप्रकाशक है, इसलिए व्यवहार से अर्थात् बाह्य दृष्टि से ज्ञान पर को जानता हुआ स्व को भी जानता है। निश्चयदृष्टि अर्थात् अन्तरदृष्टि से ज्ञान स्व को जानता हुआ पर को भी जानता है (171, 159 ) । अतः केवलज्ञान स्व और पर की पूर्णता को लिए हुए है और केवलज्ञानी सदैव स्व और पर को अतीन्द्रियरूप से / प्रत्यक्षरूप से जानता है, चाहे दृष्टि बाह्य हो और चाहे आन्तरिक हो। (ii) केवली का व्यवहार : जानते हुए और देखते हुए भी केवली के इच्छा से युक्त वर्तन नहीं होता इस कारण वह कर्म का अबंधक कहा गया है (172)। फल की आकांक्षा से युक्त वचन जीव के बंध के कारण है । केवलज्ञानी के वचन फल की आकांक्षा-रहित होते हैं तथा उनका खड़े रहना, बैठना और विहार करना इच्छा से युक्त नहीं होता है, इसलिए उनके कर्म बंध नहीं होता है। (iii) सिद्ध का स्वरूपः जो आयुकर्म के क्षय से समयमात्र में लोक के अग्रभाग को प्राप्त करता है वह सिद्ध कहलाता है । कर्म से मुक्त / छूटा हुआ आत्मा लोक के अग्रभाग तक जहाँ तक धर्मास्तिकाय है वहाँ तक जाता है (176, 184)। वह सिद्ध परमात्मा शुद्ध, जन्म-जरा-मरण से रहित, आठ (6) नियमसार (खण्ड-2) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मों से शून्य, ज्ञानादि चार स्वभाववाला, अक्षय, अविनाशी और अखण्डित है (177)। वह सिद्ध परमात्मा अनन्त सुखसंपन्न, अतीन्द्रिय, अनुपम, पुण्यपाप से रहित, पुनरागमन से रहित, नित्य, अचल और अनालंब है (178)। सिद्ध भगवान के केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख और केवलवीर्य, अमूर्तत्व, अस्तित्व और सप्रदेशत्व होता है (182) । अंत में आचार्य का कहना है कि- जीव अनेक प्रकार के हैं, उनके कर्म अनेक प्रकार के हैं तथा उनकी लब्धियाँ अनेक प्रकार की होती हैं। इसलिए परमार्थ में लगे हुए साधक को स्व और परसिद्धान्त के विषय में लोगों के साथ शब्द-विवाद छोड़ देना चाहिये। नियमसार (खण्ड-2) डॉ. कमलचन्द सोगाणी पूर्व प्रोफेसर दर्शनशास्त्र, दर्शनशास्त्र विभाग सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर एवं निदेशक 'जैनविद्या संस्थान - अपभ्रंश साहित्य अकादमी (7) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार को अच्छी तरह समझने के लिए गाथा के प्रत्येक शब्द जैसेसंज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण, कृदन्त आदि के लिए व्याकरणिक विश्लेषण में प्रयुक्त संकेतों का ज्ञान होने से प्रत्येक शब्द का अनुवाद समझा जा सकेगा। अ - अव्यय (इसका अर्थ = लगाकर लिखा गया है) अक - अकर्मक क्रिया अनि - अनियमित कर्म - कर्मवाच्य नपुं. - नपुंसकलिंग पु. - पुल्लिंग भवि - भविष्यत्काल भूक - भूतकालिक कृदन्त व - वर्तमानकाल वकृ - वर्तमान कृदन्त वि - विशेषण विधि - विधि विधिकृ - विधि कृदन्त संकृ - संबंधक कृदन्त सक - सकर्मक क्रिया सवि - सर्वनाम विशेषण स्त्री. - स्त्रीलिंग हेकृ - हेत्वर्थक कृदन्त नियमसार (खण्ड-2) (8) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ( ) - इस प्रकार के कोष्ठक में मूल शब्द रखा गया है। •[()+()+()..... ] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर + चिह्न शब्दों में संधि का द्योतक है। यहाँ अन्दर के कोष्ठकों में गाथा के शब्द ही रख दिये गये हैं । •[()-()-()..... ] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर ' - ' चिह्न समास का द्योतक है। •{[ ()+()+().....]वि} जहाँ समस्त पद विशेषण का कार्य करता है वहाँ इस प्रकार के कोष्ठक का प्रयोग किया गया है। • जहाँ कोष्ठक के बाहर केवल संख्या (जैसे 1 / 1, 2/1 आदि) ही लिखी है वहाँ उस कोष्ठक के अन्दर का शब्द 'संज्ञा' है। • जहाँ कर्मवाच्य, कृदन्त आदि प्राकृत के नियमानुसार नहीं बने हैं वहाँ कोष्ठक के बाहर 'अनि' भी लिखा गया है। क्रिया - रूप निम्नप्रकार लिखा गया है www 1/1 अक या सक 1/2 अक या सक 2/1 अक या सक 2/2 अक या सक 3/1 अक या सक 3/2 अंक या सक नियमसार (खण्ड-2 -2) - - - - - - उत्तम पुरुष एकवचन उत्तम पुरुष / बहुवचन मध्यम पुरुष / एकवचन मध्यम पुरुष / बहुवचन अन्य पुरुष / एकवचन अन्य पुरुष / बहुवचन (9) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभक्तियाँ निम्नप्रकार लिखी गई हैं चन 1/1 - प्रथमा/एकवचन 1/2 - प्रथमा/बहुवचन 2/1 - द्वितीया/एकवचन 2/2 - द्वितीया/बहुवचन 3/1 - तृतीया/एकवचन 3/2 - तृतीया/बहुवचन 4/1 - चतुर्थी/एकवचन 4/2 - चतुर्थी/बहुवचन 5/1 - पंचमी/एकवचन 5/2 - पंचमी/बहुवचन 6/1 - षष्ठी/एकवचन 6/2 - षष्ठी/बहुवचन 7/1 - सप्तमी/एकवचन 7/2 - सप्तमी/बहुवचन (10) नियमसार (खण्ड-2) Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमसार ( नियमसारो) ( खण्ड - 2 ) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमार्थप्रतिक्रमण-अधिकार (गाथा 77 से गाथा 94 तक) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 77. णाहणारयभावो तिरियत्थो मणुवदेवपज्जाओ। कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता व कत्तीणं।। णाहं . नहीं [(ण)+ (अहं)] ण (अ) = नहीं अहं (अम्ह) 1/1 स णारयभावो [(णारय)-(भाव) 1/1] तिरियत्थो (तिरियत्थ) 1/1 वि मणुवदेवपज्जाओ [(मणुव)-(देव) (पज्जाअ) 1/1] कत्ता (कत्तु) 1/1 वि अव्यय अव्यय (कारइदु) 1/1 वि अणुमंता (अणुमंतु) 1/1 वि अव्यय (कत्ति) 6/2 वि नरक पर्याय तिर्यंच स्थित मनुष्य और देव पर्याय करनेवाला न तो . भी कारइदा करानेवाला अनुमोदना करनेवाला न ही करनेवालों की णेव कत्तीणं अन्वय- णाहं णारयभावो तिरियत्थो मणुवदेवपज्जाओ ण कत्ता णेव कारइदा कत्तीणं अणुमंता हि। अर्थ- मैं नरकपर्याय, तिर्यंच स्थित (पर्याय), मनुष्य और देवपर्याय नहीं (हूँ)। (अपने मूल शुद्ध स्वरूप के अवलोकन से ज्ञात होता है कि) न तो (मैं) (उन विभाव पर्यायों का) करनेवाला (हूँ), न ही (उनको) करानेवाला (हूँ) (और) करनेवालों की अनुमोदना करनेवाला भी (नहीं हूँ)। (अतः मैं शुद्ध स्वरूप में इन विभाव पर्यायों से पूर्णतया परे हूँ)। (विभाव पर्यायों के लिए कृत, कारित, अनुमोदना का भाव मूर्च्छित अवस्था का द्योतक है)। नोटः प्रस्तुत खण्ड में अनुवाद को स्पष्ट करने के लिए संपादक द्वारा कोष्ठकों का प्रयोग किया गया है। नियमसार (खण्ड-2) (13) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78. णाहं मग्गणठाणो णाहं गुणठाण जीवठाणो ण। कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता व कत्तीण।। णाहं नहीं मार्गणास्थान मग्गणठाणो णाहं नहीं *गुणठाण जीवठाणो [(ण)+ (अहं)] ण (अ) = नहीं अहं (अम्ह) 1/1 स (मग्गणठाण) 1/1 [(ण)+(अहं)] ण (अ) = नहीं अहं (अम्ह) 1/1 स (गुणठाण) 1/1 (जीवठाण) 1/1 अव्यय (कत्तु) 1/1 वि अव्यय अव्यय (कारइदु) 1/1 वि (अणुमंतु) 1/1 वि अव्यय (कत्ति) 6/2 वि गुणस्थान जीवस्थान कत्ता करनेवाला न तो कारइदा अणुमता णेव कत्तीणं करानेवाला अनुमोदना करनेवाला न ही करनेवालों की . अन्वय- णाहं मग्गणठाणो णाहं गुणठाण ण जीवठाणो ण कत्ता णेव कारइदा कत्तीणं अणुमंता हि। अर्थ- मैं मार्गणास्थान नहीं (हूँ), मैं गुणस्थान नहीं (हूँ), न (मैं) जीवस्थान (हँ)। (अपने मूल शुद्ध स्वरूप के अवलोकन से ज्ञात होता है कि) न तो (मैं) (उन सबका) करनेवाला (हूँ), न ही करानेवाला (और) करनेवालों की अनुमोदना करनेवाला भी (नहीं हूँ)। (अतः मैं शुद्ध स्वरूप में इन विभाव पर्यायों से पूर्णतया परे हूँ)। (विभाव पर्यायों के लिए कृत, कारित, अनुमोदना का भाव मूर्च्छित अवस्था का द्योतक है)। * प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) (14) नियमसार (खण्ड-2) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 79. णाहं बालो वुड्डो ण चेव तरुणो ण कारणं तेसिं। कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीण।। नहीं बालो बुड्ढो बालक वृद्ध चेव तरुणो रुण ण [(ण)+(अहं)] ण (अ) = नहीं अहं (अम्ह) 1/1 स (बाल) 1/1 (वुढ) 1/1 वि अव्यय अव्यय (तरुण) 1/1 वि अव्यय (कारण) 1/1 (त) 6/2 सवि (कत्तु) 1/1 वि अव्यय अव्यय (कारइदु) 1/1 वि (अणुमंतु) 1/1 वि अव्यय (कत्ति) 6/2 वि नहीं कारण कारण तेर्सि उनका कत्ता करनेवाला न तो भी कारइदा अणुमंता करानेवाला अनुमोदना करनेवाला न ही कत्तीणं करनेवालों की अन्वय- णाहं बालो वुड्डो ण चेव तरुणो ण तेसिं कारणं ण कत्ता णेव कारइदा कत्तीणं अणुमंता हि। . अर्थ- मैं बालक नहीं (हूँ), वृद्ध (नहीं हूँ), न ही तरुण (हूँ), उनका कारण (भी) नहीं (हूँ) (अपने मूल शुद्ध स्वरूप के अवलोकन से ज्ञात होता है कि) न तो (मैं) (इन सबका) करनेवाला (हूँ), न ही करानेवाला (और) करनेवालों की अनुमोदना करनेवाला भी (नहीं हूँ)। (अतः मैं शुद्ध स्वरूप में इन विभाव पर्यायों से पूर्णतया परे हूँ)। (विभाव पर्यायों के लिए कृत, कारित, अनुमोदना का भाव मूर्च्छित अवस्था का द्योतक है)। नियमसार (खण्ड-2) (15) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80. णाहं रागो दोस ण चेव मोहो ण कारणं तेसिं कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता a कत्तीणं णाहं रागो दोसो ण चेव मोहो ण कारणं तेसिं। कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता व कत्तीणं ।। (16) [(ण) + (अहं)] ण (अ) = नहीं अहं (अम्ह) 1/1 स (राग) 1 / 1 (दोस) 1 / 1 अव्यय अव्यय ( मोह) 1 / 1 अव्यय (कारण) 1 / 1 (त) 6/2 सवि (g) 1/1 fa अव्यय अव्यय (कारइदु) 1/1 वि (अणुमंतु ) 1 / 1 वि अव्यय (कत्ति) 6/2 वि नहीं मैं राग 1 ही मोह नहीं कारण उनका करनेवाला न तो भी करानेवाला अनुमोदना करनेवाला नही करनेवालों की अन्वय- णाहं रागो दोसो ण चेव मोहो ण कारणं तेसिं ण कत्ता व कारइदा कत्तीणं अणुमंता हि । अर्थ- मैं राग नहीं (हूँ), (मैं) द्वेष (नहीं हूँ) न ही मोह हूँ उन (तीनों) का कारण भी नहीं हूँ। (अपने मूल शुद्ध स्वरूप के अवलोकन से ज्ञात होता है कि) न तो ( मैं ) ( इन सबका) करनेवाला (हूँ), न ही करानेवाला (और) करनेवालों की अनुमोदना करनेवाला भी नहीं हूँ) । (अतः मैं शुद्ध स्वरूप में इन विभाव पर्यायों से पूर्णतया परे हूँ) । (विभाव पर्यायों के लिए कृत, कारित, अनुमोदना का भाव मूर्च्छित अवस्था का द्योतक है)। नियमसार (खण्ड-2) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 81. णाहं कोहो माणो ण चेव माया ण होमि लोहो हं। कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीण।। नहीं कोहो माणो क्रोध मान 244 चेव माया माया ण. होमि [(ण)+ (अहं)] ण (अ) = नहीं अहं (अम्ह) 1/1 स (कोह) 1/1 (माण) 1/1 अव्यय अव्यय (माया) 1/1 अव्यय (हो) व 1/1 अक (लोह) 1/1 (अम्ह) 1/1 स (कत्तु) 1/1 वि अव्यय अव्यय (कारइदु) 1/1 वि (अणुमंतु) 1/1 वि अव्यय (कत्ति) 6/2 वि Once लोहो लोभ कत्ता करनेवाला न तो कारइदा अणुमंता णेव करानेवाला अनुमोदना करनेवाला न ही करनेवालों की कत्तीणं अन्वय- णाहं कोहो माणो ण चेव माया ण हं लोहो होमि ण कत्ता णेव कारइदा कत्तीणं अणुमंता हि। अर्थ- मैं क्रोध नहीं (हूँ), मान (नहीं हूँ), न ही माया (हूँ) न (मैं) लोभ (हूँ)। न तो (मैं) (उन सबका) करनेवाला (हूँ), न ही करानेवाला (और) करनेवालों की अनुमोदना करनेवाला भी (नहीं हूँ)। (अतः मैं शुद्ध स्वरूप में इन विभाव पर्यायों से पूर्णतया परे हूँ)। (विभाव पर्यायों के लिए कृत, कारित, अनुमोदना का भाव मूर्च्छित अवस्था का द्योतक है)। नियमसार (खण्ड-2) (17) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82. एरिसभेदब्भासे मज्झत्थो होदि तेण चारित्तं। तं दिढकरणणिमित्तं पडिक्कमणादी पवक्खामि॥ एरिसभेदब्भासे मज्झत्थो होदि तेण चारित्तं [(एरिसभेद)+(अब्भासे)] [(एरिस) वि-(भेद)(अब्भास) 7/1] (मज्झत्थ) 1/1 वि (हो) व 3/1 अक (त) 3/1 सवि (चारित्त) 1/1 (त) 2/1 सवि [(दिढ) वि-(करण)(णिमित्तं) 2/1] द्वितीयार्थक अव्यय [(पडिक्कमण)+(आदी)] [(पडिक्कमण)(आदि) 2/2] (पवक्ख) भवि 1/1 सक ऐसे भेद का अभ्यास होने पर अंतरंग में स्थित होता है उससे आचरण उसको दृढ़ करने के प्रयोजन दिढकरणणिमित्तं पडिक्कमणादी प्रतिक्रमण वगैरह को पवक्खामि कहूँगा अन्वय- एरिसभेदभासे मज्झत्थो होदि तेण चारित्तं तं दिढकरणणिमित्तं पडिक्कमणादी पवक्खामि। अर्थ- ऐसे (पूर्वोक्त) (स्वभाव-विभाव के) भेद का अभ्यास होने पर (जो) (बाह्य उलझनों को छोड़कर) अंतरंग में स्थित होता है उससे (जो) (अंतरंग आत्मध्यान रूपी) आचरण (घटित होता है) उसको दृढ़ करने के प्रयोजन से (मैं) प्रतिक्रमण वगैरह को कहूँगा। (18) . नियमसार (खण्ड-2) Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83. मोत्तूण वयणरयणं रागादीभाववारणं किच्चा। - अप्पाणं जो झायदि तस्स दु होदि त्ति पडिकमणं॥ मोत्तूण वयणरयण (मोत्तूण) संकृ अनि [(वयण)-(रयणा) 2/1] छोड़कर (शब्द) उच्चारण के कौशल को रागादीभाववारणं रागादि भावों (के कर्तृत्व) का निवारण करके आत्मा किच्चा अप्पाणं झायदि ध्यान करता है [(राग)+(आदीभाववारणं)] [(राग)-(आदी-आदि)(भाव)-(वारण) 2/1] (किच्चा) संकृ अनि (अप्पाण) 2/1 (ज) 1/1 सवि (झा-झाय) व 3/1 सक 'य' विकरण (त) 6/1 सवि अव्यय [(होदि)+ (इति)] होदि (हो) व 3/1 अक इति (अ) = (पडिकमण) 1/1 तस्स उसके पादपूरक होदि त्ति होता है शब्दस्वरूपद्योतक प्रतिक्रमण पडिकमणं अन्वय- वयणरयणं मोत्तूण रागादीभाववारणं किच्चा जो अप्पाणं झायदि तस्स दु पडिकमणं होदि त्ति। अर्थ- (प्रतिक्रमण के बाह्य) (शब्द) उच्चारण के कौशल को छोड़कर रागादि भावों (के कर्तृत्व) का निवारण करके जो (अंतरंग में स्थित होकर) (निज) आत्मा का ध्यान करता है उसके प्रतिक्रमण (अतीत के दोषों का त्याग*) होता 1. * यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'आदि' का 'आदी' किया गया है। टीकाः पद्मप्रभमलधारी देव नियमसार (खण्ड-2) (19) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84. आराहणाइ वट्टइ मोत्तूण विराहणं विसेसेण आराहणाड़ वह मोत्तूण विराहणं विसेसेण । सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ॥ सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ( आराहणा) 7/1 (वट्ट) व 3 / 1 अक (मोत्तूण) संकृ अनि (विराहणा) 2 / 1 (विसेसेण) 3/1 (20) तृतीयार्थक अव्यय (त) 1 / 1 सवि (पडिकमण) 1/1 (उच्चइ) व कर्म 3 / 1 अनि ( पडिकमणमअ) 1 / 1 वि (हव) व 3 / 1 अक अव्यय (स्व) आराधना में प्रवृत्त करता है छोड़कर अशुद्ध आराधना को पूर्णरूप से वह प्रतिक्रमण कहा जाता है आत्मध्यानमय होता है क्योंकि अन्वय- विराहणं विसेसेण मोत्तूण आराहणार वट्टइ सो पडिकमणं उच्चइ जम्हा पडिकमणमओ हवे। अर्थ - (जो) अशुद्ध आराधना को पूर्णरूप से छोड़कर (स्व) आराधना में (अंतरंग में स्थित होकर ) प्रवृत्ति करता है वह प्रतिक्रमण (करनेवाला) कहा जाता है, क्योंकि (वह) ( उस समय ) आत्मध्यानमय होता है। नियमसार (खण्ड-2) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85. मोत्तूण अणायारं आयारे जो दु कुणदि थिरभाव। सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा॥ मोत्तूण अणायारं आयारे ___ कुणदि थिरभावं (मोत्तूण) संकृ अनि छोड़कर (अणायार) 2/1 अनाचार को (आयार) 7/1 (स्व) आचरण में (ज) 1/1 सवि अव्यय पादपूरक (कुण) व 3/1 सक करता है [(थिर) वि - (भाव) 2/1] स्थिर भाव (त) 1/1 सवि वह (पडिकमण) 1/1 प्रतिक्रमण (उच्चइ) व कर्म 3/1 अनि कहा जाता है (पडिकमणमअ) 1/1 वि आत्मध्यानमय (हव) व 3/1 अक होता है अव्यय क्योंकि • सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ जम्हा अन्वय- जो दु अणायारं मोत्तूण आयारे थिरभावं कुणदि सो पडिकमणं उच्चइ जम्हा पडिकमणमओ हवे। ___ अर्थ- जो (पर के कर्तृत्वरूप) अनाचार को छोड़कर (अंतरंग में स्थित होकर) (स्व) आचरण में स्थिर भाव करता है वह प्रतिक्रमण (करनेवाला) कहा जाता है, क्योंकि (वह) (उस समय) आत्मध्यानमय होता है। नियमसार (खण्ड-2) (21) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86. उम्मग्गं परिचत्ता जिणमग्गे जो दु कुणदि थिरभाव। सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा॥ उम्मग्गं परिचत्ता जिणमग्गे (उम्मग्ग) 2/1 (परिचत्ता) संकृ अनि [(जिण)-(मग्ग) 7/1] (ज) 1/1 सवि मिथ्यामार्ग को छोड़कर जिनमार्ग में . दु अव्यय 111.-.111 कुणदि थिरभावं पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ (कुण) व 3/1 सक [(थिर) वि (भाव) 2/1] (त) 1/1 सवि (पडिकमण) 1/1 (उच्चइ) व कर्म 3/1 अनि (पडिकमणमअ) 1/1 वि (हव) व 3/1 अक पादपूरक करता है स्थिर आचरण वह प्रतिक्रमण कहा जाता है आत्मध्यानसहित होता है क्योंकि हवे जम्हा अव्यय T 11. अन्वय- जो दु उम्मग्गं परिचत्ता जिणमग्गे थिरभावं कुणदि सो पडिकमणं उच्चइ जम्हा पडिकमणमओ हवे। अर्थ- जो (देहात्मवादी) मिथ्यामार्ग को छोड़कर (अंतरंग में स्थित होता हुआ) जिन (आत्मध्यान के) मार्ग में स्थिर आचरण करता है वह प्रतिक्रमण (करनेवाला) कहा जाता है, क्योंकि (वह) (उस समय) आत्मध्यानसहित होता (22) नियमसार (खण्ड-2) Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 87. मोत्तूण सल्लभावं णिस्सल्ले जो दु साहू परिणमदि । सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ॥ मोत्तूण सल्लभावं णिस्सल्ले 后 साहू परिणमदि सो पडणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा (मोत्तूण) संकृ अनि [(सल्ल) - (भाव) 2 / 1] (णिस्सल्ल) 7/1 वि (ज) 1 / 1 सवि अव्यय ( साहु) 1 / 1 (परिणम) व 3 / 1 अक (त) 1/1 सवि (पडिकमण) 1/1 (उच्च) व कर्म 3 / 1 अनि ( पडिकमणमअ) 1 / 1 वि (हव) व 3 / 1 अक अव्यय छोड़कर शल्यभाव को शल्यरहित (स्व-स्वरूप) में जो पादपूरक साधु रूपान्तरित होता है वह प्रतिक्रमण कहा जाता है आत्मध्यान से युक्त होता है क्योंकि अन्वय- जो दु साहु सल्लभावं मोत्तूण णिस्सल्ले परिणमदि सो पडिकमणं उच्चइ जम्हा पडिकमणमओ हवे। अर्थ- जो साधु शल्य ( मायाचार, देहतादात्म्यभाव तथा भोगों की आकांक्षारूप) भाव को छोड़कर (अंतरंग में स्थित होकर) शल्यरहित ( स्वस्वरूप) में रूपान्तरित होता है वह प्रतिक्रमण ( करनेवाला) कहा जाता है, क्योंकि वह (इस प्रकार) आत्मध्यान से युक्त होता है । नियमसार (खण्ड-2) (23) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88. चत्ता अगुत्तिभावं तिगुत्तिगुत्तो हवेइ जो साहू। सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा।। चत्ता अगुत्तिभावं तिगुत्तिगुत्तो (चत्ता) संकृ अनि छोड़कर [(अगुत्ति) वि-(भाव) 2/1] मन-वचन-काय के असंयम भाव को (तिगुत्तिगुत्त) 1/1 वि मन-वचन-काय की निर्दोष प्रवृत्तिवाला (हव) व 3/1 अक होता है (ज) 1/1 सवि (साहु) 1/1 साधु (त) 1/1 सवि (पडिकमण) 1/1 प्रतिक्रमण (उच्चइ) व कर्म 3/1 अनि कहा जाता है . (पडिकमणमअ) 1/1 वि आत्मध्यान से युक्त (हव) व 3/1 अक होता है अव्यय क्योंकि पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ जम्हा अन्वय- जो साहू अगुत्तिभावं चत्ता तिगुत्तिगुत्तो हवेइ सो पडिकमणं उच्चइ जम्हा पडिकमणमओ हवे। अर्थ- जो साधु मन-वचन-काय के असंयम भाव को छोड़कर मनवचन-काय की निर्दोष (अंतरंग) प्रवृत्तिवाला होता है वह प्रतिक्रमण (करनेवाला) कहा जाता है, क्योंकि (वह) (उस समय) आत्मध्यान से युक्त होता है। (24) नियमसार (खण्ड-2) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 89. मोत्तूण अट्टरुदं झाणं जो झादि धम्मसुक्कं वा। सो पडिकमणं उच्चइ जिणवरणिहिट्ठसुत्तेसु॥ जो झादि मोत्तूण (मोत्तूण) संकृ अनि छोड़कर अट्टरुई [(अट्ट) वि-(रुद्द) 2/1] आर्त और रौद्र झाणं (झाण) 2/1 ध्यान (ज) 1/1 सवि (झा) व 3/1 सक ध्यान करता है धम्मसुक्कं [(धम्म) -(सुक्क) 2/1] धर्मध्यान और शुक्लध्यान अव्यय पादपूरक (त) 1/1 सवि पडिकमणं (पडिकमण) 1/1 प्रतिक्रमण उच्चइ (उच्चइ) व कर्म 3/1 अनि कहा जाता है जिणवरणिद्दिट्ठसुत्तेसु [(जिणवर)-(णिद्दिट्ठ) भूकृ अनि जिनेन्द्रदेव द्वारा कहे (सुत्त) 7/2] हुए सूत्रों में सो वह अन्वय- जो अदृरुदं झाणं मोत्तूण धम्मसुक्कं वा झादि सो जिणवरणिद्दिट्ठसुत्तेसु पडिकमणं उच्चइ। __ अर्थ- जो आर्तध्यान (बहिर्मुखता से उत्पन्न इष्ट वियोगात्मक और अनिष्ट संयोगात्मक आदि दुख की व्याकुलता) और रौद्रध्यान (बाह्य संसार में परम-आसक्ति के कारण हिंसा, झूठ, चोरी और विषयों में लिप्त भावना) को छोड़कर धर्मध्यान और (निर्विकल्पात्मक ) शुक्लध्यान का (अंतरंग में स्थित होता हुआ) ध्यान करता है वह जिनेन्द्रदेव द्वारा कहे हुए सूत्रों में प्रतिक्रमण (करनेवाला) कहा जाता है। नियमसार (खण्ड-2) (25) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90. मिच्छत्तपहुदिभावा पुव्वं जीवेण भाविया सुइरं। सम्मत्तपहुदिभावा अभाविया होति जीवेण॥ 91. मिच्छादसणणाणचरितं चइऊण णिरवसेसेण। सम्मत्तणाणचरणं जो भावइ सो पडिक्कमणं॥ पुवं मिच्छत्तपहुदिभावा [(मिच्छत्त)-(पहुदि) वि- मिथ्यात्व आदि भाव (भाव) 1/2] (पुव्व) 2/1→71 वि पूर्व में जीवेण (जीव) 3/1 जीव के द्वारा भाविया (भाव) भूकृ 1/2 चिन्तन किये गये सुइरं अव्यय दीर्घकाल तक सम्मत्तपहुदिभावा [(सम्मत्त)-(पहुदि) वि- सम्यक्त्व आदि भाव (भाव) 1/2] अभाविया (अभाव) भूकृ 1/2 चिन्तन नहीं किये गये होति (हो) व 3/2 अक जीवेण (जीव) 3/1 जीव के द्वारा मिच्छादसणणाण- [(मिच्छादसण)-(णाण)- मिथ्यादर्शन, चरित्तं (चरित्त) 2/1] मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र को 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) (26) नियमसार (खण्ड-2) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चइऊण णिरवसेसेण छोड़कर पूर्णरूप से (चय) संकृ (णिरवसेसेण) 3/1 तृतीयार्थक अव्यय [(सम्मत्त)-(णाण)(चरण) 2/1] सम्मत्तणाणचरणं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र भावइ आचरण करता (ज) 1/1 सवि (भाव) व 3/1 सक (त) 1/1 सवि (पडिक्कमण) 1/1 वह पडिक्कमणं प्रतिक्रमण अन्वय- पुव्वं जीवेण मिच्छत्तपहुदिभावा सुइरं भाविया सम्मत्तपहुदिभावा जीवेण अभाविया होंति जो मिच्छादसणणाणचरित्तं णिरवसेसेण चइऊण सम्मत्तणाणचरणं भावइ सो पडिक्कमणं। अर्थ- (बहिर्मुखता के कारण) पूर्व में जीव के द्वारा मिथ्यात्वादि भाव (पर कर्तृत्व, अशुद्ध-आराधकता, देहात्मकता आदि) दीर्घकाल तक (समीचीन मानकर) चिन्तन किये गये (हैं) और सम्यक्त्व आदि (पर का अकर्तृत्व, स्वआराधकता, निज आदि) भाव जीव के द्वारा चिन्तन नहीं किये गये हैं। (अतः) जो (जीव) मिथ्यादर्शन (मिथ्याश्रद्धा), मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र को पूर्णरूप से छोड़कर (अन्तर्मुखी होकर) सम्यग्दर्शन (आत्मश्रद्धा), सम्यग्ज्ञान (आत्मज्ञान) और सम्यक्चारित्र (आत्मचारित्र) का आचरण करता है वह प्रतिक्रमण (करनेवाला) (है)। नियमसार (खण्ड-2) (27) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92. उत्तमअटुं आदा तम्हि ठिदा हणदि मुणिवरा कम्म। तम्हा दु झाणमेव हि उत्तमअट्ठस्स पडिकमणं॥ उत्तमअट्ठ आदा तम्हि ठिदा हणदि [(उत्तम) वि-(अट्ठ) 1/1] (आद) 1/1 (त) 7/1 सवि (ठिद) भूकृ 1/2 (हण) व 3/1 सक उत्तम प्रयोजन आत्मा उसमें दृढ़तापूर्वक लगे हुए समाप्त/नष्ट कर देता मुणिवरा कम्म तम्हा उत्तम मुनि कर्म को इसलिए पादपूरक झाणमेव (मुणिवर) 1/2 (कम्म) 2/1 अव्यय अव्यय [(झाणं)+ (एव)] झाणं (झाण) 1/1 एव (अ) = ही अव्यय [(उत्तम) वि-(अट्ठ) 6/1] (पडिकमण) 1/1 ध्यान उत्तमअट्ठस्स पडिकमणं पादपूरक उत्तम प्रयोजन का प्रतिक्रमण अन्वय- आदा उत्तमअटुं तम्हि मुणिवरा ठिदा कम्मं हणदि तम्हा दु झाणमेव हि उत्तमअट्ठस्स पडिकमणं। अर्थ- (शुद्ध) आत्मा (समत्वभाव) (जीवन का) उत्तम प्रयोजन (है) उस (आत्मा की प्राप्ति) में उत्तम मुनि दृढ़तापूर्वक लगे हुए (रहते हैं) (और) (ऐसा प्रत्येक मुनि) कर्म को समाप्त/नष्ट कर देता है इसलिए (समत्वंभाव की साधना में) ध्यान (आत्माभिमुखता) ही उत्तम प्रयोजन का (हेतु होने से) प्रतिक्रमण (है)। नियमसार (खण्ड-2) (28) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 93. झाणणिलीणो साहू परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं। तम्हा दु झाणमेव हि सव्वदिचारस्स पडिकमणं॥ झाणणिलीणो साहू परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं तम्हा [(झाण)-(णि) अ- ध्यान में लीन (लीण) भूकृ 1/1 अनि] (साहु) 1/1 साधु (परिचाग) 2/1 परित्याग (कुण) व 3/1 सक करता है [(सव्व) सवि-(दोस) 6/2] सब दोषों का अव्यय इसलिए अव्यय पादपूरक [(झाणं) + (एव)] झाणं (झाण) 1/1 ध्यान एव (अ) = ही पादपूरक [(सव्व) सवि सब दोषों का (अदिचार) 6/1] (पडिकमण) 1/1 प्रतिक्रमण झाणमेव अव्यय सव्वदिचारस्स पडिकमणं . अन्वय- साहू झाणणिलीणो सव्वदोसाणं परिचागं कुणइ तम्हा दु झाणमेव हि सव्वदिचारस्स पडिकमणं। ___ अर्थ- (जो) (अन्तर्मुखी) साधु (आत्म) ध्यान में लीन है (वह) सब दोषों का परित्याग करता है इसलिए ध्यान ही सब (अतीत के) दोषों का प्रतिक्रमण (त्याग) ( है)। नियमसार (खण्ड-2) (29) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94. पडिकमणणामधेये सुत्ते जह वण्णिदं पडिक्कमणं। तह णच्चा जो भावइ तस्स तदा होदि पडिक्कमणं॥ प्रतिक्रमण नामक सूत्र में जह जिस प्रकार वर्णित प्रतिक्रमण उस प्रकार पडिकमणणामधेये [(पडिकमण)-(णामधेय) 7/1 वि] सुत्ते - (सुत्त) 7/1 अव्यय वण्णिदं (वण्ण) भूक 1/1 पडिक्कमणं (पडिक्कमण) 1/1 तह अव्यय णच्चा (णच्चा) संकृ अनि (ज) 1/1 सवि (भाव) व 3/1 सक तस्स (त) 6/1 सवि अव्यय होदि (हो) व 3/1 अक पडिक्कमणं (पडिक्कमण) 1/1 समझकर भावइ चिंतन करता है उसके तदा उस समय होता है प्रतिक्रमण अन्वय- पडिकमणणामधेये सुत्ते जह पडिक्कमणं वण्णिदं तह णच्चा जो भावइ तस्स तदा पडिक्कमणं होदि। अर्थ- प्रतिक्रमण नामक सूत्र में जिस प्रकार प्रतिक्रमण वर्णित (है) उस प्रकार समझकर जो (उसका) चिंतन करता है उसके उस समय प्रतिक्रमण होता है। (30) नियमसार (खण्ड-2) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चयप्रत्याख्यान-अधिकार (गाथा 95 से गाथा 106 तक) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 95. मोत्तूण सयलजप्पमणागयसुहमसुहवारणं किच्चा। अप्पाणं जो झायदि पच्चक्खाणं हवे तस्स। मोत्तूण (मोत्तूण) संकृ अनि छोड़कर सयलजप्पमणागय- [(सयलजप्पं)+(अणागयसुह)सुहमसुहवारणं (असुहवारणं)] सयलजप्पं [(सयल) वि- समस्त (बाह्य) वचन (जप्प) 2/1] व्यापार को अणागयसुहं [अणागय) वि आगे आनेवाले शुभ (सुह) वि 2/1] असुहवारणं [(असुह) वि- अशुभ को रोक (वारण) 2/1] किच्चा (किच्चा) संकृ अनि करके अप्पाणं (अप्पाण) 2/1 आत्मा (ज) 1/1 सवि झायदि (झा-झाय) व 3/1 सक ध्यान करता है 'य' विकरण पच्चक्खाणं (पच्चक्खाण) 1/1 प्रत्याख्यान (हव) व 3/1 अक होता है तस्स (त) 6/1 सवि उसके हवे अन्वय- जो सयलजप्पं मोत्तूण अणागयसुहमसुहवारणं किच्चा अप्पाणं झायदि तस्स पच्चक्खाणं हवे। अर्थ- जो (साधु) समस्त (बाह्य) वचन व्यापार को छोड़कर आगे आनेवाले (आगामी) शुभ को (और) अशुभ को रोक करके (अंतरंग में स्थित होता हुआ) (शुद्ध) आत्मा का ध्यान करता है उसके प्रत्याख्यान (भविष्य में होनेवाले शुभ-अशुभ विकल्पों का त्याग) होता है। (32) नियमसार (खण्ड-2) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96. केवलणाणसहावो केवलदंसणसहावसुहमइओ। केवलसत्तिसहावो सो हं इदि चिंतए णाणी || केवलणाणसहावो [(केवलणाण) - (सहाव ) - केवलज्ञान 1/1 fa] [(केवलदंसण) - (सहाव) वि (सुहमइअ ) 1/1 वि] केवलदंसणसहाव सुहमइओ केवलसत्तिसहावो [(केवलसत्ति)-(सहाव) 1/1 fa] (त) 1 / 1 सवि ( अम्ह) 1 / 1 स 卡 • ho हं दि चिंतए 斗 णाणी अव्यय (चिंत) व 3/1 सक ( णाणि) 1 / 1 वि स्वभाववाला केवलदर्शन स्वभाववाला, सुख से सुहमइओ केवलसत्तिसहावो सो हं । युक्त केवलशक्ति स्वभाववाला वह मैं इसप्रकार चिन्तन करता है ज्ञानी अन्वय - णाणी इदि चिंतए केवलणाणसहावो केवलदंसणसहाव अर्थ - ( अन्तर्मुखी हुआ) ज्ञानी इस प्रकार चिन्तन करता है: (जो) (आत्मा) केवलज्ञान स्वभाववाला (है), केवलदर्शन स्वभाववाला (है), (अनन्त) सुख से युक्त (है) (तथा) केवलशक्ति स्वभाववाला (है) वह मैं ( हूँ)। नियमसार (खण्ड-2) (33) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 97. णियभावं णवि मुच्चइ परभावं णेव गेहए के।। जाणदि पस्सदि सव्वं सो हं इदि चिंतए णाणी॥ निजस्वभाव को नहीं णियभावं णवि मुच्चइ परभावं णेव छोड़ता है परभाव को . नहीं गेहए केइ [(णिय) वि-(भाव) 2/1] अव्यय (मुच्चइ) व 3/1 सक अनि [(पर) वि-(भाव) 2/1] अव्यय (गेण्ह) व 3/1 सक अव्यय (जाण) व 3/1 सक (पस्स) व 3/1 सक (सव्व) 2/1 सवि (त) 1/1 सवि (अम्ह) 1/1 स अव्यय (चिंत) व 3/1 सक (णाणि) 1/1 वि ग्रहण करता है थोड़ा सा जानता है देखता है जाणदि पस्सदि सव्वं सबको वह चिंतए इसप्रकार विचार करता है ज्ञानी णाणी अन्वय- णाणी इदि चिंतए णियभावं णवि मुच्चइ केइ परभावं णेव गेण्हए सव्वं जाणदि पस्सदि सो हं। अर्थ- (अन्तर्मुखी हुआ) ज्ञानी इस प्रकार विचार करता हैः (जो) (शुद्धआत्मा) निजस्वभाव को नहीं छोड़ता है (तथा) थोड़ा सा (भी) परभाव (को) ग्रहण नहीं करता है, सबको जानता-देखता है वह मैं (हूँ)। 1. यहाँ केई' के स्थान पर 'केई' होना चाहिए। (34) नियमसार (खण्ड-2) Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98. पयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेसबंधेहिं वज्जिदो अप्पा। सो हं इदि चिंतिज्जो तत्थेव य कुणदि थिरभाव। s .tic 42 पयडिटिदिअणुभाग- [(पयडि)-(ट्ठिदि)-(अणुभाग)- प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, प्पदेसबंधेहिं (प्पदेस)-(बंध) 3/2] अनुभागबंध और प्रदेशबंध से वज्जिदो (वज्जिद) 1/1 वि रहित अप्पा (अप्प) 1/1 आत्मा (त) 1/1 सवि (अम्ह) 1/1 स अव्यय इसप्रकार चिंतिज्जो (चिंतिज्जो) वकृ 1/1 अनि विचार करता हुआ तत्थेव [(तत्थ)+ (एव)] तत्थ (अ)= वहाँ वहाँ एव (अ) = ही अव्यय पादपूरक कुणदि (कुण) व 3/1 सक करता है थिरभावं [(थिर) वि-(भाव) 2/1] स्थिर भाव अन्वय- अप्पा पयडिट्टिदिअणुभागप्पदेसबंधेहिं वज्जिदो सो हं इदि चिंतिज्जो तत्थेव य थिरभावं कुणदि। अर्थ- (जो) (शुद्ध) आत्मा प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंध से रहित (है) वह मैं (हूँ)। (आत्मा) इस प्रकार विचार करता हुआ (अन्तर्मुखी होकर) वहाँ ही अर्थात् ध्यान अवस्था में ही स्थिर भाव करता है। नियमसार (खण्ड-2) (35) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 99. ममत्तिं परिवज्जामि णिम्ममत्तिमुवट्टिदो। आलंबणं च मे आदा अवसेसं च वोसरे।। ममत्तिं परिवज्जामि णिम्ममत्तिमुवट्टिदो [(ममत्तं)+ (इ)] ममत्तं (ममत्त) 2/1 ममत्व को इ (अ) = पादपूरक (परिवज्ज) व 1/1 सक छोड़ता हूँ . [(णिम्ममत्तं)+ (इ)+ (उवट्टिदो)] णिम्ममत्तं (णिम्ममत्त) ममतारहित अवस्था में 2/1-7/1 वि इ (अ) = पादपूरक उवट्ठिदो(उवट्ठिद)भूकृ 1/1 अनि स्थित (आलंबण) 1/1 सहारा अव्यय और (अम्ह) 6/1 स (आद) 1/1 आत्मा (अवसेस) 2/1 अव्यय और (वोसर) व 1/1 सक त्यागता हूँ आलंबणं आदा अवसेसं वोसरे अन्वय- ममत्तिं परिवज्जामि च णिम्ममत्तिमुवट्टिदो आदा मे आलंबणं च अवसेसं वोसरे। अर्थ- (अन्तर्मुखी हुआ ज्ञानी इस प्रकार विचार करता है): (मैं परद्रव्यों के प्रति) ममत्व को छोड़ता हूँ और (अन्तर्मुखी होकर) ममता रहित अवस्था में स्थित (रहता हूँ)। (केवल) (शुद्ध) आत्मा (ही) मेरा सहारा है और शेष (पदार्थों) को (मैं) त्यागता हूँ। 1. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पिशल, पृ.सं. 676 । (36) नियमसार (खण्ड-2) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100. आदा खु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते या आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे। आदा आत्मा पादपूरक मज्झ सम्यग्ज्ञान में आत्मा आदा (आद) 1/1 अव्यय (अम्ह) 6/1 स (णाण) 7/1 (आद) 1/1 (अम्ह) 6/1 स (दसण) 7/1 (चरित्त) 7/1 अव्यय (आद) 1/1 (पच्चक्खाण) 7/1 (आद) 1/1 (अम्ह) 6/1 स . (संवर) 7/1 (जोग) 7/1 सम्यग्दर्शन में सम्यक्चारित्र में तथा आदा पच्चक्खाणे आदा आत्मा प्रत्याख्यान में आत्मा रोकने में मन-वचन-काय में अन्वय- मज्झ णाणे आदा खुमे दंसणे आदा चरित्ते आदा पच्चक्खाणे आदा संवरे य मे जोगे। अर्थ- (अन्तर्मुखी हुआ ज्ञानी इस प्रकार विचार करता है): मेरे सम्यग्ज्ञान में आत्मा (स्थित है), मेरे सम्यग्दर्शन में आत्मा (विद्यमान है) (तथा) (मेरे) सम्यक्चारित्र में आत्मा (वर्तमान है), (मेरे) प्रत्याख्यान (ध्यान) में आत्मा (विद्यमान है), (मेरे) (सुख-दुख भावों को) रोकने में (तथा) मेरे मन-वचनकाय में (आत्मा) (है)। नियमसार (खण्ड-2) (37) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101. एगो य मरदि जीवो एगो य जीवदि सयं। एगस्स जादि मरणं एगो सिज्झदि णीरओ। 102. एगो मे सासदो अप्पा णाणदसणलक्खणो। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा॥ (एग) 1/1 वि एक अव्यय और मरता है EE. PF (मर) व 3/1 अक (जीव) 1/1 (एग) 1/1 वि अव्यय और प्राण धारण करता है स्वयं एगस्स एक का होता है मरण जादि मरणं एगो सिज्झदि णीरओ एगो मे (जीव) व 3/1 अक अव्यय (एग) 6/1 वि (जा) व 3/1 अक (मरण) 1/1 (एग) 1/1 वि (सिज्झ) व 3/1 अक (णीरअ) भूकृ 1/1 अनि (एग) 1/1 वि (अम्ह) 6/1 स वही सिद्ध हो जाता है कर्मरहित हुआ अकेला (38) नियमसार (खण्ड-2) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाश्वत आत्मा ज्ञान-दर्शन लक्षणवाला शेष सासदो (सासद) 1/1 वि अप्पा (अप्प) 1/1 णाणदसणलक्खणो [(णाण)-(दसण) (लक्खण) 1/1 वि] (सेस) 1/2 वि (अम्ह) 4/1 स (बाहिर) 1/2 वि भावा (भाव) 1/2 (सव्व) 1/2 सवि संजोगलक्खणा [(संजोग) (लक्खण) 1/2 वि] मेरे लिए बाह्य सब्वे पदार्थ सभी संयोग लक्षणवाले अन्वय- एगो जीवो मरदि य एगो सयं जीवदि एगस्स मरणं जादि य एगो णीरओ सिज्झदिणाणदंसणलक्खणो एगो मे अप्पा सासदो सेसा भावा मे बाहिरा सव्वे संजोगलक्खणा। . अर्थ- एक (संसारी) जीव मरता है और वही (जीव) (कर्मों के कारण) स्वयं (ही) प्राण धारण करता है। (संसार में) एक जीव का मरण होता है और वही कर्मरहित हुआ सिद्ध हो जाता है। (किन्तु ज्ञानी विचारता है कि) ज्ञान-दर्शन लक्षणवाला अकेला मेरा आत्मा शाश्वत (है)। (इसके अतिरिक्त) शेष पदार्थ मेरे लिए बाह्य (है) (क्योंकि) (वे) सभी संयोग लक्षणवाले (हैं)। नोटः संपादक द्वारा अनूदित नियमसार (खण्ड-2) (39) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 103. जं किंचि मे दुच्चरित्तं सव्वं तिविहेण वोसरे। सामाइयं तु तिविहं करेमि सव्वं णिराया।। किंचि दुच्चरितं सव्वं तिविहेण वोसरे सामाइयं (ज) 1/1 सवि अव्यय (अम्ह) 6/1 स (दुच्चरित्त) 2/1 (सव्व) 2/1 सवि (तिविह) 3/1 वि (वोसर) व 1/1 सक (सामाइय) 2/1 अव्यय (तिविह) 2/1 वि (कर) व 1/1 सक (सव्वं) 2/1 द्वितीयार्थक अव्यय (णिरायार) 2/1 वि कुछ भी मेरा बुरा आचरण सबको तीन प्रकार से छोड़ता हूँ सामायिक को और तिविह करेमि तीन प्रकार की करता हूँ पूर्णरूप से सव्वं णिरायारं अन्वय- जं किंचि मे दुच्चरित्तं सव्वं तिविहेण वोसरे तु तिविहं सामाइयं सव्वं णिरायारं करेमि। अर्थ- (अतः) जो कुछ भी मेरा बुरा आचरण (है) (उस) सबको (मैं) तीन प्रकार (मन-वचन-काय) से छोड़ता हूँ और तीन प्रकार की सामायिक (चारित्र) को (अंतरंग में स्थित होकर) पूर्णरूप से शुद्ध करता हूँ। 1. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पिशल, पृ.सं. 676 । 2. चारित्रः सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि। (40) नियमसार (खण्ड-2) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104. सम्मं मे सव्वभूदेसु वेर मज्झंण केणवि। आसाए वोसरित्ता णं समाहि पडिवज्जए। सम्म समभाव मेरा सब प्राणियों पर सव्वभूदेसु वेरं मज्झं मेरा नहीं केणवि आसाए वोसरित्ता (सम्म) 1/1 (अम्ह) 6/1 स [(सव्व) सवि-(भूद) 7/2] (वेर) 1/1 (अम्ह) 6/1 स अव्यय अव्यय (आसा) 7/1+2/1 (वोसर) संकृ अव्यय (समाहि) 2/1 (पडिवज्ज) व 1/1 सक किसी के भी साथ आशा को छोड़कर निश्चय ही समाधि को प्राप्त करता हूँ *समाहि पडिवज्जए अन्वय- सव्वभूदेसु मे सम्मं मज्झं केणवि वेरं ण आसाए वोसरित्ता समाहि णं पडिवज्जए। अर्थ- सब प्राणियों पर मेरा समभाव (है)। मेरा किसी के भी साथ वैर (भाव) नहीं है। (बाह्य) आशा को छोड़कर (अंतरगं में स्थित होता हुआ) (मैं) समाधि को निश्चय ही प्राप्त करता हूँ। 1. 2. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-135) पडिवज्जए (पडिवज्ज+ए) = पडिवज्जे (यह असामान्य प्रयोग है)। प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पिशल, पृ.सं. 676, 679। प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) इसका दूसरा अर्थ इस प्रकार हो सकता हैः (जो) (बाह्य) आशा को छोड़कर (अंतरगं में स्थित होता है) (वह) समाधि को निश्चय ही प्राप्त करता है। संपादक द्वारा अनूदित नियमसार (खण्ड-2) (41) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 105. णिक्कसायस्स दंतस्स सूरस्स ववसायिणो। संसारभयभीदस्स पच्चक्खाणं सुहं हवे॥ णिक्कसायस्स कषायरहित का दंतस्स संयमी का . सूरस्स परीषहजयी का जागरूक का ववसायिणो संसारभयभीदस्स (णिक्कसाय) 6/1 वि (दंत) 6/1 वि (सूर) 6/1 वि (ववसायि) 6/1 वि [(संसार)-(भय)-(भीद) । भूक 6/1 अनि (पच्चक्खाण) 1/1 (सुहं) 2/1 संसार के भय से अत्यन्त डरे हुए का पच्चक्खाणं प्रत्याख्यान सुखपूर्वक द्वितीयार्थक अव्यय (हव) व 3/1 अक होता है अन्वय- णिक्कसायस्स दंतस्स सूरस्स ववसायिणो संसारभयभीदस्स पच्चक्खाणं सुहं हवे। - अर्थ- कषायरहित (साधक) का, संयमी (साधक) का, परीषहजयी (साधक) का, जागरूक (साधक) का, संसार के भय से अत्यन्त डरे हुए (साधक) का प्रत्याख्यान सुखपूर्वक होता है। (42) नियमसार (खण्ड-2) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106. एवं भेदभासं जो कुव्वइ जीवकम्मणो णिच्चं। पच्चक्खाणं सक्कदि धरिदं सो संजदो णियमा अव्यय इस प्रकार भेदब्भासं भेद का अभ्यास करता है आत्मा और कर्म के कुव्वइ जीवकम्मणो णिच्चं पच्चक्खाणं सदैव प्रत्याख्यान [(भेद)-(अब्भास) 2/1] (ज) 1/1 सवि (कुव्व) व 3/1 सक [(जीव)-(कम्म) 6/1] अव्यय (पच्चक्खाण) 2/1 (सक्क) व 3/1 अक (धर) हेकृ (त) 1/1 सवि (संजद) 1/1 वि (णियमा) 5/1 पंचमीअर्थक अव्यय सक्कदि समर्थ होता है धारण करने के लिए वह संजदो संयमी णियमा नियमपूर्वक अन्वय- एवं जो णिच्चं जीवकम्मणो भेदभासं कुव्वइ सो संजदो णियमा पच्चक्खाणं धरिदुं सक्कदि। अर्थ- इस प्रकार जो (साधु) सदैव आत्मा और कर्म के भेद का अभ्यास करता है वह संयमी नियमपूर्वक प्रत्याख्यान को धारण करने के लिए समर्थ होता है। नियमसार (खण्ड-2) (43) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमआलोचना-अधिकार (गाथा 107 से गाथा 112 तक) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 107. णोकम्मकम्मरहियं विहावगुणपज्जएहिं वदिरित्तं । अप्पाणं जो झायदि समणस्सालोयणं होदि ।। णोकम्मकम्मरहियं' [(णोकम्म) - (कम्म) - ( रहिय) 1 / 1 वि] विहावगुणपज्जएहिं [(विहाव ) - (गुण) - वदिरित्तं अप्पाणं जो झायदि समणस्सालोयणं होदि 1. 2. (पज्जअ ) 3/2] (वदिरित्त) भूक 2 / 1 अनि (अप्पाण) 2/1 (ज) 1 / 1 सवि (झा झाय) व 3 / 1 सक 'य' विकरण [(समणस्स) + (आलोयणं ) ] समणस्स (समण) 6/1 आलोयणं (आलोयण) 1/1 (हो) व 3 / 1 अक नियमसार (खण्ड-2) शरीर और कर्म से रहित विभाव गुण- पर्यायों से भिन्न आत्मा जो ध्यान करता है अन्वय- जो णोकम्मकम्मरहियं विहावगुणपज्जएहिं वदिरित्तं अप्पाणं झायदि समणस्सालोयणं होदि । अर्थ- जो (पंच प्रकार के) शरीर' और (आठ प्रकार के) कर्म' से रहित (तथा) विभाव गुण - पर्यायों से भिन्न आत्मा का ( बाह्य प्रपंचों को छोड़कर) ध्यान करता है (उस) श्रमण के ( निश्चय) आलोचना घटित होती है। श्रमण के आलोचना घटित होती है शरीरः - औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्माण । कर्मः - ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । (45) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108. आलोयणमालुंछण वियडीकरणं च भावसुद्धी य चउविहमिह परिकहियं आलोयणलक्खणं समए । आलोयणमालुंछण [(आलोयणं) + (आलुंछण)] आलोयणं (आलोयण) 1 / 1 * आलुंछण (आलुंछण) 1 / 1 (वियडीकरण) 1/1 वियडीकरणं च भावसुद्धी चउविहमिह परिकहियं आलोयणलक्खणं समए आलोचन आलुंछन वियडीकरण और भावशुद्धि पादपूरक अव्यय (भावसुद्धि) 1 / 1 अव्यय [ ( चउविहं) + (इह )] चउविहं (चउविह) 1 / 1 वि इह (अ) = यहाँ (परिकह) भूक 1/1 कहा गया [(आलोयण) - (लक्खण) 1 / 1] आलोचना का लक्षण (समअ) 7/1 सिद्धान्त में चार प्रकार का यहाँ अन्वय- समए आलोयणलक्खणं चउविहमिह परिकहियं आलोयण मालुंछण वियडीकरणं च भावसुद्धी य। अर्थ - यहाँ सिद्धान्त में आलोचना का लक्षण चार प्रकार का कहा गया (है)। आलोचन (देखना), आलुंछन (उच्छेदन), वियडीकरण (प्रकटीकरण) और भावशुद्धि। * प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517 ) (46) नियमसार (खण्ड Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 109. जो पस्सदि अप्पाणं समभावे संठवित्तु परिणाम। आलोयणमिदि जाणह परमजिणंदस्स उवएसं। जो पस्सदि अप्पाणं समभावे संठवित्तु परिणाम आलोयणमिदि (ज) 1/1 सवि (पस्स) व 3/1 सक देखता है (अप्पाण) 2/1 आत्मा को (समभाव) 7/1 समभाव में (संठव) संकृ संस्थापित करके (परिणाम) 2/1 भावदशा को [(आलोयणं)+ (इदि)] आलोयणं (आलोयण) 1/1 आलोचन इदि (अ) = शब्दस्वरूपद्योतक (जाण) विधि 2/2 सक जानो [(परम) वि-(जिणंद)' 6/1] परम जिनदेव के (उवएस) 2/1 उपदेश को जाणह परमजिणंदस्स उवएसं अन्वय- जो परिणाम समभावे संठवित्तु अप्पाणं पस्सदि आलोयणमिदि परमजिणंदस्स उवएसं जाणह। ___ अर्थ- जो (साधु ) (अंतरंग में स्थित होकर) भावदशा को समभाव में संस्थापित करके (निज) आत्मा को देखता है (वह) आलोचन (है)। परम जिनदेव के उपदेश को (तुम सब) जानो। 1. यहाँ जिणंद के स्थान पर जिणिंद (जिण+इंद = जिणिंद) होना चाहिये। नियमसार (खण्ड-2) (47) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110. कम्ममहीरुहमूलच्छेदसमत्थो सकीयपरिणामो। साहीणो समभावो आलुंछणमिदि समुद्दिट्ट।। कम्ममहीरुहमूलच्छेद-[(कम्म)-(मही)-(रुह) वि- कर्मरूपी भूमि समत्थो (मूल)-(च्छेद)- में उत्पन्न होनेवाले समत्थ) 1/1 वि] (दोषरूपी वृक्ष के)मूल का छेदन करने में समर्थ सकीयपरिणामो [(सकीय) वि निज का (परिणाम) 1/1] परिणाम साहीणो (साहीण) 1/1 वि स्वाधीन समभावो (समभाव) 1/1 वि समभाववाला आलुछणमिदि [(आलुछणं)+ (इदि)] आलुछणं (आलुछण) 1/1 आलुंछन इदि (अ) = शब्दस्वरूपद्योतक । (समुद्दिट्ठ) भूकृ 1/1 अनि कहा गया समुद्दिढ़ अन्वय- सकीयपरिणामो साहीणो समभावो कम्ममहीरुहमूलच्छेदसमत्थो आलुछणमिदि समुद्दिटुं अर्थ- (चूँकि) निज (आत्म) का परिणाम स्वाधीन और समभाववाला (होता है) (इसलिए), (वह) (अष्ट) कर्मरूपी भूमि में उत्पन्न होनेवाले (दोषरूपी वृक्ष के) मूल का छेदन करने में समर्थ (है)। (यह) आलुछंण (उच्छेदन) कहा गया (है)। (48) नियमसार (खण्ड-2) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 111. कम्मादो अप्पाणं भिण्णं भावेइ विमलगुणणिलयं। __ मज्झत्थभावणाए वियडीकरणं ति विण्णेयं॥ कम्मादो अप्पाणं भिण्णं भावेइ विमलगुणणिलयं मज्झत्थभावणाए (कम्म) 5/1 कर्मों से (अप्पाण) 2/1 आत्मा (भिण्ण) 2/1 वि भिन्न (भाव) व 3/1 सक गुणगान करता है [(विमल) वि-(गुण)- विमल गुणों के (णिलय) 2/1] निवास [(मज्झत्थ) वि- अंतरंग में स्थित (भावणाए) 3/1] (होकर) निष्ठापूर्वक तृतीयार्थक अव्यय [(वियडीकरणं)+ (इति)] वियडीकरणं (वियडीकरण) 1/1वियडीकरण इति (अ) = शब्दस्वरूपद्योतक (विण्णेय) विधिकृ 1/1 अनि समझी जानी चाहिए . वियडीकरणं ति विण्णेयं अन्वय-कम्मादो भिण्णं विमलगुणणिलयं अप्पाणं मज्झत्थभावणाए भावेई वियंडीकरणं ति विण्णेयं। अर्थ- (जो) (साधु) कर्मों से भिन्न विमल गुणों के निवास (शुद्ध) आत्मा (निजात्मा) का अंतरंग में स्थित (होकर) निष्ठापूर्वक गुणगान करता है (वह गुण) वियडीकरण (प्रकटीकरण) (नामक) (आलोचना) समझी जानी चाहिए। नोट. संपादक द्वारा अनूदित नियमसार (खण्ड-2) (49) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112. मदमाणमायलोहविवज्जियभावो दु भावसुद्धि त्ति। परिकहियं भव्वाणं लोयालोयप्पदरिसीहिं।। भाव य) वि मदमाणमायलोह- [(मद)-(माण) कामवासना, अहंकार, विवज्जियभावो (माया-माय)-(लोह)- कपट और लोभरहित (विवज्जिय) वि(भाव) 1/1] अव्यय पादपूरक भावसुद्धि त्ति [(भावसुद्धी)+ (इति)] भावसुद्धी (भावसुद्धि) 1/1 भावशुद्धि इति (अ) = शब्दस्वरूपद्योतक परिकहियं (परिकह) भूकृ 1/1 कहा गया भव्वाणं (भव्व) 4/2 वि भव्यों के लिए लोयालोयप्पदरिसीहिं [(लोय)+(अलोयप्पदरिसीहि)] [(लोय)-(अलोय)- लोक-अलोक को (प्पदरिसि) 3/2 वि] देखनेवालों के द्वारा अन्वय- मदमाणमायलोहविवज्जियभावो दु भावसुद्धि त्ति लोयालोयप्पदरिसीहिं भव्वाणं परिकहिये। अर्थ- कामवासना, अहंकार, कपट और लोभरहित भाव भावशुद्धि (होती है)- ऐसा लोक अलोक को देखनेवालों अर्थात् केवलज्ञानियों द्वारा भव्यों के लिए (यह) कहा गया (है)। 1. छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'माया' का 'माय' किया गया है। (50) नियमसार (खण्ड-2) Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धनिश्चयप्रायश्चित-अधिकार (गाथा 113 से गाथा 121 तक) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह 113. वदसमिदिसीलसंजमपरिणामो करणणिग्गहो भावो। सो हवदि पायछित्तं अणवरयं चेव. कायव्वो। वदसमिदिसीलसंजम-[(वद)-(समिदि)-(सील)- महाव्रत, समिति, परिणामो (संजम)-(परिणाम) 1/1] इनकी रक्षार्थ भावनाएँ तथा संयम-भाव करणणिग्गहो [(करण)-(णिग्गह) 1/1 वि] पंचेन्द्रिय नियंत्रणवाली भावो (भाव) 1/1 चित्तवृत्ति (त) 1/1 सवि हवदि (हव) व 3/1 अक पायछित्तं (पायछित्त) 1/1 प्रायश्चित्त अणवरयं अव्यय अव्यय कायव्वो (का) विधिकृ 1/1 किया जाना चाहिये ___ अन्वय- वदसमिदिसीलसंजमपरिणामो करणणिग्गहो भावो पायछित्तं हवदि सो अणवरयं चेव कायव्वो। अर्थ- (पंच) महाव्रत', (पंच) समिति', इनकी रक्षार्थ भावनाएँ तथा (मन-वचन-काय का) संयम-भाव (और) पंचेन्द्रिय नियंत्रणवाली चित्तवृत्ति प्रायश्चित्त(निर्विकार चित्त* की प्राप्ति) है। वह लगातार ही किया जाना चाहिये। लगातार चेव अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह। इर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापन। अहिंसाव्रत की पाँच भावनाएँ- वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदाननिक्षेपनसमिति और आलोकितपानभोजन। . सत्यव्रत की पाँच भावनाएँ- क्रोधप्रत्याख्यान, लोभप्रत्याख्यान, भीरुप्रत्याख्यान, हास्यप्रत्याख्यान और अनुवीचिभाषण। अचौर्यव्रत की पाँच भावनाएँ- शून्यागारावास, विमोचितावास, परोपरोधाकरण, भैक्षशुद्धि और सधर्माविसंवाद। ब्रह्मचर्यव्रत की पाँच भावनाएँ- स्त्रीरागकथाश्रवणत्याग, स्त्रीमनोहराङ्गनिरीक्षणत्याग, पूर्वरतानुस्मरणत्याग, वृष्येष्टरसत्याग और स्वशरीरसंस्कारत्याग। अपरिग्रहव्रत की पाँच भावनाएँ- मनोज्ञामनोज्ञस्पर्शरागद्वेषवर्जन, मनोज्ञामनोज्ञरसरागद्वेषवर्जन, मनोज्ञामनोज्ञगंधरागद्वेषवर्जन,मनोज्ञामनोज्ञवर्णरागद्वेषवर्जन और मनोज्ञामनोज्ञशब्दरागद्वेषवर्जन। विस्तार के लिए देखें, सर्वार्थसिद्धि पृष्ठ 266-267 टीकाः पद्मप्रभमलधारीदेव नोटः (52) नियमसार (खण्ड-2) Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114. कोहादिसगभावक्खयपहुदिभावणाए णिग्गहणं । पायच्छित्तं भणिदं णियगुणचिंता य णिच्छयदो || कोहादिसगब्भाव - [(कोह) + (आदिसगब्भावक्खयपहुदिभावणाए क्खयपहुदिभावणाए ) ] [(कोह) - (आदि) - (सग) वि - (ब्भाव) - (क्खय) - (पहुदि) वि - ( भावणा) 7 / 1] (णिग्गहण ) 1/1 वि (पायच्छित्त) 1/1 (भण) भूकृ 1 / 1 [(णि) वि- (गुण) - (चिंता ) 1 / 1 ] अव्यय ( णिच्छयदो) 5/1 पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय णिग्गहणं पायच्छित्तं भणिदं णियगुणचिंता य णिच्छयदो अपने क्रोध आदि नियमसार (खण्ड-2 -2) (विभाव) भावों के क्षय आदि के चिंतन में लीन होना प्रायश्चित्त कहा गया निज गुणों का चिंतन और निश्चयपूर्वक अन्वय- कोहादिसगब्भावक्खयपहुदिभावणाए णिग्गहणं य णियगुणचिंता णिच्छयदो पायच्छित्तं भणिदं । अर्थ - अपने क्रोधादि (विभाव) भावों के क्षय आदि के चिंतन में लीन होना और (अंतरंग में स्थित होकर) निज (शुद्धात्मा के ) गुणों का चिंतन निश्चयपूर्वक प्रायश्चित्त (निर्विकार चित्त की प्राप्ति ) कहा गया ( है ) । (53) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 115. कोहं खमया माणं समद्दवेणज्जवेण मायं च। संतोसेण य लोहं जयदि खुए चउविहकसाए। कोहं खमया क्रोध को क्षमा से अहंकार को माणं समद्दवेणज्जवेण मायं (कोह) 2/1 (खमया) 3/1 अनि (माण) 2/1 [(समद्दवेण)+(अज्जवेण)] समद्दवेण (समद्दव)3/1 अज्जवेण (अज्जव) 3/1 (माया) 2/1 अव्यय (संतोस) 3/1 अव्यय (लोह) 2/1 (जय) व 3/1 सक अव्यय अव्यय [(चउविह) वि-(कसाअ) 2/2] संतोसेण अपनी नम्रता से सरलता से कपट को और संतोष से तथा लोभ को जीतता है पादपूरक इस प्रकार चार प्रकार की कषायों लोहं जयदि चउविहकसाए अन्वय-कोहं खमया माणं समद्दवेणज्जवेण च मायं य लोहं संतोसेण जयदि खु ए चउविहकसाए। अर्थ- (निर्विकार चित्त के लिए) (साधु) क्रोध को क्षमा से, अहंकार को अपनी नम्रता से और कपट को सरलता से तथा लोभ को संतोष से जीतता है। इस प्रकार चार प्रकार की कषायों को (साधु) (जीत लेता) (है)। (54) नियमसार (खण्ड-2) Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116. उक्किट्ठो जो बोहो णाणं तस्सेव अप्पणो चित्तं । जो धरइ मुणी णिच्चं पायच्छित्तं हवे तस्स ।। उक्कट्ठो जो बोहो णणं तस्सेव अप्पणो चित्तं जो - धरइ मुणी णिच्वं पायच्छित्तं हवे तस्स ( उक्किड) भूक 1 / 1 अनि (ज) 1 / 1 सवि ( बोह) 1 / 1 ( णाण) 1 / 1 [(तस्स) + (एव)] तस्स (त) 6/1 सवि एव (अ) = ही ( अप्प) 6 / 1 (चित्त) 1/1 (ज) 1 / 1 सवि (धर) व 3 / 1 सक (मुणि) 1 / 1 अव्यय ( पायच्छित्त) 1 / 1 (हव) व 3 / 1 अक (त) 6/1 सवि उत्कृष्ट जो बोध ज्ञान उस ही the आत्मा का बुद्धि जो धारण करता है मुनि सदैव प्रायश्चित्त होता है उसके अन्वय- तस्सेव अप्पणो जो उक्किट्ठो बोहो चित्तं णाणं जो मुणी णिच्चं धरइ तस्स पायच्छित्तं हवे। अर्थ- उस ही (कषाय-विजयी) आत्मा का जो उत्कृष्ट बोध ( है ) (वह) (ही) बुद्धि (है) (वह) (ही) ज्ञान ( है ) । जो मुनि ( उसको) सदैव धारण करता है उसके प्रायश्चित्त होता है । ' नियमसार (खण्ड-2) (55) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 117. किं बहुणा भणिएण दु वरतवचरणं महेसिणं सव्वं। पायच्छित्तं जाणह अणेयकम्माण खयहेऊ॥ बहुणा भणिएण वरतवचरणं महेसिणं सव्वं पायच्छित्तं जाणह अणेयकम्माण खयहेऊ अव्यय क्या (बहुणा) 3/1 वि अनि अधिक (भण) भूकृ 3/1 कही गई से अव्यय पादपूरक [(वर)वि-(तव)-(चरण)1/1] तपरूपी श्रेष्ठ चारित्र (महेसि) 6/2 महामुनियों का (सव्व) 1/1 सवि पूर्ण (पायच्छित्त) 1/1 प्रायश्चित्त (जाण) विधि 2/2 सक जानो [(अणेय) वि-(कम्म) 6/2] अनेक कर्मों के [(खय)-(हेउ) 1/1] क्षय का निमित्त अन्वय- बहुणा भणिएण किं दु महेसिणं वरतवचरणं अणेयकम्माण खयहेऊ सव्वं पायच्छित्तं जाणह। अर्थ- अधिक कही गई (बात) से क्या (लाभ)? महामुनियों का (जो) (बाह्य-अंतरंग) तपरूपी श्रेष्ठ चारित्र (है) (वह) अनेक कर्मों के क्षय का निमित्त है। (इसलिए) (वह) पूर्ण प्रायश्चित्त (निर्विकार चित्त की प्राप्ति) (है)। (तुम सब) जानो। 1. 2. यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु ‘महेसीणं' के स्थान पर 'महेसिणं' किया गया है। बाह्य तप- अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश। अंतरंग तप- प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान। नियमसार (खण्ड-2) (56) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118. णंताणंतभवेण समज्जियसुहअसुहकम्मसंदोहो। तवचरणेण विणस्सदि पायच्छित्तं तवं तम्हा॥ णंताणंतभवेण [(णंताणंत)-(भव) 3/1] अनंतानंत भवों द्वारा समज्जियसुहअसुह- [(समज्जिय) वि-(सुह) वि- उपार्जित शुभ-अशुभ कम्मसंदोहो (असुह) वि-(कम्म)-(संदोह) कर्मसमूह 1/1] तवचरणेण [(तव)-(चरण) 3/1] तपरूपी चारित्र से विणस्सदि (विणस्स) व 3/1 अक नष्ट होता है पायच्छित्तं (पायच्छित्त) 1/1 प्रायश्चित्त (तव) 1/1 तप तम्हा अव्यय इसलिए अन्वय- णंताणंतभवेण समज्जियसुहअसुहकम्मसंदोहो तव चरणेण विणस्सदि तम्हा तवं पायच्छित्त अर्थ- अनंतानंत भवों द्वारा उपार्जित शुभ-अशुभ कर्मसमूह (बाह्यअंतरंग) तपरूपी चारित्र से नष्ट होता है, इसलिए तप प्रायश्चित्त (निर्विकार चित्त की प्राप्ति) (है)। नियमसार (खण्ड-2) (57) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 119. अप्पसरूवालंबणभावेण दुसव्वभावपरिहारं। सक्कदि काईं जीवो तम्हा झाणं हवे सव्वं। अप्पसरूवालंबण- [(अप्पसरूव)+(आलंबणभावेण भावेण)] [(अप्प)-(सरूव)(आलंबण)-(भाव) 3/1] अव्यय सव्वभावपरिहारं [(सव्व) सवि-(भाव) (परिहार) 2/1] सक्कदि (सक्क) व 3/1 अक (का) हेकृ जीवो (जीव) 1/1 तम्हा झाणं (झाण) 2/1-7/1 (हव) व 3/1 अक सव्वं (सव्वं) 2/1 द्वितीयार्थक अव्यय आत्म-स्वरूप के आलंबन होने से पादपूरक सभी भावों का परिहार समर्थ है करने के लिए जीव इसलिए ध्यान में घटित होता है पूर्णरूप से कादं अव्यय अन्वय- अप्पसरूवालंबणभावेण दु जीवो सव्वभावपरिहारं कादं सक्कदि तम्हा सव्वं झाणं हवे। अर्थ- आत्म-स्वरूप के (मात्र) आलम्बन होने से जीव सभी (बहिर्मुखी) भावों का परिहार करने के लिए समर्थ है, इसलिए (सभी बहिर्मुखी भावों का परिहार) पूर्णरूप से ध्यान में घटित होता है। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) (58) नियमसार (खण्ड-2) Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120. सुहअसुहवयणरयणं रायादीभाववारणं किच्चा। अप्पाणं जो झायदि तस्स दुणियम हवे णियमा शुभ-अशुभ वचन कौशल को किच्चा सुहअसुहवयणरयणं [(सुह) वि-(असुह) वि- (वयण)- (रयणा) 2/1] रायादीभाववारणं [(राय)+(आदीभाववारणं)] [(राय)-(आदी-आदि)- (भाव)-(वारण) 2/1] (किच्चा) संकृ अनि अप्पाणं (अप्पाण) 2/1 (ज) 1/1 सवि झायदि (झा-झाय) व 3/1 सक 'य' विकरण तस्स (त) 6/1 सवि अव्यय (णियम) 1/1 राग आदि भावों को रोक करके आत्मा को जो . ध्याता है उसके णियमं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र घटित होता है अनिवार्यतः (हव) व 3/1 अक अव्यय णियमा अन्वय- सुहअसुहवयणरयणं रायादीभाववारणं किच्चा जो अप्पाणं झायदि तस्स दु णियमा णियमं हवे। अर्थ- शुभ-अशुभ (बाह्य) वचन कौशल को (और) रागादि भावों को रोक करके जो (निज) आत्मा को ध्याता है उसके ही अनिवार्यतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र घटित होता है। 1. यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'आदि' का ‘आदी' किया गया है। नियमसार (खण्ड-2) (59) Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 121. कायाईपरदव्वे थिरभावं परिहरन्तु अप्पाणं। तस्स हवे तणुसग्गं जो झायइ णिव्वियप्पेण॥ कायाईपरदव्वे थिरभावं परिहरत्तु अप्पाणं तस्स हवे [(काय)+(आईपरदव्वे)] [(काय)-(आई-आइ)- काय आदि (पर) वि (दव्व) 7/1] परद्रव्य में [(थिर) वि-(भाव) 2/1] स्थिरभाव को (परिहर) संकृ छोड़कर (अप्पाण) 2/1 आत्मा को (त) 6/1 सवि उसके (हव) व 3/1 अक घटित होता है [(तणू) + (उसग्गं)] तणुसग्गं [(तणू)-(उसग्ग)1/1] कायोत्सर्ग (ज) 1/1 सवि (झा-झाय) व 3/1 सक ध्याता है 'य' विकरण (णिब्वियप्पेण) 3/1 निर्विकल्परूप से तृतीयार्थक अव्यय तणुसग्गं झायइ णिव्वियप्पेण अन्वय- कायाईपरदव्वे थिरभावं परिहरन्तु जो अप्पाणं णिब्वियप्पेण झायइ तस्स तणुसग्गं हवे। अर्थ- काय आदि परद्रव्य में स्थिरभाव छोड़कर जो (निज) आत्मा को निर्विकल्परूप से ध्याता है उसके कायोत्सर्ग घटित होता है। 1. छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'उस्सग्ग' का 'उसग्ग' किया गया है। 'उस्सग्ग' शब्द पुल्लिंग है। यहाँ नपुंसकलिंग की तरह प्रयुक्त हुआ है। नियमसार (खण्ड-2) (60) Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमसमाधि-अधिकार (गाथा 122 से गाथा 133 तक) Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122. वयणोच्चारणकिरियं परिचत्ता वीयरायभावेण । जो झायदि अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स ।। वयणोच्चारणकिरियं (वयण) + (उच्चारणकिरियं)] [(वयण) - (उच्चारण) - (fanften) 2/1] (परिचत्ता) संकृ अनि [ ( वीयराय) वि - (भाव) 3/1] (ज) 1 / 1 सवि (झा झाय) व 3 / 1 सक - 'य' विकरण परिचत्ता वीयरायभावेण जो झायदि अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स वचन उच्चारण की क्रिया को (62) छोड़कर वीतराग भाव से जो ध्याता है ( अप्पाण) 2 / 1 आत्मा को [(परम) वि- (समाहि) 1 / 1] परम-समाधि (हव) व 3/1 अक घटित होती है (त) 6 / 1 सवि उसके अन्वय- वयणोच्चारणकिरियं परिचत्ता वीयरायभावेण जो अप्पाणं झायदि तस्स परमसमाही हवे। अर्थ - (बाह्य) वचन उच्चारण की क्रिया को छोड़कर वीतराग भाव से जो (अंतरंग में) आत्मा को ध्याता है उसके परम-समाधि घटित होती है। नियमसार (खण्ड-2) Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 123. संजमणियमतवेण दु धम्मज्झाणेण सुक्कझाणेण । जो झायइ अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स ॥ संजमणियमतवेण दु धम्मज्झाणेण सुक्कझाणेण जो झायइ अप्पाणं परमसमाही तस्स [(संजम) - (नियम) - (तव) 3 / 1] अव्यय नियमसार (खण्ड-2) ( धम्मज्झाण) 3 / - 1 (सुक्कझाण) 3/1 (ज) 1/1 सवि ( झा → झाय) व 3 / 1 सक - 'य' विकरण ( अप्पाण) 2 / 1 [ ( परम) वि - ( समाहि) 1/1] (हव) व 3 / 1 अक (त) 6 / 1 सवि संयम, नियम, तप से तथा धर्मध्यान से शुक्लध्यान से जो ध्याता है आत्मा को परम-समाधि घटित होती है उसके अन्वय- संजमणियमतवेण दु धम्मज्झाणेण सुक्कझाणेण जो अप्पाणं झायइ. तस्स परमसमाही हवे | अर्थ- संयम (इन्द्रिय-नियन्त्रण), नियम (नियमितता ), तप से तथा धर्मध्यान से और शुक्लध्यान से जो (साधु) आत्मा को ध्याता है उसके परमसमाधि घटित होती है। (63) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124. किं काहदि वणवासो कायकिलेसो विचित्तउववासो। अज्झयणमोणपहुदी समदारहियस्स समणस्स। करेंगे वनवास (किं) 1/1 सवि क्या काहदि (का) भवि 3/1 सक वणवासो (वणवास) 1/1 कायकिलेसो [(काय)-(किलेस) 1/1] काय-क्लेश विचित्तउववासो [(विचित्त) वि-(उववास) । अनेक प्रकार के उपवास अज्झयणमोणपहुदी [अज्झयण)-(मोण)- अध्ययन, मौन आदि (पहुदि) 1/2 वि] समदारहियस्स [(समदा)-(रहिय) 4/1 वि] समता-रहित (समण) 4/1 श्रमण के लिए 1/1] समणस्स अन्वय- समदारहियस्स समणस्स वणवासो कायकिलेसो विचित्तउववासो अज्झायणमोणपहुदी किं काहदि। अर्थ- समता-रहित (ध्यान-रहित) श्रमण के लिए वनवास, कायक्लेश, अनेक प्रकार के उपवास, अध्ययन, मौन आदि क्या (लाभ) करेंगे? 1. यहाँ ‘काहदि' के स्थान पर काहिदि' होना चाहिए। (64) नियमसार (खण्ड-2) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 125. विरदो सव्वसावज्जे तिगुत्तो पिहिदिदिओ। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे॥ निवृत्त विरदो . सव्वसावज्जे तिगुत्तो पिहिदिदिओ (विरद) 1/1 वि [(सव्व) सवि-(सावज्ज) समस्त पापों से 7/1-5/1] (तिगुत्त) 1/1 वि तीन गुप्तिवाला [(पिहिद)+ (इंदिओ)] [(पिहिद) भूकृ-(इंदिअ)1/1] नियन्त्रित की गई इन्द्रियवाला अथवा इन्द्रिय नियन्त्रित की तस्स सामाइग ठाइ (त) 6/1 सवि (सामाइग) 1/1 (ठा) व 3/1 अक उसके सामायिक स्थिर होती है इस प्रकार केवली के शासन में अव्यय केवलिसासणे (केवलिसासण) 7/1 अन्वय- सव्वसावज्जे विरदो तिगुत्तो पिहिदिदिओ तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे। अर्थ- (जो) समस्त पापों से निवृत्त (है), (जो) (मन-वचन-कायरूप) तीन गुप्तिवाला (है), (जो) नियन्त्रित की गई इन्द्रियवाला (है) अथवा (जिसके द्वारा) (प्रत्येक) इन्द्रिय नियन्त्रित की गई (है) उसके सामायिक (समभाव) स्थिर होती है। इस प्रकार केवली के शासन में (कहा गया है)। 1. कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-136) नियमसार (खण्ड-2) (65) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126. जो समो सव्वभूदेसु थावरेसु तसेसु वा। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे॥ जो सव्वभूदेसु थावरेसु (ज) 1/1 सवि (सम) 1/1 वि [(सव्व) सवि-(भूद) 7/2] (थावर) 7/2 (तस) 7/2 समभाव रखनेवाला सब जीवों पर स्थावर तसेसु त्रस वा अव्यय तथा तस्स उसके सामाइगं (त) 6/1 सवि (सामाइग) 1/1 (ठा) व 3/1 अक सामायिक स्थिर होती है ठाइ अव्यय इदि केवलिसासणे इस प्रकार केवली के शासन में (केवलिसासण) 7/1 अन्वय- जो थावरेसु वा तसेसु सव्वभूदेसु समो तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे। अर्थ- जो (साधु) स्थावर तथा त्रस सब जीवों पर समभाव रखनेवाला है उसके सामायिक (राग-द्वेषरहित अवस्था) स्थिर होती है। इस प्रकार केवली के शासन में (कहा गया है)। (66) नियमसार (खण्ड-2) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 127. जस्स सण्णिहिदो अप्पा संजमे णियमे तवे । तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे || जस्स सणिहिदो अप्पा संज णिय तवे तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे (ज) 6/1 सवि जिसके (सणिहिद) भूक 1 / 1 अनि अन्तर्वर्ती ( अप्प ) 1 / 1 ( संजम ) 7/1 (नियम) 7/1 (तव) 7/1 (त) 6 / 1 सवि (सामाइग) 1/1 (ठा) व 3 / 1 अक अव्यय (केवलिसासण) 7/1 शुद्ध आत्म द्रव्य संयम में नियम में तप में उसके सामायिक स्थिर होती है इस प्रकार केवली के शासन में अन्वय- जस्स संजमे णियमे तवे अप्पा सण्णिहिदो तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे । अर्थ- (बाह्य प्रपंच से पराङ्मुख) जिस (साधु) के (बाह्य व अभ्यंतर) संयम में, (मर्यादित काल के आचरण स्वरूप) नियम में (तथा) (बाह्य और अभ्यंतर) तप में शुद्ध आत्म द्रव्य अन्तर्वर्ती ( है ) उसके (समभावरूप) सामायिक स्थिर होती है। इस प्रकार केवली के शासन में (कहा गया है)। नियमसार (खण्ड-2) (67) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128. जस्स रागो दु दोसो दु विगडिं ण जणेइ दु। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे।। जिसके जस्स रागो दोसो विगडिं विकार ण (ज) 6/1 सवि (राग) 1/1 अव्यय (दोस) 1/1 अव्यय (विगडि) 2/1 अव्यय (जण) व 3/1 सक अव्यय (त) 6/1 सवि (सामाइग) 1/1 (ठा) व 3/1 अक नहीं जणेइ उत्पन्न करता है तो तस्स सामाइगं ठाइ उसके सामायिक स्थिर होती है इस प्रकार केवली के शासन में इदि अव्यय केवलिसासणे (केवलिसासण) 7/1 अन्वय-जस्स रागो दु दोसो दु विगडिं ण जणेइ दु तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे। . अर्थ- जिस (साधु) के (बाह्य वस्तुओं के प्रति) राग (आकर्षण) या द्वेष (विकर्षण) (है) किन्तु (वह उसमें) विकार उत्पन्न नहीं करता है तो उसके (समभावरूप) सामायिक स्थिर होती है। इस प्रकार केवली के शासन में (कहा गया है)। (68) नियमसार (खण्ड-2) Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 129. जो दु अटुं च रुदं च झाणं वज्जेदि णिच्चसो। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे॥ जो (ज) 1/1 सवि अव्यय (अट्ट) 1/1 वि . पादपूरक आर्त अव्यय और (रुद्द) 1/1 औद्र अव्यय आण वज्जेदि णिच्चसो तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे (झाण) 2/1 (वज्ज) व 3/1 सक अव्यय (त) 6/1 सवि (सामाइग) 1/1 (ठा) व 3/1 अक अव्यय (केवलिसासण) 7/1 पुनरावृत्ति भाषा की पद्धति ध्यान को छोड़ता है सदैव उसके सामायिक स्थिर होती है इस प्रकार केवली के शासन में अन्वय-जो दु अझं च रुदं च झाणं णिच्चसो वज्जेदि तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे। ____ अर्थ- जो (साधु) आर्त और रौद्र ध्यान को सदैव छोड़ता है उसके (समभावरूप) सामायिक स्थिर होती है। इस प्रकार केवली के शासन में (कहा गया है)। नियमसार (खण्ड-2) (69) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130. जो दु पुण्णं च पावं च भावं वज्जेदि णिच्चसो। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे॥ 5 पादपूरक (ज) 1/1 सवि अव्यय (पुण्ण) 2/1 अव्यय (पाव) 2/1 अव्यय पुण्य By PF और भावं वज्जेदि णिच्चसो तस्स सामाइगं ठाइ (भाव) 2/1 (वज्ज) व 3/1 सक अव्यय (त) 6/1 सवि (सामाइग) 1/1 (ठा) व 3/1 अक अव्यय (केवलिसासण) 7/1 पाप पुनरावृत्ति भाषा की पद्धति कर्म (क्रिया) छोड़ता है सदैव उसके सामायिक स्थिर होती है इस प्रकार केवली के शासन में केवलिसासणे अन्वय- जो द पुण्णं च पावं च भावं णिच्चसो वज्जेदि तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे। . अर्थ- जो (साधु) (शुभ परिणति से उपार्जित) पुण्य कर्म को और पाप (हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रह के परिणाम से उत्पन्न होनेवाले) (कर्म) को सदैव छोड़ता है उसके (समभावरूप) सामायिक स्थिर होती है। इस प्रकार केवली के शासन में (कहा गया है)। (70) नियमसार (खण्ड-2) Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 131. जो दु हस्सं रई सोगं अरतिं वज्जेदि णिच्चसो । तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ॥ 后 ՄԽՉ दु हस्सं रई सोगं अरतिं वज्जेदि णिच्चसो तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे (ज) 1/1 सवि अव्यय नियमसार (खण्ड-2 (हस्स) 2 / 1 ( रइ) 2 / 1 (सोग) 2/1 ( अरति) 2 / 1 ( वज्ज) व 3/1 सक अव्यय (त) 6/1 सवि ( सामाइग) 1 / 1 (ठा) व 3 / 1 अक अव्यय -2) (केवलिसासण) 7/1 जो और हास्य रति शोक अर छोड़ता है सदैव उसके सामायिक स्थिर होती है अन्वय- जो दुहस्सं रई सोगं अरतिं णिच्चसो वज्जेदि तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे । इस प्रकार केवली के शासन में अर्थ- जो (साधु) हास्य, रति, शोक और अरति को सदैव छोड़ता है, उसके (समभावरूप) सामायिक स्थिर होती है। इस प्रकार केवली के शासन में ( कहा गया है ) । (71) Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132. जो दुगंछा भयं वेदं सव्वं वज्जेदि णिच्चसो। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे॥ जो *दुगंछा घृणा (ज) 1/1 सवि (दुगंछा) 2/1 (भय) 2/1 (वेद) 2/1 भय स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद सबको सव्वं वज्जेदि णिच्चसो तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे (सव्व) 2/1 सवि (वज्ज) व 3/1 सक अव्यय (त) 6/1 सवि (सामाइग) 1/1 (ठा) व 3/1 अक अव्यय (केवलिसासण) 7/1 छोड़ता है सदैव उसके सामायिक स्थिर होती है इस प्रकार केवली के शासन में अन्वय- जो दुगंछा भयं वेदं सव्वं णिच्चसो वज्जेदि तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे। अर्थ- जो (साधु) घृणा, भय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद (इन) सबको सदैव छोड़ता है उसके (समभावरूप) सामायिक स्थिर होती है। इस प्रकार केवली के शासन में (कहा गया है)। . * प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) (72) नियमसार (खण्ड-2) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 133. जो दु धम्मं च सुक्कं च झाणं झाएदि णिच्चसो । तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ॥ जो दु धम्मं च सुक्कं P झाणं झाएदि णिच्चसो तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलसासणे (ज) 1 / 1 सवि अव्यय (धम्म) 2/1 अव्यय (सुक्क) 2/1 अव्यय ( झाण) 2 / 1 (झा झाअ) व 3 / 1 सक - 'अ' विकरण अव्यय (त) 6/1 सवि ( सामाइग) 1 / 1 (ठा) व 3/1 अक अव्यय (केवलिसासण) 7/1 जो पादपूरक धर्म और शुक्ल पुनरावृत्ति भाषा की पद्धति ध्यान को ध्याता है सदैव उसके सामायिक स्थिर होती है इस प्रकार केवली के शासन में अन्वय- जो दु धम्मं च सुक्कं च झाणं णिच्चसो झाएदि तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे । अर्थ - जो (साधु) धर्म और शुक्ल ध्यान को सदैव ध्याता है उसके (समभावरूप) सामायिक स्थिर होती है । इस प्रकार केवली के शासन में (कहा गया है)। नियमसार (खण्ड-2) (73) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमभक्ति-अधिकार ( गाथा 134 से गाथा 140 तक) Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134. सम्मत्तणाणचरणे जो भत्तिं कुणइ सावगो समणो। तस्स दु णिव्वुदिभत्ती होदि त्ति जिणेहि पण्णत्त। . सम्मत्तणाणचरणे भक्ति भत्तिं कुणइ सावगो समणो तस्स [(सम्मत्त)-(णाण)- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान (चरण) 7/1] और सम्यक्चारित्र में (ज) 1/1 सवि (भत्ति) 2/1 (कुण) व 3/1 सक करता है (सावग) 1/1 श्रावक (समण) 1/1 श्रमण (त) 6/1 सवि अव्यय पादपूरक [(णिव्वुदि)-(भत्ति) 1/1] निर्वाणभक्ति [(होदि)+(इति)] होदि (हो) व 3/1 अक होती है इति (अ) = इस प्रकार इस प्रकार (जिण) 3/2 जिनेन्द्रदेव द्वारा (पण्णत्त) भूक 1/1 अनि कहा गया उसके णिबुदिभत्ती होदि त्ति जिणेहि पण्णत्तं . अन्वय- जो सावगो समणो सम्मत्तणाणचरणे भत्तिं कुणइ तस्स दु णिव्वुदिभत्ती होदि त्ति जिणेहि पण्णत्तं। अर्थ- जो श्रावक (अथवा) श्रमण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में भक्ति करता है उसके निर्वाणभक्ति होती है। इस प्रकार (यह) जिनन्द्रदेव द्वारा कहा गया (है)। नियमसार (खण्ड-2) (75) Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 135. मोक्खंगयपुरिसाणं गुणभेदं जाणिऊण तेसिं पि जो कुणदि परमभत्तिं ववहारणयेण परिकहियं । । मोक्खंगयपुरिसाणं [ ( मोक्खं ) ' - ( गय) भूकृ अनि मोक्ष को प्राप्त हुए पुरुषों के गुण- विशेष को गुणभेदं जाणिऊण सिं पि जो कुणदि परमभत्तिं ववहारणयेण परिकहियं 1. ( पुरिस ) 6 / 2] [(गुण) - (भेद ) 2 / 1] (जाण) संकृ (त) 6/2 सवि अव्यय (76) (ज) 1 / 1 सवि (कुण) व 3/1 सक [ ( परम ) वि - (भत्ति) 2 / 1] (ववहारणय) 3/1 (परिकह) भूक 1/1 जानकर उनकी भी जो करता है परमभक्ति व्यवहारनय से कहा गया कुदि ववहारणयेण परिकहियं । अर्थ- जो (श्रावक अथवा श्रमण ) मोक्ष को प्राप्त हुए पुरुषों के गुणविशेष को जानकर उनकी भी परमभक्ति करता है (उसके) व्यवहारनय से (यह) कहा गया (है) (कि) (वह निर्वाणभक्ति है ) । अनुस्वार का आगम हुआ है। (हेम-प्राकृत - व्याकरणः 1-26) अन्वय- जो मोक्खंगयपुरिसाणं गुणभेदं जाणिऊण तेसिं पि परमभत्तिं नियमसार (खण्ड-2) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136. मोक्खपहे अप्पाणं ठविऊण य कुणदि णिव्वुदी भत्ती। तेण दु जीवो पावइ असहायगुणं णियप्पाणं।। मोक्खपहे अप्पाणं ठविऊण कुणदि णिव्वुदी [(मोक्ख)-(पह) 7/1] मोक्षमार्ग में (अप्पाण) 2/1 अपने को (ठव) सकृ स्थापित करके अव्यय पादपूरक (कुण) व 3/1 सक करता है (णिव्वुदि) 1/1 निर्वाण (णिव्वुदि) 2/1(अपभ्रंश रूप) (भत्ति ) 1/1 भक्ति (भत्ति ) 2/1 (अपभ्रंश रूप) (त) 3/1 सवि उससे अव्यय पादपूरक (जीव) 1/1 जीव (पाव) व 3/1 सक प्राप्त करता है [(असहाय) वि-(गुण) असहाय गुणवाली 2/1 वि] [(णिय) वि-(अप्पाण) 2/1] निज-आत्मा को Ev पावइ असहायगुणं णियप्पाणं अन्वय- मोक्खपहे अप्पाणं ठविऊण य कुणदि णिव्वुदी भत्ती तेण दु जीवो असहायगुणं णियप्पाणं पावइ। ____ अर्थ- मोक्षमार्ग में अपने को स्थापित करके (जो) (शुद्धात्मा की भक्ति) करता है (वह) निर्वाणभक्ति (है)। उस (निर्वाणभक्ति) से (वह) जीव (श्रावक अथवा श्रमण) असहाय गुणवाली (स्वतन्त्र गुणवाली) निज-आत्मा को प्राप्त करता है। अथवा अर्थ- मोक्षमार्ग में अपने को स्थापित करके (जो) निर्वाणभक्ति करता है उस (निर्वाणभक्ति) से (वह) जीव (श्रावक अथवा श्रमण) असहाय गुणवाली (स्वतन्त्र गुणवाली) निज-आत्मा को प्राप्त करता है। नोटः संपादक द्वारा अनूदित नियमसार (खण्ड-2) (77) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 137. रायादीपरिहारे अप्पाणं जो दु जुंजदे साहू। सो जोगभत्तिजुत्तो इदरस्स य किह हवे जोगो ॥ जुंजदे साहू रायादीपरिहारे [(राय)+(आदीपरिहारे)] [(राय)-(आदी-आदि)- राग आदि के (परिहार) 7/1] परिहार में अप्पाणं (अप्पाण) 2/1 निज को (ज) 1/1 सवि अव्यय पादपूरक (जुंज) व 3/1 सक. लगाता है (साहु) 1/1 साधु (त) 1/1 सवि वह जोगभत्तिजुत्तो [(जोग)-(भत्ति)- योगभक्ति से युक्त (जुत्त) भूकृ 1/1 अनि इदरस्स (इदर) 6/1 वि अन्य के अव्यय पादपूरक अव्यय (हव) व 3/1 अक जोगो (जोग) 1/1 योग अन्वय- जो साहू दु रायादीपरिहारे अप्पाणं जुंजदे सो जोगभत्तिजुत्तो इदरस्स य जोगो किह हवे। ___ अर्थ- जो साधु रागादि के परिहार में निज को लगाता है वह योगभक्ति से युक्त (है)। अन्य के अर्थात् जो साधु निज को नहीं लगाता है (उसके) योग (भक्ति) कैसे होगी? 1. प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमानकाल का प्रयोग प्रायः भविष्यत्काल के अर्थ में होता किह कैसे हवे होगी (78) नियमसार (खण्ड-2) Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138. सव्ववियप्पाभावे अप्पाणं जो दु जुंजदे साहू। सो जोगभत्तिजुत्तो इदरस्स य किह हवे जोगो॥ सर्वविकल्पों के अभाव में निज को पादपूरक लगाता है . सव्ववियप्पाभावे [(सव्ववियप्प)+(अभावे)] [(सव्व) सवि-(वियप्प)- (अभाव) 7/1] अप्पाणं (अप्पाण) 2/1 (ज) 1/1 सवि अव्यय (झुंज) व 3/1 सक (साहु) 1/1 (त) 1/1 सवि जोगभत्तिजुत्तो [(जोग)-(भत्ति) (जुत्त) भूकृ 1/1 अनि] इदरस्स (इदर) 6/1 अव्यय अव्यय (हव) व 3/1 अक (जोग) 1/1. lis.titit साधु वह योगभक्ति से युक्त अन्य के पादपूरक होगी अन्वय-जो साहू दुसव्ववियप्पाभावे अप्पाणं जुंजदे सो जोगभत्तिजुत्तो इदरस्स य जोगो किह हवे। . अर्थ- जो साधु सर्वविकल्पों के अभाव में निज को लगाता है वह योगभक्ति से युक्त (है)। अन्य के अर्थात् जो निज को नहीं लगाता है उसके योग (भक्ति) कैसे होगी? 1. प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमानकाल का प्रयोग प्रायः भविष्यत्काल के अर्थ में होता नियमसार (खण्ड-2) (79) Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 139. विवरीयाभिणिवेसं परिचत्ता जोण्हकहियतच्चेसु। जो जुंजदि अप्पाणं णियभावो सो हवे जोगो॥ विवरीयाभिणिवेसं [(विवरीय)+(अभिणिवेसं)] [(विवरीय) वि-(अभिणिवेस) विपरीत आग्रह को 2/1] परिचत्ता (परिचत्ता) संकृ अनि छोड़कर जोण्हकहियतच्चेसु [(जोण्ह)-(कहिय) भूकृ- जिनेन्द्रदेव कथित (तच्च) 7/2] तत्त्वों में (ज) 1/1 सवि झुंजदि (मुंज) व 3/1 सक लगाता है अप्पाणं (अप्पाण) 2/1 निज को णियभावो [(णिय) वि-(भाव) 1/1] निजभाव (त) 1/1 सवि (हव) व 3/1 अक (जोग) 1/1 जो : जोगो योग अन्वय- विवरीयाभिणिवेसं परिचत्ता जो जोण्हकहियतच्चेसु अप्पाणं जुंजदि सो णियभावो जोगो हवे। अर्थ- विपरीत आग्रह को छोड़कर जो (साधु) जिनेन्द्रदेव कथित तत्त्वों में निज को लगाता है (उसका) वह निजभाव योग है। (80) नियमसार (खण्ड-2) Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140. उसहादिजिणवरिंदा एवं काऊण जोगवरभत्तिं । णिव्वुदिसुहमावण्णा तम्हा धरु जोगवरभत्तिं ।। उसहादिजिणवरिंदा [(उसह) + (आदिजिणवरिंदा)] [(उसह) - (आदि) - (जिणवरिंद) 1/2 ] एवं काऊण अव्यय (का) संकृ [(जोग) - (वर) वि (भत्ति) 2/1] णिव्वुदिसुहमावण्णा [ ( णिव्वुदिसुहं) + (आवण्णा)] णिव्वुदिसुहं [ ( णिव्वुदि) - ] (सुह) 2 / 1 आवण्णा (आवण्ण) भूक 1/2 अनि अव्यय ( धर + 3 ) विधि 2 / 1 सक ('उ' प्रत्यय अपभ्रंश का है) [(जोग)-(वर) वि(भत्ति) 2/1] गवरभत्तिं तम्हा धरु जोगवरभत्तिं ऋषभ आदि अरहंतों ने (81) इस तरह करके उत्तम योगभक्ति निर्वाणसुख प्राप्त किया इसलिए धारण करो उत्तम योगभक्ति अन्वय- उसहादिजिणवरिंदा एवं जोगवरभत्तिं काऊण णिव्वुदिसुहमावण्णा तम्हा जोगवरभत्तिं धरु । अर्थ - ऋषभ आदि अरहंतो ने इस तरह उत्तम योगभक्ति करके निर्वाणसुख प्राप्त किया (है), इसलिए (तुम) (भी) उत्तम योगभक्ति धारण करो । नियमसार (खण्ड-2) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चयपरमावश्यक-अधिकार (गाथा 141 से गाथा 158 तक) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 141. जो ण हवदि अण्णवसो तस्स दु कम्म भणंति आवासं। कम्मविणासणजोगो णिव्वुदिमग्गो त्ति पिज्जुत्तो।। नहीं (ज) 1/1 सवि जो अव्यय हवदि (हव) व 3/1 अक होता है अण्णवसो [(अण्ण)सवि-(वस) 1/1 वि] अन्य के वश तस्स (त) 6/1 सवि उसके अव्यय कम्म (कम्म) 1/1 कर्म भणंति (भण) व 3/2 सक कहते हैं आवासं (आवास) 1/1 वि आवश्यक कम्मविणासणजोगो [(कम्म)-(विणासण) वि- कर्मों का (जोग) 1/1] | विनाशकरनेवाला योग णिव्वुदिमग्गो त्ति [(णिव्वुदिमग्गो)+ (इति)] णिव्वुदिमग्गो [(णिव्वुदि)- निर्वाण-मार्ग (मग्ग) 1/1] इति (अ) = ऐसा पिज्जुत्तो (पिज्जुत्त) भूक 1/1 अनि कहा गया अन्वय- जो अण्णवसो ण हवदि तस्स दु आवासं कम्मं भणंति कम्मविणासणजोगो णिव्वुदिमग्गो त्ति पिज्जुत्तो। अर्थ- जो (जीव) (अंतरंग में स्थित है) (तथा) (बाह्य प्रपंच से पराङ्मुख है) (वह) अन्य के वश नहीं होता है उसके ही (ध्यान स्वरूप) आवश्यक कर्म (होता है) (आचार्य) (ऐसा) कहते हैं। कर्मों का विनाश करनेवाला ऐसा (ध्यान) योग निर्वाण-मार्ग कहा गया (है)। नियमसार (खण्ड-2) (83) Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142. ण वसो अवसो अवसस्स कम्म वावस्सयं ति बोद्धव्वा। जुत्ति त्ति उवाअंति य णिरवयवो होदि णिज्जुत्ती॥ नहीं वसो *कम्म अव्यय (वस) 1/1 वि वश अवसो (अवस) 1/1 वि अवश अवसस्स (अवस) 6/1 वि अवश का (कम्म) 1/1 कर्म वावस्सयं ति [(वा)+(आवस्सयं) + (इति)] वा (अ) = तथा तथा आवस्सयं (आवस्सय) 1/1 वि आवश्यक इति (अ) = ऐसा ऐसा बोद्धव्वा (बोद्धव्व) विधिकृ 1/1 अनि समझी जानी चाहिये जुत्ति त्ति [(जुत्ती) + (इति)] जुत्ती (जुत्ति) 1/1 इति (अ) = ऐसी उवाअंति [(उवाअं)+ (इति)] उवाअं (उवाअ) 2/1 इति (अ) = ऐसा ऐसा अव्यय और णिरवयवो (णिरवयव) 1/1 वि अशरीरी (हो) व 3/1 अक होता है णिज्जुत्ती (णिज्जुत्ति) 1/1 व्याख्या ___अन्वय- ण वसो अवसो जुत्ति त्ति बोद्धव्वा अवसस्स कम्म वावस्सयं ति उवाअंति य णिरवयवो होदि णिज्जुत्ती। अर्थ- (जो) (जीव) (अन्य के) वश नहीं (है) (वह) अवश (है) ऐसी युक्ति समझी जानी चाहिये तथा अवश का (ध्यानस्वरूप) कर्म आवश्यक (है) ऐसा उपाय (जानो)। (इससे जीव) अशरीरी (सिद्ध) होता है। (ऐसी) व्याख्या उपाय होदि नोटः प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) संपादक द्वारा अनूदित नियमसार (खण्ड-2) (84) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 143. वहृदि जो सो समणो अण्णवसो होदि असुहभावेण। तम्हा तस्स दु कम्मं आवस्सयलक्खणं ण हवे॥ होता है जो वह होदि असुहभावेण (वट्ट) व 3/1 अक (ज) 1/1 सवि (त) 1/1 सवि समणो (समण) 1/1 श्रमण अण्णवसो [(अण्ण)सवि-(वस) 1/1 वि] अन्य के वश (हो) व 3/1 अक होता है [(असुह) वि-(भाव) 3/1] अशुभ भाव-सहित तम्हा इसलिए तस्स (त) 6/1 सवि उसके अव्यय पादपूरक (कम्म) 1/1 कर्म आवस्सयलक्खणं [(आवस्सय) वि-(लक्खण) आवश्यक लक्षणवाला 1/1 वि] अव्यय (हव) व 3/1 अक होता है अव्यय कम्म नहीं अन्वय- जो समणो असुहभावेण वदि सो अण्णवसो होदि तम्हा तस्स दु आवस्सयलक्खणं कम्मं ण हवे। अर्थ- जो श्रमण अशुभ भाव-सहित होता है वह अन्य के वश होता है, इसलिए उसके आवश्यक लक्षणवाला (ध्यानस्वरूप) कर्म नहीं होता है। नियमसार (खण्ड-2) (85) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144. जो चरदि संजदो खलु सुहभावे सो हवेइ अण्णवसो । तम्हा तस्स दु कम्मं आवासयलक्खणं ण हवे ॥ (ज) 1/1 सवि जो (चर) व 3/1 सक करता है (संजद) 1/1 वि साधु निस्सन्देह शुभभाव जो चरदि संजदो खलु सुहभावे' सो हवे अण्णवसो तम्हा तस्स दु कम्मं आवासयलक्खणं ण हवे 1. अव्यय [ ( सुह) वि- (भाव) 7/1-2/1] (त) 1/1 सवि (हव) व 3 / 1 अक (86) वह होता है [(अण्ण) सवि - (वस) 1 / 1 वि] अन्य के वश अव्यय इसलिए (त) 6/1 सवि उसके अव्यय (कम्म) 1 / 1 [ ( आवासय) वि - ( लक्खण) 1/1 fal अव्यय ( हव) व 3 / 1 अक पादपूरक कर्म आवश्यक लक्षणवाला अन्वय- जो संजदो सुहभावे चरदि सो खलु अण्णवसो हवेइ तम्हा तस्स दु आवासयलक्खणं कम्मं ण हवे । अर्थ- जो साधु शुभभाव करता है वह ( भी ) निस्सन्देह अन्य के वश होता है, इसलिए उसके आवश्यक लक्षणवाला (ध्यानस्वरूप) कर्म नहीं होता है । नहीं होता है कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। ( हेम - प्राकृत - व्याकरणः 3-135 ) नियमसार (खण्ड-2) Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 145. दव्वगुणपज्जयाणं चित्तं जो कुणइ सो वि अण्णवसो। मोहंधयारववगयसमणा कहयंति एरिसय।। दव्वगुणपज्जयाणं द्रव्य, गुण और पर्यायों में मन को [(दव्व)-(गुण)(पज्जय) 6/27/2] (चित्त) 2/1 (ज) 1/1 सवि (कुण) व 3/1 सक (त) 1/1 सवि लगाता है वह अव्यय अण्णवसो मोहंधयारववगय समणा [(अण्ण)सवि-(वस) 1/1 वि] अन्य के वश [(मोह)-(अंधयार)- मोहरूपी अंधकार (ववगय) वि से रहित श्रमण (समण) 1/2] (कहयंति) व 3/2 सक अनि कहते हैं (एरिसय) 2/1 वि इसको कहयंति एरिसयं अन्वय- जो दव्वगुणपज्जयाणं चित्तं कुणइ सो वि अण्णवसो मोहंधयारववगयसमणा एरिसयं कहयंति । .. अर्थ- जो (श्रमण) द्रव्य, गुण, पर्यायों में मन को लगाता है वह भी अन्य के वश (है)। मोहरूपी अंधकार से रहित श्रमण इसको कहते हैं। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरण 3-134) नियमसार (खण्ड-2) (87) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146. परिचत्ता परभावं अप्पाणं झादि णिम्मलसहावं । अप्पवसो सो होदि ह तस्स दु कम्मं भणंति आवासं ॥ परिचत्ता परभावं . अप्पाणं झादि णिम्मलसहावं अप्पवसो सो होदि हु तस्स hco दु कम्म भति आवासं (परिचत्ता) संकृ अनि [ ( पर) वि - (भाव) 2 / 1] ( अप्पाण) 2 / 1 (88) (झा) व 3 / 1 सक [ ( णिम्मल) वि - (सहाव ) 2/1 fa] [ ( अप्प ) - ( वस) 1 / 1वि] (त) 1/1 सवि (हो) व 3/1 अक अव्यय (त) 6/1 सवि अव्यय (कम्म) 1 / 1 (भण) व 3/2 सक (आवास) 1/1 वि छोड़कर परभाव को निज (आत्मा) को ध्याता है निर्मल स्वभाववाले आत्मा के वश वह होता है निश्चय ही उसके ही कर्म कहते हैं आवश्यक अन्वय- परभावं परिचत्ता णिम्मलसहावं अप्पाणं झादि सो अप्पवसो होदि हु तस्स दु आवासं कम्मं भणति । अर्थ - (जो ) (साधु) परभाव को छोड़कर निर्मल स्वभाववाले निज (आत्मा) को ध्याता है वह (निश्चय ही ) आत्मा के वश होता है (तथा) उसके ही (ध्यानस्वरूप ) आवश्यक कर्म ( है ) (जिनेन्द्र देव ) ( ऐसा ) कहते हैं। नियमसार (खण्ड-2) Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 147. आवासं जह इच्छसि अप्पसहावेसु कुणदि थिरभाव। तेण दु सामण्णगुणं संपुण्णं होदि जीवस्स॥ आवासं (आवास) 2/1 वि अव्यय जह इच्छसि अप्पसहावेसु आवश्यक को जैसे चाहते हो आत्म-स्वभाव में करता है स्थिरभाव उससे कुणदि कर थिरभावं (इच्छ) व 2/1 सक [(अप्प)-(सहाव) 7/2] (कुण) व 3/1 सक [(थिर) वि-(भाव) 2/1] (त) 3/1 सवि अव्यय [(सामण्ण)-(गुण) 1/1] (संपुण्ण) 1/1 वि (हो) व 3/1 अक (जीव) 6/1 सामण्णगुणं संपुण्णं श्रमणता-गुण पूर्ण होता है जीव का होदि जीवस्स अन्वय- जह आवासं इच्छसि अप्पसहावेसु थिरभावं कुणदि तेण दु जीवस्स सामण्णगुणं संपुण्णं होदि। अर्थ- जैसे (यदि) (तुम) (ध्यान स्वरूप) आवश्यक को चाहते हो तो (तुम) आत्म-स्वभाव में स्थिरभाव (करो), (क्योंकि) (जो स्थिरभाव) करता है (तो) उससे (उस) जीव का श्रमणता-गुण पूर्ण होता है। नियमसार (खण्ड-2) (89) Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148. आवासएण हीणो पन्भट्टो होदि चरणदो समणो। पुव्वुत्तकमेण पुणो तम्हा आवासयं कुज्जा॥ आवासएण हीणो पब्भट्टो होदि चरणदो समणो (आवासअ) 3/1 वि आवश्यक से (हीण) 1/1 वि रहित (पब्भट्ट) भूकृ 1/1 अनि दूषित . (हो) व 3/1 अक होता है (चरण) 5/1 चारित्र से (समण) 1/1 [(पुव्व) वि-(उत्तकमेण)] [(पुव्व) वि (उत्त) भूकृ अनि- पूर्व में कही गई (कम) 3/1] रीति से श्रमण पुव्वुत्तकमेण अव्यय चूँकि पुणो तम्हा आवासयं अव्यय (आवासय) 2/1 वि (कु) विधि 3/1 सक इसलिए आवश्यक करे कुज्जा अन्वय- पुणो आवासएण हीणो समणो चरणदो पन्भट्टो होदि तम्हा पुव्वुत्तकमेण आवासयं कुज्जा। अर्थ- चूँकि (ध्यान स्वरूप) आवश्यक से रहित श्रमण चारित्र से दूषित होता है, इसलिए (वह) पूर्व में कही गई रीति से आवश्यक (आत्म-स्वभाव में स्थिरभाव) करे। 1. छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'चरणादो' का 'चरणदो' किया गया है। (90) नियमसार (खण्ड-2) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 149. आवासएण जुत्तो समणो सो होदि अंतरंगप्पा । आवासयपरिहीणो समणो सो होदि बहिरप्पा ॥ आवासएण जुत्तो समणो सो होदि अंतरंगप्पा आवासयपरिहीणो समणो सो होदि बहिरप्पा (आवासअ) 3/1 वि (जुत्त) भूक 1 / 1 अनि ( समण) 1 / 1 (त) 1 / 1 सवि (हो) व 3/1 अक (अंतरंगप्प) 1 / 1 [(आवासय) वि- (परिहीण) भूकृ 1/1 अनि] ( समण) 1 / 1 (त) 1/1 सवि (हो) व 3/1 अक (बहिरप्प) 1/1 आवश्यक से युक्त श्रमण वह होता है अन्तरात्मा आवश्यक से ही श्रमण वह होता है बहिरात्मा अन्वय- आवासएण जुत्तो समणो सो अंतरंगप्पा होदि आवासय परिहीणो समणो सो बहिरप्पा होदि । अर्थ- आवश्यक से युक्त (जो ) श्रमण ( है ) वह अन्तरात्मा होता है (और) आवश्यक से हीन (जो ) श्रमण ( है ) वह बहिरात्मा होता है । नियमसार (खण्ड-2) (91) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150. अंतरबाहिरजप्पे जो वइ सो हवेइ बहिरप्पा। जप्पेसु जो ण वइ सो उच्चइ अंतरंगप्पा॥ अंतरबाहिरजप्पे अंतरंग और बाह्य जल्प में क्रियाशील होता है वह बहिरप्पा जप्पेसु [(अंतर) वि-(बाहिर) वि- (जप्प) 7/1] (ज) 1/1 वि (वट्ट) व 3/1 अक (त) 1/1 सवि (हव) व 3/1 अक (बहिरप्प) 1/1 (जप्प) 7/2 (ज) 1/1 वि अव्यय (वट्ट) व 3/1 अक (त) 1/1 सवि (उच्चइ) व कर्म 3/1 अनि (अंतरंगप्प) 1/1 होता है बहिरात्मा जल्पों में जो नहीं क्रियाशील होता है वह कहा जाता है उच्चइ अंतरंगप्पा अन्तरात्मा अन्वय- जो अंतरबाहिरजप्पे वट्टइ सो बहिरप्पा हवेइ जो जप्पेसु ण वइ सो अंतरंगप्पा उच्चड़। ___ अर्थ- जो (साधु) अंतरंग और बाह्य जल्प (कथन/उक्ति) में क्रियाशील होता है वह बहिरात्मा होता है (और) जो (साधु) (अंतरंग और बाह्य) जल्पों में क्रियाशील नहीं होता है वह अन्तरात्मा कहा जाता है। (92) नियमसार (खण्ड-2) Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 151. जो धम्मसुक्कझाणम्हि परिणदो सो वि अंतरंगप्पा । झाणविहीणो समणो बहिरप्पा इदि विजाणीहि ।। जो धम्मसुक्कझाणम्हि परिणदो सो 卡布 वि अंतरंगप्पा झाणविहीणो समणो बहरप्पा इदि विजाणीहि ' 1. (ज) 1 / 1 सवि जो [ ( धम्म ) - (सुक्कझाण) 7/1] धर्मध्यान और शुक्लध्यान में पूर्ण विकसित (परिणद) भूक 1 / 1 अनि (त) 1 / 1 सवि अव्यय (अंतरंगप्प) 1 / 1 [(झाण) - (विहीण) 1/1 fa] ( समण) 1 / 1 (बहिरप्प) 1 / 1 अव्यय (विजाण) विधि 2 / 1 सक नियमसार ( खण्ड - 2) वह भी प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पिशल, पृष्ठ 691 अन्तरात्मा ध्यानरहित अन्वय- जो धम्मसुक्कझाणम्हि परिणदो सो वि अंतरंगप्पा झाणविहीणी समणो बहिरप्पा इदि विजाणीहि । अर्थ - जो ( श्रमण ) धर्मध्यान और शुक्लध्यान में पूर्ण विकसित (होता है) वह भी अन्तरात्मा (होता है)। ध्यानरहित श्रमण बहिरात्मा (होता है)। (तुम) जानो । श्रमण बहिरात्मा शब्दस्वरूपद्योतक जानो (93) Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152. पडिकमणपहुदिकिरियं कुव्वंतो णिच्छयस्स चारित्त। तेण दु विरागचरिए समणो अब्भुट्ठिदो होदि॥ . पडिकमणपहुदि- [(पडिकमण)-(पहुदि) वि- प्रतिक्रमण आदि किरियं (किरिया) 2/1] किरिया को कुव्वंतो (कुव्व) वकृ 1/1 करता हुआ . णिच्छयस्स (णिच्छय) 6/1+2/1 वि निश्चय चारित्तं (चारित्त) 2/1 चारित्र को अव्यय इसलिए पादपूरक विरागचरिए [(विराग) वि-(चरिअ) 7/1] वीतराग चारित्र में समणो (समण) 1/1 श्रमण अब्भुट्टिदो (अब्भुट्टिद) भूकृ 1/1 अनि उन्नत (हो) व 3/1 अक होता है तेण अव्यय होदि अन्वय- पडिकमणपहुदिकिरियं कुव्वंतो णिच्छयस्स चारित्तं तेण दु समणो विरागचरिए अब्भुट्टिदो होदि। ___अर्थ- (चूँकि) (श्रमण) प्रतिक्रमण आदि क्रिया को करता हुआ निश्चय (अंतरंग) चारित्र को (प्राप्त करता है)। इसलिए (वह) श्रमण वीतराग चारित्र में उन्नत होता है। 1. कोश में ‘णिच्छय' शब्द पुल्लिंग है । यहाँ विशेषण की तरह प्रयुक्त हुआ है। कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-134) (94) नियमसार (खण्ड-2) Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 153. वयणमयं पडिकमणं वयणमयं पच्चक्खाण णियमंच। आलोयण वयणमयं तं सव्वं जाण सज्झाय।। वचनमय वयणमयं पडिकमणं प्रतिक्रमण वचनमय वयणमयं *पच्चक्खाण णियमं प्रत्याख्यान नियम 'और (वयणमय) 2/1 वि (पडिकमण) 2/1 (वयणमय) 2/1 वि (पच्चक्खाण) 2/1 (णियम) 2/1 अव्यय (आलोयण) 2/1 (वयणमय) 2/1 वि (त) सवि 2/1 (सव्व) सवि 2/1 (जाण) विधि 2/1 (सज्झाय) 2/1 *आलोयण वयणमयं आलोचना वचनमय उस सव्वं सबको जाण जानो सज्झायं स्वाध्याय अन्वय- वयणमयं पडिकमणं वयणमयं पच्चक्खाण णियमंच वयणमयं आलोयण तं सव्वं सज्झायं जाण। अर्थ- वचनमय प्रतिक्रमण, वचनमय प्रत्याख्यान, (वचनमय) नियम और वचनमय आलोचना उस सबको (तुम) स्वाध्याय जानो। प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) नियमसार (खण्ड-2) (95) Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154. जदि सक्कदि काएं जे पडिकमणादिं करेज्ज झाणमयं। सत्तिविहीणो जा जइ सहहणं चेव कायव्व।। यदि जदि सक्कदि पडिकमणादिं अव्यय (सक्क) व 3/1 अक समर्थ होता है (का) हेक करने के लिए . अव्यय पादपूरक [(पडिकमण)+(आदि)] [(पडिकमण)-(आदि) 2/1] प्रतिक्रमण आदि (कर) विधि 3/1 सक करे (झाणमय) 2/1 वि ध्यानमय [(सत्ति)-(विहीण) शक्तिरहित 1/1 वि] अव्यय जब तक करेज्ज झाणमयं सत्तिविहीणो जा जइ अव्यय यदि श्रद्धान सद्दहणं चेव (सद्दहण) 1/1 अव्यय (का) विधिकृ 1/1 कायव्वं किया जाना चाहिये अन्वय- जदि पडिकमणादि कादं जे सक्कदि झाणमयं करेज्ज जा जइ सत्तिविहीणो सहहणं चेव कायव्वं। __ अर्थ- यदि (कोई) प्रतिक्रमण आदि करने के लिए समर्थ है (तो) (वह) ध्यानमय (प्रतिक्रमण) करे। जब तक यदि (कोई) शक्तिरहित (है) (तब तक) श्रद्धान ही किया जाना चाहिये। (96) नियमसार (खण्ड-2) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 155. जिणकहियपरमसुत्ते पडिकमणादिय परीक्खऊण फुडं। मोणव्वएण जोई णियकज्जं साहए णिच्च॥ जिणकहियपरमसुत्ते [(जिण)-(कहिय) भूकृ- जिनेन्द्रदेव द्वारा कहे (परम) वि-(सुत्त) 7/1] गये प्राथमिक/प्रधान सूत्र में पडिकमणादिय* [(पडिकमण)+(आदि)] [(पडिकमण)-(आदिय) 2/1] प्रतिक्रमण आदि 'य' स्वार्थिक परीक्खऊण (परीक्ख) संकृ परीक्षा करके अव्यय प्रकटरूप से मोणव्वएण [(मोण)-(व्वय) 3/1] मौनव्रत से (जोइ) 1/1 योगी [(णिय) वि-(कज्ज) 2/1] निजकार्य को (साह) व 3/1 सक संपन्न करता है णिच्चं अव्यय जोई णियकज्ज साहए सदैव . अन्वय- जिणकहियपरमसुत्ते पडिकमणादि य फुडं परीक्खऊण जोई मोणव्वएण णियकज्जं णिच्चं साहए। ___ अर्थ- जिनेन्द्रदेव द्वारा कहे गये प्राथमिक/प्रधान सूत्र (परमागम) में (दिए गए) प्रतिक्रमण आदि की प्रकटरूप से परीक्षा करके योगी मौनव्रत से (नियम से किये जानेवाले) निजकार्य को सदैव संपन्न करता है। प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) नियमसार (खण्ड-2) (97) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156. णाणाजीवा णाणाकम्मंणाणाविहं हवे लद्धी। तम्हा वयणविवादं सगपरसमएहिं वज्जिज्जो। णाणाजीवा णाणाकम्म णाणाविहं लद्धी तम्हा वयणविवादं सगपरसमएहिं (णाणाजीव) 1/2 अनेक प्रकार के जीव (णाणाकम्म) अनेक प्रकार के कर्म 2/1-1/2] (णाणाविहा) 2/1-1/2 वि अनेक प्रकार की (हव) व 3/2 अक होती हैं (लद्धि) 1/2 लब्धियाँ अव्यय इसलिए [(वयण)-(विवाद) 2/1] शब्द-विवाद [(सग) वि-(पर) वि- स्व और परसिद्धान्त (समअ) 3/1+7/1] (के विषय) में (वज्जिज्ज) विधिकृ 1/1 अनि छोड़ देना चाहिये वज्जिज्जो अन्वय- णाणाजीवा णाणाकम्मं लद्धी णाणाविहं हवे तम्हा सगपरसमएहिं वयणविवादं वज्जिज्जो। __ अर्थ- जीव अनेक प्रकार के (हैं) (उनके) कर्म अनेक प्रकार के (हैं) (तथा) (उनके) लब्धियाँ अनेक प्रकार की होती हैं। इसलिए (परमार्थ में लगे हुए साधक को) स्व और परसिद्धान्त (के विषय) में (लोगों के साथ) शब्द-विवाद छोड़ देना चाहिये। णाणा- समास के आरंभ में विशेषण के रूप में प्रयोग होता है। प्रथमा विभक्ति के स्थान पर कभी-कभी द्वितीया विभक्ति होती है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137 वृत्ति) कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) (98) नियमसार (खण्ड-2) Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 157. लम॑णं णिहि एक्को तस्स फलं अणुहवेइ सुजणत्ते। तह णाणी णाणणिहिं भुंजेइ चइत्तु परतत्ति।। लभ्रूणं *णिहि एक्को पाकर निधि कोई तस्स उसके परिणाम अणुहवेइ (लणं) संकृ अनि (णिहि) 2/1 (एक्क) 1/1 वि (त) सवि 6/1 (फल) 2/1 (अणुहव) व 3/1 सक (सु-जणत्त) 7/1 अव्यय (णाणि) 1/1 वि [(णाण)-(णिहि) 2/1] (भुंज) व 3/1 सक (चअ) संकृ [(पर) वि-(तत्ति) 2/1] भोगता है मनुष्य अवस्था में । सुजणत्ते तह वैसे णाणी णाणणिहिं भुंजेइ ज्ञानी ज्ञाननिधि को भोगता है छोड़कर पर से उत्पन्न तुष्टि को चइत्तु परतत्तिं अन्वय- एक्को णिहि लणं तस्स फलं सुजणत्ते अणुहवेइ तह णाणी परतत्तिं चइत्तु णाणणिहिं भुंजेइ। __ अर्थ- (जैसे) कोई (व्यक्ति) (बाह्य) निधि को पाकर उसके परिणाम को मनुष्य अवस्था में भोगता है वैसे ही ज्ञानी पर से उत्पन्न तुष्टि को छोड़कर (अंतरंग) ज्ञाननिधि को (मनुष्य अवस्था में) भोगता है। प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) संपादक द्वारा अनूदित नोटः नियमसार (खण्ड-2) (99) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158. सव्वे पुराणपुरिसा एवं आवासयं य काऊण। अपमत्तपहुदिठाणं पडिवज्ज य (पडिवज्जिय) केवली जादा॥ सव्वे सभी पुराणपुरिसा एवं आवासयं (सव्व) 1/2 सवि [(पुराण) वि-(पुरिस) 1/2] पौराणिक पुरुष अव्यय इस प्रकार (आवासय) 2/1 वि आवश्यक को अव्यय और (का) संकृ करके [(अपमत्त) वि-(पहुदि) वि- अप्रमत्त आदि (ठाण) 2/1] गुणस्थानों को (पडिवज्ज) संकृ प्राप्त करके काऊण अपमत्तपहुदिठाणं पडिवज्ज य (पडिवज्जिय) केवली केवली (केवलि) 1/2 वि (जा) भूकृ 1/2 जादा अन्वय- सव्वे पुराणपुरिसा एवं आवासयं य काऊण अपमत्तपहुदिठाणं पडिवज्ज य (पडिवज्जिय) केवली जादा। अर्थ- सभी पौराणिक पुरुष इस प्रकार (ध्यानात्मक) आवश्यक को करके, अप्रमत्त आदि गुणस्थानों को प्राप्त करके केवली हुए। (100) नियमसार (खण्ड-2) Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धोपयोग- अधिकार ( गाथा 159 से गाथा 187 तक) Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 159. जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं। जाणदि पस्सदि जानता है देखता है सबको व्यवहारनय से सव्वं ववहारणएण केवली केवली भगवान भगवं केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण (जाण) व 3/1 सक (पस्स) व 3/1 सक (सव्व) 2/1 सवि (ववहारणअ) 3/1 (केवलि) 1/1 वि (भगव) 1/1 . (केवलणाणि) 1/1 वि (जाण) व 3/1 सक (पस्स) व 3/1 सक (णियमेण) 3/1 तृतीयार्थक अव्यय (अप्पाण) 2/1 केवलज्ञानी जानता है देखता है निश्चयनय से अप्पाणं स्व को अन्वय- ववहारणएण केवली भगवं सव्वं जाणदि पस्सदि णियमेण केवलणाणी अप्पाणं जाणदि पस्सदि। अर्थ- (चूँकि) (ज्ञान स्व-पर प्रकाशक होता है), (इसलिए) व्यवहारनय (बाह्यदृष्टि) से केवली भगवान (ज्ञान से) सब (सभी पर) को (उसके फलस्वरूप स्व को भी) जानते-देखते हैं। निश्चयनय (अन्तरदृष्टि) से केवलज्ञानी (ज्ञान से) स्व को (उसके फलस्वरूप पर को भी) जानते-देखते हैं। (कहने का अभिप्राय यह है कि पर/बाह्य से प्रारंभ करने पर स्व साथ रहेगा और स्व से प्रारंभ करे तो पर/ बाह्य साथ रहेगा। ज्ञान के स्वरूप में स्व और पर को अलग नहीं किया जा सकता नोटः संपादक द्वारा अनूदित (102) नियमसार (खण्ड-2) Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160. जुगवं वइ णाणं केवलणाणिस्स दंसणं च तहा। दिणयरपयासतावं जह वइ तह मुणेयव्व।। वट्टइ णाणं अव्यय (वट्ट) व 3/1 अक (णाण) 1/1 (केवलणाणि) 6/1 वि (दसण) 1/1 केवलणाणिस्स दसणं अव्यय एक ही साथ . विद्यमान रहता है ज्ञान केवलज्ञानी का दर्शन पादपूरक तथा सूर्य का प्रकाश और ताप जिस प्रकार विद्यमान रहता है उस प्रकार जानना चाहिए अव्यय [(दिणयर)-(पयास)(ताव) 1/1] दिणयरपयासतावं' अव्यय (वट्ट) व 3/1 अक अव्यय (मुण) विधिकृ 1/1 मुणेयव्वं अन्वय- जह दिणयरपयासतावं जुगवं वइ तह केवलणाणिस्स णाणं तहा दंसणं च वइ मुणेयव्वं। अर्थ- जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश और ताप एक ही साथ विद्यमान रहता है उस प्रकार केवलज्ञानी का ज्ञान तथा दर्शन (एक ही साथ) विद्यमान रहता है। (इस प्रकार) (यह) जानना चाहिए। 1. पुल्लिंग का नपुंसकलिंग में प्रयोग हुआ है (लिंग परिवर्तन)। नियमसार (खण्ड-2) (103) Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 161. णाणं परप्पयासं दिट्ठी अप्पप्पयासया चेव। अप्पा सपरपयासो होदि त्ति हि मण्णसे जदि हि॥ णाणं परप्पयासं दिट्ठी अप्पप्पयासया अप्पा सपरपयासो (णाण) 1/1 ज्ञान [(पर) वि-(प्पयास) 1/1 वि] पर प्रकाशक (दिट्ठि) 1/1 दर्शन [(अप्प)-(प्पयासय-प्पयासया) स्वप्रकाशक 1/1 वि अव्यय (अप्प) 1/1 आत्मा [(स) वि-(पर) वि स्वपरप्रकाशक (पयास) 1/1 वि] [(होदि) + (इति)] होदि (हो) व 3/1 अक इति (अ) = ऐसा अवयय पादपूरक (मण्ण) व 2/1 सक मानता है अव्यय यदि अव्यय पादपूरक होदि त्ति ऐसा मण्णसे जदि अन्वय- णाणं परप्पयासं चेव दिट्ठी अप्पपयासया अप्पा सपरपयासो जदि हि मण्णसे होदि ति हि। - अर्थ- ज्ञान परप्रकाशक ही (है) (और) दर्शन स्वप्रकाशक ही (है)(तथा) आत्मा स्वपरप्रकाशक है । यदि (तू) ऐसा मानता है (तो) (ठीक) (नहीं है)। 1. यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु ‘प्पयासयं' के स्थान पर 'प्पयासं' तथा पयासयो' के स्थान पर ‘पयासो' किया गया है। नियमसार (खण्ड-2) (104) Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162. णाणं परप्पयासं तइया णाणेण दंसणं भिण्णं। ण हवदि परदव्वगयं दसणमिदि वण्णिदं तम्हा॥ . ज्ञान णाणं परप्पयासं पर को प्रकाशित करनेवाला तइया णाणेण दसणं ज्ञान से दर्शन भिन्न भिण्णं हवदि (णाण) 1/1 [(पर) वि-(प्पयास) 1/1 वि] अव्यय (णाण) 3/1 (दसण) 1/1 (भिण्ण) 1/1 वि अव्यय (हव) व 3/1 अक [(पर) वि-(दव्व)(गय) भूकृ 1/1 अनि] [(दसणं)+ (इदि)] दसणं (दंसण) 1/1 इदि (अ) = (वण्ण) भूक 1/1 (त) 5/1 सवि परदव्वगयं होता है परद्रव्य में गया हुआ दसणमिदि वण्णिदं दर्शन शब्दस्वरूपद्योतक वर्णित उस कारण से तम्हा अन्वय- णाणं परप्पयासं वण्णिदं दंसणमिदि परदव्वगयं ण तम्हा तइया णाणेण दंसणं भिण्णं हवदि । अर्थ- ज्ञान (केवल) पर को प्रकाशित करनेवाला वर्णित (है) (और) दर्शन परद्रव्य में गया हुआ नहीं (है) अर्थात् पर को प्रकाशित करनेवाला नहीं है। उस कारण से तो ज्ञान से दर्शन भिन्न होता है (होगा)। 1. यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु ‘प्पयासयं' के स्थान पर 'प्पयासं' किया गया है। नियमसार (खण्ड-2) (105) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 163. अप्पा परप्पयासो तइया अप्पेण दंसणं भिण्णं। ण हवदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा॥ अप्पा परप्पयासो तइया अप्पेण आत्मा से दसणं भिण्णं भिन्न हवदि · (अप्प) 1/1 आत्मा [(पर) वि-(प्पयास) 1/1 वि] पर को प्रकाशित करनेवाला अव्यय (अप्प) 3/1 (दसण) 1/1 दर्शन (भिण्ण) 1/1 वि अव्यय नहीं (हव) व 3/1 अक होता है [(पर) वि-(दव्व)- परद्रव्य में (गय) भूक 1/1 अनि] गया हुआ [(दंसणं)+ (इदि)] दसणं (दसण) 1/1 इदि (अ) = ऐसा शब्दस्वरूपद्योतक (वण्ण) भूकृ 1/1 वर्णित (त) 5/1 सवि उस कारण से परदव्वगयं दसणमिदि दर्शन वण्णिदं तम्हा अन्वय- अप्पा परप्पयासो वण्णिदं दंसणमिदि परदव्वगयं ण तम्हा तइया अप्पेण दंसणं भिण्णं हवदि। . अर्थ- आत्मा पर को प्रकाशित करनेवाला वर्णित (है) (और) दर्शन परद्रव्य में गया हुआ नहीं (है) अर्थात् पर को प्रकाशित करनेवाला नहीं है। उस कारण से तो आत्मा से दर्शन भिन्न होता है (होगा)। 1. यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु ‘प्पयासयो' के स्थान पर 'प्पयासो' किया गया है। (106) नियमसार (खण्ड-2) Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164. णाणं परप्पयासं ववहारणयेण दंसणं तम्हा। अप्पा परप्पयासो ववहारणयेण दंसणं तम्हा॥ णाणं परप्पयासं ववहारणयेण दसणं तम्हा (णाण) 1/1 ज्ञान [(पर) वि-(प्पयास) 1/1 वि] पर को प्रकाशित करनेवाला (ववहारणय) 3/1 व्यवहारनय से (दसण) 1/1 दर्शन अव्यय इसलिए (अप्प) 1/1 आत्मा [(पर) वि-(प्पयास) 1/1 वि] पर को प्रकाशित करनेवाला (ववहारणय) 3/1 व्यवहारनय से (दसण) 1/1 दर्शन अव्यय इसलिए अप्पा परप्पयासो ववहारणयेण दसणं तम्हा अन्वय- ववहारणयेण णाणं परप्पयासं तम्हा दंसणं ववहारणयेण अप्पा परप्पयासो तम्हा दंसणं। अर्थ- व्यवहारनय (लोकदृष्टि) से ज्ञान पर को प्रकाशित करनेवाला (है), इसलिए दर्शन (भी) (पर को प्रकाशित करनेवाला है)। व्यवहारनय से आत्मा पर कों प्रकाशित करनेवाला (है) इसलिए दर्शन (भी) (पर को प्रकाशित करनेवाला 1. यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु ‘प्पयासयं' के स्थान पर 'प्पयासं' तथा 'प्पयासयो' के स्थान पर 'प्पयासो' किया गया है। नियमसार (खण्ड-2) . (107) Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 165. णाणं अप्पपयासं णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा। अप्पा अप्पपयासो णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा॥ णाणं अप्पपयासं णिच्छयणयएण दसणं तम्हा (णाण) 1/1 ज्ञान [(अप्प)-(पयास) 1/1 वि] स्व को प्रकाशित करनेवाला (णिच्छयणयअ) 3/1 निश्चयनय से . 'अ' स्वार्थिक (दसण) 1/1 दर्शन अव्यय इसलिए (अप्प) 1/1 आत्मा [(अप्प)-(पयास) 1/1 वि] स्व को प्रकाशित करनेवाला (णिच्छयणयअ) 3/1 निश्चयनय से 'अ' स्वार्थिक (दसण) 1/1 दर्शन अव्यय इसलिए अप्पा अप्पपयासो णिच्छयणयएण दसणं तम्हा अन्वय- णिच्छयणयेण णाणं अप्पपयासं तम्हा सणं णिच्छयणयेण अप्पा अप्पपयासो तम्हा दंसणं। अर्थ- निश्चयनय से (आत्मदृष्टि) ज्ञान स्व को प्रकाशित करनेवाला (है), इसलिए दर्शन (भी) (स्व को प्रकाशित करनेवाला है)। निश्चयनय से आत्मा स्व को प्रकाशित करनेवाला (है), इसलिए दर्शन (भी) (स्व को प्रकाशित करनेवाला है)। 1. यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु ‘पयासयं' के स्थान पर ‘पयासं' तथा 'पयासयो' के स्थान पर ‘पयासो' किया गया है। (108) नियमसार (खण्ड-2) Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166. अप्पसरूवं पेच्छदि लोयालोयं ण केवली भगवं। जइ कोइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ॥ अप्पसरूवं - पेच्छदि लोयालोयं आत्मा के स्वरूप को देखता है लोक-अलोक को नहीं केवली भगवं केवली भगवान यदि [(अप्प)-(सरूव) 2/1] (पेच्छ) व 3/1 सक [(लोय)-(अलोय) 2/1] अव्यय (केवलि) 1/1 वि (भगव) 1/1 अव्यय अव्यय (भण) व 3/1 सक अव्यय (त) 6/1 सवि अव्यय (किं) 1/1 सवि (दूसण) 1/1 (हो) व 3/1 अक EFE कहता है ऐसा उसका पादपूरक क्या दोष है अन्वय- केवली भगवं अप्पसरूवं पेच्छदि लोयालोयं ण जइ कोइ एवं भणइ तस्स य किं दूसणं होइ। अर्थ- केवली भगवान आत्मा के स्वरूप को देखते हैं, लोक-अलोक को (तादात्म्यरूप से स्व के समान) नहीं (देखते हैं)। यदि कोई ऐसा कहता है (तो) उसका क्या दोष है? नोटः संपादक द्वारा अनूदित नियमसार (खण्ड-2) (109) Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 167. मुत्तममुत्तं दव्वं चेयणमियरं सगं च सव्वं च। पेच्छंतस्स दु णाणं पच्चक्खमणिंदियं होइ॥ मुत्तममुत्तं मूर्त अमूर्त दव्वं - चेयणमियरं EP और [(मुत्त)+ (अमुत्त)] मुत्तं (मुत्त) 2/1 वि अमुत्तं (अमुत्त) 2/1 वि (दव्व) 2/1 द्रव्य को . [(चेयणं)+(इयरं)] चेयणं (चेयण) 2/1 चेतन इयरं (इयर) 2/1 वि अन्य (अचेतन) (सग) 2/1 वि . स्व को अव्यय (सव्व) 2/1 सवि सभी (पर) को अव्यय और (पेच्छ) वकृ 6/1 देखते हुए का अव्यय और (णाण) 1/1 ज्ञान [(पच्चक्खं)+(अणिंदियं)] पच्चक्खं (पच्चक्ख) 1/1 वि प्रत्यक्ष अणिंदियं (अणिंदिय) 1/1 वि अतीन्द्रिय (हो) व 3/1 अक होता है सव्वं पेच्छंतस्स णाणं पच्चक्खमणिंदियं अन्वय- मुत्तममुत्तं चेयणमियरं दव्वं सगं च सव्वं च पेच्छंतस्स णाणं दु पच्चक्खमणिंदियं होइ। अर्थ- मूर्त-अमूर्त, चेतन-अन्य (अचेतन) द्रव्य को, स्व को और सभी (पर) को देखते हुए (केवली) का ज्ञान प्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय (इन्द्रिय-रहित) होता है। (इसलिए केवली के लोकालोक प्रत्यक्ष होता है)। (110) नियमसार (खण्ड-2) Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168. पुव्वुत्तसयलदव्वं णाणागुणपज्जएण संजुत्तं। जो ण य पेच्छइ सम्मं परोक्खदिट्ठी हवे तस्स। पुव्वुत्तसयलदव्वं [(पुव्व) + (उत्तसयलदव्वं)] [(पुव्व) वि-(उत्त) भूक अनि- पूर्व में कहे गए समस्त (सयल) वि-(दव्व) 2/1] द्रव्य को णाणागुणपज्जएण [(णाणागुण) अनेक प्रकार की गुण (पज्जअ) 3/1] पर्यायों से संजुत्तं (संजुत्त) 1/1 वि युक्त (ज) 1/1 सवि जो 5 Fr अव्यय अव्यय पेच्छइ सम्म परोक्खदिट्ठी (पेच्छ) व 3/1 सक अव्यय [(परोक्ख)-(दिट्ठि) 1/1] (हव) व 3/1 अक (त) 6/1 सवि पादपूरक देखता है सम्यक्प्रकार से परोक्ष दर्शन होता है हवे तस्स उसके अन्वय- णाणागुणपज्जएण संजुत्तं पुव्वुत्तसयलदव्वं जो सम्मं ण य पेच्छइ तस्स परोक्खदिट्ठी हवे। अर्थ- अनेक प्रकार की गुण-पर्यायों से युक्त पूर्व में कहे गए समस्त द्रव्य (समूह) को जो सम्यक्प्रकार से नहीं देखता है उसके परोक्ष दर्शन होता है। नियमसार (खण्ड-2) (111) Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 169. लोयालोयं जाणइ अप्पाणं णेव केवली भगवं। जइ कोइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ।। लोयालोयं जाणइ अप्पाणं णेव केवली भगवं भगवान कोइ भणइ [(लोय)-(अलोय) 2/1] 'लोक-अलोक को (जाण) व 3/1 सक जानता है (अप्पाण) 2/1 आत्मा को अव्यय नहीं (केवलि) 1/1 वि केवली (भगव) 1/1 अव्यय यदि अव्यय कोई (भण) व 3/1 सक कहता है अव्यय (त) 6/1 सवि उसका अव्यय पादपूरक (किं) 1/1 सवि क्या (दूसण) 1/1 दोष (हो) व 3/1 अक तस्स अन्वय- केवली भगवं लोयालोयं जाणइ अप्पाणं णेव जइ कोइ एवं भणइ तस्स य किं दूसणं होइ। ___ अर्थ- केवली भगवान (व्यवहार/बाह्यदृष्टि से) लोक-अलोक को जानते हैं (किन्तु) (व्यवहार/बाह्यदृष्टि से) (अपनी) आत्मा को नहीं (जानते हैं)। यदि कोई ऐसा कहता है (तो) उसका क्या दोष है? (112) नियमसार (खण्ड-2) Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170. णाणं जीवसरूवं तम्हा जाणेइ अप्पगं अप्पा । अप्पाणं ण वि जाणदि अप्पादो होदि विदिरित्तं ।। णणं जीवसरूवं तम्हा जाणे अप्पगं अप्पा अप्पाणं ण वि जादि अप्पादो होदि विदिरित्तं' 1. ( णाण) 1 / 1 [ (जीव ) - ( सरूव) 1 / 1] अव्यय (जाण) व 3 / 1 सक (अप्प ) 2/1 'ग' स्वार्थिक ( अप्प ) 1 / 1 ( अप्पाण) 2 / 1 अव्यय अव्यय (जाण) व 3 / 1 सक (अप्प ) 5 / 1 (हो) व 3/1 अक (विदिरित्त ) 1 / 1 वि नियमसार (खण्ड-2) 'विदिरित्त' के स्थान पर 'वदिरित्तं' होना चाहिए । ज्ञान आत्मा का स्वरूप इसलिए जानता है आत्मा को अन्वय- जीवसरूवं णाणं तम्हा अप्पा अप्पगं जाणेइ अप्पाणं ण वि जाणदि अप्पादा विदिरित्तं होदि । अर्थ - आत्मा का स्वरूप ज्ञान (है) इसलिए आत्मा आत्मा को जानता है । (यदि) (ज्ञान) आत्मा को नहीं जानता है (तो) (वह) आत्मा से भिन्न होता है अर्थात् भिन्न सिद्ध होगा। आत्मा आत्मा को नहीं पादपूरक जानता है आत्मा से होता है भिन्न (113) Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 171. अप्पाणं विणु णाणं णाणं विणु अप्पगो ण संदेहो। तम्हा सपरपयासं गाणं तह दंसणं होदि।। अप्पाणं आत्मा को जानो विणु णाण ज्ञान णाण विणु ज्ञान जानो अप्पगो आत्मा (अप्पाण) 2/1 (विण) विधि 2/1 सक (अपभ्रंश) (णाण) 2/1 (णाण) 1/1 (विण) विधि 2/1 सक (अपभ्रंश) (अप्पग) 1/1 . 'ग' स्वार्थिक अव्यय (संदेह) 1/1 अव्यय [(स) वि-(पर) वि(पयास) 1/1 वि] (णाण) 1/1 अव्यय (दसण) 1/1 (हो) व 3/1 अक संदेहो तम्हा सपरपयासं नहीं संदेह इसलिए स्व-परप्रकाशक ज्ञान णाणं तह तथा दर्शन दसणं होदि अन्वय- अप्पाणं णाणं विणु विणु णाणं अप्पगो संदेहो ण तम्हा णाणं तह दंसणं सपरपयासं होदि। अर्थ- आत्मा को ज्ञान जानो (और) जानो (कि) ज्ञान आत्मा (है) (इसमें) संदेह नहीं (है)। इसलिए ज्ञान तथा दर्शन स्व-परप्रकाशक है। . 1. यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु पयासयं' के स्थान पर ‘पयासं' किया गया है। (114) नियमसार (खण्ड-2) Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172. जाणतो पस्संतो ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो। केवलणाणी तम्हा तेण दु सोऽबंधगो भणिदो॥ का जाणतो पस्संतो ईहापुव्वं नहीं होइ केवलिणो केवलणाणी तम्हा (जाण) वकृ 1/1 जानते हुए (पस्स) वकृ 1/1 देखते हुए [(ईहा)-(पुव्व)' 1/1 वि] इच्छा से युक्त अव्यय (हो) व 3/1 अक होता है (केवलि) 6/1 वि केवली के (केवलणाणि) 1/1 वि केवलज्ञानी अव्यय इसलिए अव्यय इस कारण अव्यय पादपूरक [(सो)+(अबंधगो)] सो (त) 1/1 सवि वह अबंधगो (अबंधग) 1/1 वि अबंधक 'ग' स्वार्थिक (भण) भूकृ 1/1 कहा गया तेण सोऽबंधगो भणिदो अन्वय-जाणंतो पस्संतो केवलिणो ईहापुव्वं ण होइ तम्हा केवलणाणी तेण दु सोऽबंधगो भणिदो। अर्थ- जानते हुए (और) देखते हुए (भी) केवली के इच्छा से युक्त (वर्तन) नहीं होता, इसलिए (वह) केवलज्ञानी (है)। इस कारण वह (कर्म का) अबंधक (भी) कहा गया (है)। 1. समास के अन्त में होने से यहाँ 'पुव्व' का अर्थ है 'से युक्त'। नियमसार (खण्ड-2) (115) Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 173. परिणामपुव्ववयणं जीवस्स य बंधकारणं होइ। परिणामरहियवयणं तम्हा णाणिस्स ण हि बंधो॥ परिणामपुव्ववयणं [(परिणाम)-(पुव्व) वि (वयण) 1/1] जीवस्स (जीव) 6/1 फल की आकांक्षा से युक्त वचन जीव के . अव्यय पादपूरक बंध का कारण बंधकारणं होइ परिणामरहियवयणं [(बंध)-(कारण) 1/1] (हो) व 3/1 अक [(परिणाम)-(रहिय) वि(वयण) 1/1] अव्यय (णाणि) 6/1 वि तम्हा णाणिस्स फल की आकांक्षा रहित वचन इसलिए केवलज्ञानी के नहीं निस्सन्देह बंध अव्यय अव्यय (बंध) 1/1 अन्वय-परिणामपुव्ववयणं जीवस्स य बंधकारणं होइ णाणिस्स परिणामरहियवयणं तम्हा हि ण बंधो। अर्थ- फल की आकांक्षा से युक्त वचन जीव के बंध का कारण है। केवलज्ञानी के वचन फल की आकांक्षा-रहित (होते हैं)। इसलिए निस्सन्देह (केवलज्ञानी के) (कर्म) बंध नहीं (होता है)। (116) नियमसार (खण्ड-2) Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174. ईहापुव्वं वयणं जीवस्स य बंधकारणं होइ। ईहारहियं वयणं तम्हा णाणिस्स ण हि बंधो। ईहापुव्वं' वयणं जीवस्स बंधकारणं [(ईहा)-(पुव्व) 1/1 वि] (वयण) 1/1 (जीव) 6/1 अव्यय [(बंध)-(कारण) 1/1] (हो) व 3/1 अक [(ईहा)-(रहिय) 1/1 वि] (वयण) 1/1 अव्यय (णाणि) 1/1 वि होइ इच्छा से युक्त वचन जीव के पादपूरक बंध का कारण होता है इच्छारहित वचन इसलिए केवलज्ञानी के नहीं निस्सन्देह ईहारहियं वयण तम्हा णाणिस्स अव्यय वि अव्यय (बंध) 1/1 बंध अन्वय- ईहापुव्वं वयणं जीवस्स य बंधकारणं होइ णाणिस्स वयणं ईहारहियं तम्हा हि ण बंधो। · अर्थ- इच्छा से युक्त वचन जीव के बंध के कारण होता है। केवलज्ञानी के वचन इच्छारहित (होते हैं), इसलिए निस्सन्देह (केवलज्ञानी के) (कर्म) बंध नहीं (होता है)। 1. समास के अन्त में होने से यहाँ 'पुव्व' का अर्थ है ‘से युक्त' । नियमसार (खण्ड-2) (117) Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 175. ठाणणिसेज्जविहारा ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो। तम्हा ण होइ बंधो साक्खहँ मोहणीयस्स। खड़ा रहना,बैठना और विहार करना इच्छा से युक्त नहीं होता है । केवली का इसलिए होइ तम्हा ठाणणिसेज्जविहारा [(ठाण)-(णिसेज्ज) (विहार) 1/2] ईहापुव्वं [(ईहा)-(पुव्व) 1/1 वि] अव्यय (हो) व 3/1 अक केवलिणो (केवलि) 6/1 वि अव्यय अव्यय होइ (हो) व 3/1 अक बंधो (बंध) 1/1 साक्खटुं [(स)+(अक्ख)+(अट्ठ)] [(स)वि-(अक्ख) (अट्ठ)1/1] मोहणीयस्स (मोहणीय) 6/1-5/1 नहीं होता है बंध इन्द्रियविषय-सहित मोहनीय कर्म के कारण अन्वय- केवलिणो ठाणणिसेज्जविहारा ईहापुव्वं ण होइ तम्हा बंधो ण होइ मोहणीयस्स साक्खट्ठा अर्थ- केवली का खड़े रहना, बैठना और विहार करना इच्छा से युक्त नहीं होता है, इसलिए (उनके) (कर्म) बंध नहीं होता है। मोहनीय कर्म के कारण (संसारी जीव के) इन्द्रियविषय (तृष्णा)-सहित होता है। (इसलिए कर्मबंध होता है)। 1. समास के अन्त में होने से यहाँ 'पुव्व' का अर्थ है ‘से युक्त'। कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-134) कारण अर्थ में तृतीया या पंचमी विभक्ति का प्रयोग होता है। (प्राकृत-व्याकरण,पृष्ठ 42) (118) नियमसार (खण्ड-2) Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176. आउस्स खयेण पुणो णिण्णासो होइ सेसपयडीणं। पच्छा पावइ सिग्धं लोयग्गं समयमेत्तेण॥ आउस्स आयुकर्म के क्षय के कारण खयेण फिर पुणो णिण्णासो होइ सेसपयडीणं पच्छा पावइ सिग्धं लोयग्गं समयमेत्तेण (आउ) 6/1 (खय) 3/1 अव्यय (णिण्णास) 1/1 (हो) व 3/1 अक [(सेस) वि-(पयडि) 6/2] अव्यय (पाव) व 3/1 सक अव्यय (लोयग्ग) 2/1 [(समय)-(मेत्त) 3/1→7/1] विनाश होता है शेष प्रकृतियों का अनन्तर प्राप्त करता है शीघ्रता से लोक के अग्रभाग को समयमात्र में अन्वय- पुणो आउस्स खयेण सेसपयडीणं णिण्णासो होइ पच्छा सिग्धं समयमेत्तेण लोयग्गं पावइ। अर्थ- फिर आयुकर्म के क्षय के कारण शेष (कर्म) प्रकृतियों का क्षय हो जाता है अनन्तर (वे केवली) शीघ्रता से समयमात्र में लोक के अग्रभाग को प्राप्त करते हैं। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) नियमसार (खण्ड-2) (119) Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 177. जाइजरमरणरहियं परमं कम्मट्ठवज्जियं सुद्ध। णाणाइचउसहावं अक्खयमविणासमच्छेयं। जाइजरमरणरहियं [(जाइ)-(जरा-जर)- जन्म-जरा-मरण से (मरण)-(रहिय) 1/1 वि] रहित परमं (परम) 1/1 वि सर्वोत्तम कम्मढ़वज्जियं [(कम्म)-(अट्ठ) वि आठ कर्मों से । (वज्जिय) 1/1 वि] रहित सुद्धं (सुद्ध) 1/1 वि णाणाइचउसहावं [(णाण)+(आइचउसहावं)] [(णाण)-(आइ)- ज्ञानादि चार (चउ) वि-(सहाव) 1/1 वि] स्वभाववाले अक्खयमविणास- [(अक्खयं)+(अविणासं)+ मच्छेयं (अच्छेयं)] अक्खयं (अक्खय) 1/1 वि अक्षय अविणासं (अविणास) 1/1 वि अविनाशी अच्छेयं (अच्छेय) 1/1 वि अखण्डित अन्वय- जाइजरमरणरहियं परमं कम्मट्टवज्जियं सुद्धं णाणाइचउसहावं अक्खयमविणासमच्छेयं। अर्थ- (वह सिद्ध परमात्मा) जन्म-जरा-मरण से रहित, सर्वोत्तम, आठ कर्मों से रहित, शुद्ध, ज्ञानादि चार स्वभाववाले, अक्षय, अविनाशी और अखण्डित (है)। 1. 2. (120) यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'जरा' का 'जर' किया गया है। अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीर्य। नियमसार (खण्ड-2) Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178. अव्वाबाहमणिंदियमणोवमं पुण्णपावणिम्मुक्कं। पुणरागमणविरहियं णिच्चं अचलं अणालंब।। अव्वाबाहमणिंदिय- [(अव्वाबाह)+(अणिंदियं)+ मणोवमं (अणोवमं)] अव्वाबाहं (अव्वाबाह)1/1 वि अनन्तसुखस्वरूप अणिदियं (अणिदिय) 1/1 वि अतीन्द्रिय अणोवमं (अणोवम) 1/1 वि अनुपम पुण्णपावणिम्मुक्कं [(पुण्ण)-(पाव)- पुण्य-पाप से (णिम्मुक्क) 1/1 वि] रहित पुणरागमणविरहियं [(पुनरागमण) पुनरागमन से (विरहिय) 1/1 वि णिच्चं (णिच्च) 1/1 वि अचलं (अचल) 1/1 वि अचल अणालंब (अणालंब) 1/1 वि अनालंब रहित नित्य • अन्वय-अव्वाबाहमणिदियमणोवमं पुण्णपावणिम्मुक्कं पुणरागमणविरहियं णिच्चं अचलं अणालंब। अर्थ- (वह सिद्ध परमात्मा) अनन्तसुखस्वरूप, अतीन्द्रिय, अनुपम, पुण्य-पाप से रहित, पुनरागमन से रहित, नित्य, अचल और अनालंब (है)। नियमसार (खण्ड-2) (121) Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 179 णवि दुक्खं णवि सुक्खं णवि पीडा णेव विज्जदे बाहा। णवि मरणं णवि जणणं तत्थेव य होइ णिव्वाणं ।। णवि दुक्खं णवि 誓愿管属管长管 सुक्ख वि पीडा व विज्जदे बाहा णवि मरणं णवि जणणं तत्थेव य होइ णिव्वाणं 하 अव्यय (दुक्ख ) 1 / 1 अव्यय (सुक्ख) 1 / 1 अव्यय ( पीडा ) 1 / 1 अव्यय (विज्ज) व 3 / 1 अक ( बाहा) 1 / 1 अव्यय ( मरण) 1 / 1 अव्यय ( जणण) 1 / 1 [ ( तत्थ) + (एव) ] तत्थ (अ)= वहाँ एव (अ) = ही अव्यय (हो) व 3/1 अक ( णिव्वाण) 1 / 1 t दुख न सुख न पीड़ा न होती है बाधा न मरण न जन्म वहाँ ही पादपूरक होता है निर्वाण अन्वय- वि दुक्खं वि सुक्खं णवि पीडा णेव बाहा विज्जदे य वि मरणं णवि जणणं तत्थेव णिव्वाणं हो । अर्थ - (जहाँ) अर्थात् जिस आत्मा दुख (है), न सुख (है), न पीड़ा (है), न बाधा होती है और न मरण ( है ), न जन्म (है) वहाँ ही (वह अवस्था ही) निर्वाण होता है / होती है। (122) नियमसार (खण्ड -2) Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180. णवि इंदिय उवसग्गा णवि मोहो विम्हिओ ण णिहा या __ण य तिण्हा व छुहा तत्थेव य होइ णिव्वाण।। इन्द्रियाँ उपसर्ग णवि * इंदिय उवसग्गा णवि मोहो विम्हिओ मोह आश्चर्य ण न णिद्दा निद्रा और अव्यय (इंदिय) 1/2 (उवसग्ग) 1/2 अव्यय (मोह) 1/1 (विम्हिअ) 1/1 अव्यय (णिद्दा) 1/1 अव्यय अव्यय अव्यय (तिण्हा) 1/1 अव्यय (छुहा) 1/1 [(तत्थ) + (एव)] तत्थ (अ)= वहाँ एव (अ) = ही अव्यय (हो) व 3/1 अक (णिव्वाण) 1/1 पादपूरक तृषा तिण्हा णेव छुहा तत्थेव क्षुधा वहाँ ही पादपूरक होता है निर्वाण होइ णिव्वाणं अन्वय- णवि इंदिय उवसग्गा णवि मोहो विम्हिओ ण णिहा य ण य तिण्हा णेव छुहा तत्थेव य णिव्वाणं होइ। अर्थ- (जहाँ) अर्थात जिस परम आत्मा में न इन्द्रियाँ (हैं), (न) उपसर्ग (है), न मोह (है), (न) आश्चर्य (है), न निद्रा (है) और न तृषा (है), न क्षुधा (है) वहाँ ही (वह अवस्था ही) निर्वाण होता है/होती है। प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) नियमसार (खण्ड-2) (123) Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 181. णवि कम्मं णोकम्मंणवि चिंता णेव अहरुबाणि। णवि धम्मसुक्कझाणे तत्थेव य होइ णिव्वाणं॥ णवि कम्म णोकम्म णवि ___कर्म नोकर्म चिंता णेव अट्टद्दाणि णवि धम्मसुक्कझाणा' तत्थेव अव्यय (कम्म) 1/1 (णोकम्म) 1/1 अव्यय (चिंता) 1/1 चिन्ता अव्यय [(अट्ट)-(रुद्द) 1/2] आर्त और रौद्रध्यान अव्यय [(धम्म)-(सुक्कझाण) 1/2] धर्म और शुक्लध्यान [(तत्थ)+ (एव)] तत्थ (अ)= वहाँ एव (अ) = ही अव्यय पादपूरक . (हो) व 3/1 अक होता है (णिव्वाण) 1/1 निर्वाण वहाँ य णिव्वाणं अन्वय- णवि कम्मं णोकम्मं णवि चिंता णेव अहरुद्दाणि य णवि धम्मसुक्कझाणे तत्थेव णिव्वाणं होइ। अर्थ- (जहाँ) अर्थात् जिस परम आत्मा में न कर्म (है) (न) नोकर्म (है), न चिन्ता (है), न आर्त और रौद्र ध्यान (है) तथा न धर्म और शुक्ल ध्यान (है) वहाँ ही (वह अवस्था ही) निर्वाण होता है/होती है। 1. यहां ‘धम्मसुक्कझाणे' के स्थान पर धम्मसुक्कझाणा' पाठ होना चाहिए। (124) नियमसार (खण्ड-2) Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182. विज्जदि केवलणाणं केवलसोक्खं च केवलं विरियं। केवलदिट्ठि अमुत्तं अत्थित्तं सप्पदेसत्त।। विज्जदि केवलणाणं केवलसोक्खं होता है केवलज्ञान केवलसुख (विज्ज) व 3/1 अक (केवलणाण) 1/1 (केवलसोक्ख) 1/1 अव्यय (केवल) 1/1 वि (वीरिय-विरिय) 1/1 (केवलदिट्ठि) 1/1 (अमुत्त) 1/1 वि (अत्थित्त) 1/1 (स-प्पदेसत्त) 1/1 वि और केवल वीर्य केवलदर्शन केवलं विरियं केवलदिट्टि अमुत्तं अत्थित्तं सप्पदेसत्तं अमूर्त सत्ता प्रदेशता-युक्त अन्वय- केवलणाणं केवलदिहि केवलसोक्खं च केवलं विरियं अमुत्तं अत्थित्तं सप्पदेसत्तं विज्जदि। अर्थ- (सिद्ध भगवान के) केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख और केवलवीर्य होता है। (वे) अमूर्त (और) प्रदेशता-युक्त (होते हैं) (तथा) (वे) सत्ता (धारण किए हुए हैं)। 1. यहां छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु ‘वीरिय' का 'विरिय' किया गया है। * प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) नियमसार (खण्ड-2) (125) Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 183. णिव्वाणमेव सिद्धा सिद्धा णिव्वाणमिदि समुट्ठिा। . कम्मविमुक्को अप्पा गच्छइ लोयग्गपज्जंत॥ सिद्धा णिव्वाणमेव [(णिव्वाणं)+(एव)] णिव्वाणं (णिव्वाण) 1/1 निर्वाण एव (अ) = ही (सिद्ध) 1/1 वि (अपभ्रंश) सिद्ध सिद्धा (सिद्ध) 1/1 वि (अपभ्रंश) सिद्ध णिव्वाणमिदि [(णिव्वाणं)+(इदि)] णिव्वाणं (णिव्वाण) 1/1 निर्वाण इदि (अ) = इस प्रकार इस प्रकार समुट्ठिा (समुद्दिठ्ठ)भूकृ 1/1 अनि(अपभ्रंश) कही गई कम्मविमुक्को [(कम्म)-(विमुक्क) कर्म से भूक 1/1 अनि] मुक्त/छूटा हुआ (अप्प) 1/1 आत्मा (गच्छ) व 3/1 सक जाता है लोयग्गपज्जतं (लोयग्ग)-(पज्जंत) 2/1 वि] लोक के अग्रभाग पर्यन्त अन्वय- णिव्वाणमेव सिद्धा समुद्दिट्ठा सिद्धा णिव्वाणमिदि कम्मविमुक्को अप्पा लोयग्गपज्जतं गच्छइ। अर्थ- निर्वाण ही सिद्ध (अवस्था) कही गई (है) (और) (कही गई) सिद्ध (अवस्था ही) निर्वाण (है)। कर्म से मुक्त/छूटा हुआ आत्मा लोक के अग्रभाग पर्यन्त जाता है (और) इस प्रकार (वह आत्मा सिद्ध समझा जाता है)। नोटः संपादक द्वारा अनूदित अप्पा गच्छइ (126) नियमसार (खण्ड-2) Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184. जीवाण पुग्गलाणं गमणं जाणेहि जाव धम्मत्थी। धम्मत्थिकायभावे तत्तो परदो ण गच्छंति॥ जीवाण जीवों का पुद्गलों का पुग्गलाणं (जीव) 6/2 (पुग्गल) 6/2 (गमण) 2/1 (जाण) विधि 2/1 सक गमण गमन जाणेहि जाव अव्यय जानो जहाँ तक धर्मास्तिकाय धर्मास्तिकाय के धम्मत्थी (धम्मत्थि) 1/1 धम्मत्थिकायभावे [(धम्मत्थिकाय)-(अभाव) 7/1] (त) 5/1 सवि परदो अव्यय अभाव में उससे आगे अव्यय नहीं जाते हैं गच्छंति (गच्छ) व 3/2 सक • अन्वय- जाव धम्मत्थी जीवाण पुग्गलाणं गमणं जाणेहि धम्मत्थिकायभावे तत्तो परदो ण गच्छंति। अर्थ- जहाँ तक धर्मास्तिकाय है (वहाँ तक) जीव और पुद्गलों का गमन जानो। धर्मास्तिकाय के अभाव में उससे आगे (जीव और पुद्गल) नहीं जाते हैं। नियमसार (खण्ड-2) (127) Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 185. णियमं णियमस्स फलं णिद्दिटुं पवयणस्स भत्तीए। पुव्वावरविरोधो जदि अवणीय पूरयंतु समयण्हा।। णियमं णियमस्स फलं णिदिटुं पवयणस्स भत्तीए पुत्वावरविरोधो (णियम) 1/1 नियम (णियम) 6/1 नियम का (फल) 1/1 फल (णिद्दिट्ठ) भूकृ 1/1 अनि प्रतिपादित किया गया (पवयण) 6/1 प्रवचन की (भत्ति) 3/1 भक्ति से [(पुव्वावर) वि- पूर्ववर्ती और परवर्ती (विरोध) 1/1] विरोध अव्यय यदि (अवणी) संकृ दूर करके (पूरयंतु) विधि 3/2 सक अनि पूर्ति करें (समयण्ह) 2/2 वि सिद्धान्त को जाननेवाले जदि अवणीय पूरयंतु समयण्हा अन्वय- पवयणस्स भत्तीए णियमं णियमस्स फलं णिद्दिटुं जदि पुव्वावरविरोधो समयण्हा अवणीय पूरयंतु। ___अर्थ- (आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं) (कि) प्रवचन की भक्ति से (यहाँ) (मेरे द्वारा) नियम (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र) और (इन तीनों) नियम का फल प्रतिपादित किया गया (है)। यदि (इसमें कुछ) पूर्ववर्ती और परवर्ती विरोध (हो) (तो) सिद्धान्त को जाननेवाले (उसे) दूर करके पूर्ति करें। (128) नियमसार (खण्ड-2) Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186. ईसाभावेण पुणो केई जिंदंति सुंदरं मग्गं। तेसिं वयणं सोचाऽभत्तिं मा कुणह जिणमग्गे।। ईसाभावेण' पुणो ईर्ष्या भाव से तो भी कोई भी निंदा करते हैं क३ जिंदति मनोज्ञ मार्ग उनके [(ईसा)-(भाव) 3/1] अव्यय अव्यय (णिंद) व 3/2 सक (सुंदर) 2/1 वि (मग्ग) 2/1 (त) 6/2 सवि (वयण) 2/1 [(सोच्चा)+ (अभत्ति)] सोच्चा (सोच्चा) संकृ अनि अभत्तिं (अभत्ति) 2/1 वि अव्यय (कुण) विधि 2/2 सक [(जिण)-(मग्ग) 7/1] वचन वयणं • सोच्चाऽभत्तिं सुनकर अभक्ति मत करो जिनमार्ग के प्रति कुणह जिणमग्गे अन्वय- केई ईसाभावेण सुंदरं मग्गं जिंदंति पुणो तेसिं वयणं सोच्चाऽभत्तिं जिणमग्गे मा कुणह। __अर्थ- (यदि) कोई भी ईर्ष्या भाव से (इस) मनोज्ञ मार्ग की निंदा करते हैं तो भी उनके वचन सुनकर (तुम) जिनमार्ग के प्रति अभक्ति मत करो। 1. कारण व्यक्त करनेवाले शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है। __(प्राकृत-व्याकरणः पृष्ठ 36) नियमसार (खण्ड-2) (129) Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 187. णियभावणाणिमित्तं मए कदं णियमसारणामसुदं । जिणोवदेसं पुव्वावरदोसणिम्मुक्कं ।। णच्चा णियभावणाणिमित्तं [ (णिय) वि- (भावणा) - (forfire) 1/1] (अम्ह) 3/1 सवि (कद) भूक 1/1 अनि [(णियमसार) - (णाम) अ मए कदं णियमसारणामसुदं णच्चा जिणोवदेसं पुव्वावरदोस णिम्मुक्कं (130) (सुद) 1 / 1 ] (णच्चा) संकृ अनि [(जिण) + (उवदेसं)] [(जिण) - (उवदेस) 2/1] [(पुव्वावर) वि- (दोस) - ( णिम्मुक्क) 1 / 1 वि] निज आचरण के निमित्त मेरे द्वारा रचा गया नियमसार नामक शास्त्र जानकर जिनेन्द्रदेव के उपदेश को पूर्ववर्ती और परवर्ती दोषरहित अन्वय- जिणोवदेसं पुव्वावरदोसणिम्मुक्कं णच्चा मए णियभावणा णिमित्तं नियमसारणामसुदं कदं । अर्थ- जिनेन्द्रदेव के पूर्ववर्ती और परवर्ती दोषरहित उपदेश को (अच्छी प्रकार से) जानकर मेरे द्वारा निज आचरण के निमित्त (यह) नियमसार नामक शास्त्र रचा गया ( है ) । नियमसार (खण्ड-2) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल पाठ 77. णाहं णारयभावो तिरियत्थो मणुवदेवपज्जाओ। कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीणं ।। 78. णाहं मग्गणठाणो णाहं गुणठाण जीवठाणो ण । कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता व कत्तीणं ।। 79. णाहं बालो वुड्डो ण चेव तरुणो ण कारणं तेसिं । कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता व कत्तीणं ।। 80. णाहं रागो दोसो ण चेव मोहो ण कारणं तेसिं। कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीणं ।। 81. णाहं कोहो माणो ण चेव माया ण होमि लोहो हं । कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीणं ।। 82. एरिसभेदब्भासे मज्झत्थो होदि तेण चारितं । तं दिढकरणणिमित्तं पडिक्कमणादी पवक्खामि ।। 83. मोत्तूण वयणरयणं रागादीभाववारणं किच्चा । अप्पाणं जो झायदि तस्स द होदि ति पंडिकमणं ।। 84. आराहणाई व मोत्तूण विराहणं विसेसेण । सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ।। नियमसार (खण्ड-2 ) (131) Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85. मोत्तूण अणायारं आयारे जो दु कुणदि थिरभाव। सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा॥ 86. उम्मग्गं परिचत्ता जिणमग्गे जो दु कुणदि थिरभाव। सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा॥ 87. मोत्तूण सल्लभावं णिस्सल्ले जो दु साहु परिणमदि। सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा॥ 88. चत्ता अगुत्तिभावं तिगुत्तिगुत्तो हवेइ जो साहू। सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा॥ 89. मोत्तूण अट्टरुदं झाणं जो झादि धम्मसुक्कं वा। .. सो पडिकमणं उच्चइ जिणवरणिहिट्ठसुत्तेसु॥ 90. मिच्छत्तपहुदिभावा पुव्वं जीवेण भाविया सुइरं। सम्मत्तपहुदिभावा अभाविया होंति जीवेण॥ 91. मिच्छादंसणणाणचरित्तं चइऊण णिरवसेसेण। सम्मत्तणाणचरणं जो भावइ सो पडिक्कमणं॥ 92. उत्तमअटुं आदा तम्हि ठिदा हणदि मुणिवरा कम्म। तम्हा दु झाणमेव हि उत्तमअट्ठस्स पडिकमणं॥ (132) नियमसार (खण्ड-2) Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 93. झाणणिलीणो साहू परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं। तम्हा दु झाणमेव हि सव्वदिचारस्स पडिकमणं॥ 94. पडिकमणणामधेये सुत्ते जह वण्णिदं पडिक्कमणं। तह णच्चा जो भावइ तस्स तदा होदि पडिक्कमणं॥ 95. मोत्तूण सयलजप्पमणागयसुहमसुहवारणं किच्चा। अप्पाणं जो झायदि पच्चक्खाणं हवे तस्स। 96. केवलणाणसहावो केवलदसणसहावसुहमइओ। केवलसत्तिसहावो सो हं इदि चिंतए णाणी॥ 97. णियभावं णवि मुच्चइ परभावं णेव गेहए के।। जाणदि पस्सदि सव्वं सो हं इदि चिंतए णाणी॥ 98. पयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेसबंधेहिं वज्जिदो अप्पा। सो हं इदि चिंतिज्जो तत्थेव य कुणदि थिरभाव।। 99. ममत्तिं परिवज्जामि णिम्ममत्तिमुवट्ठिदो। आलंबणं च मे आदा अवसेसं च वोसरे॥ 100. आदा खु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य। ___ आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे॥ नियमसार (खण्ड-2) (133) Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101. एगो य मरदि जीवो एगो य जीवदि सयं। एगस्स जादि मरणं एगो सिज्झदि णीरओ॥ 102. एगो मे सासदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा॥ 103. जं किंचि मे दुच्चरितं सव्वं तिविहेण वोसरे। सामाइयं तु तिविहं करेमि सव्वं णिराया।। 104. सम्मं मे सव्वभूदेसु वे मज्झं ण केणवि। आसाए वोसरित्ता णं समाहि पडिवज्जए। 105. णिक्कसायस्स दंतस्स सूरस्स ववसायिणो। संसारभयभीदस्स पच्चक्खाणं सुहं हवे॥ 106. एवं भेदब्भासं जो कुव्वइ जीवकम्मणो णिच्चं। पच्चक्खाणं सक्कदि धरिदं सो संजदो णियमा॥ 107. णोकम्मकम्मरहियं विहावगुणपज्जएहिं वदिरित्त। अप्पाणं जो झायदि समणस्सालोयणं होदि। 108. आलोयणमालुंछण वियडीकरणं च भावसुद्धी य। चउविहमिह परिकहियं आलोयणलक्खणं समए। (134) नियमसार (खण्ड-2) Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 109. जो पस्सदि अप्पाणं समभावे संठवित्तु परिणाम। आलोयणमिदि जाणह परमजिणंदस्स उवएस।। 110. कम्ममहीरुहमूलच्छेदसमत्थो सकीयपरिणामो। साहीणो समभावो आलुंछणमिदि समुद्दिट्ट।। 111. कम्मादो अप्पाणं भिण्णं भावेइ विमलगुणणिलयं। मज्झत्थभावणाए वियडीकरणं ति विण्णेयं। 112. मदमाणमायलोहविवज्जियभावो दु भावसुद्धि त्ति। परिकहियं भव्वाणं लोयालोयप्पदरिसीहिं।। 113. वदसमिदिसीलसंजमपरिणामो करणणिग्गहो भावो। सो हवदि पायछित्तं अणवरयं चेव कायव्वो। 114. कोहादिसगब्भावक्खयपहुदिभावणाए णिग्गहणं। पायच्छित्तं भणिदं णियगुणचिंता य णिच्छयदो। 115. कोहं खमया माणं समद्दवेणज्जवेण मायं च। संतोसेण य लोहं जयदि खु ए चउविहकसाए। 116. उक्किट्ठो जो बोहो णाणं तस्सेव अप्पणो चित्तं। जो धरइ मुणी णिच् पायच्छित्तं हवे तस्स। नियमसार (खण्ड-2) (135) Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 117. किं बहुणा भणिएण दु वरतवचरणं महेसिणं सव्वं। पायच्छित्तं जाणह अणेयकम्माण खयहेऊ॥ 118. णंताणंतभवेण समज्जियसुहअसुहकम्मसंदोहो। तवचरणेण विणस्सदि पायच्छित्तं तवं तम्हा।। 119. अप्पसरूवालंबणभावेण दु सव्वभावपरिहारं। सक्कदि कादं जीवो तम्हा झाणं हवे सव्व।। 120. सुहअसुहवयणरयणं रायादीभाववारणं किच्चा। अप्पाणं जो झायदि तस्स दुणियमं हवे णियमा। 121. कायाईपरदव्वे थिरभावं परिहरन्तु अप्पाणं। तस्स हवे तणुसगं जो झायइ णिव्वियप्पेण॥ . 122. वयणोच्चारणकिरियं परिचत्ता वीयरायभावेण। जो झायदि अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स॥ 13. संजशियमावण्या पक्षप्रमेहा रक्तवारेमा 123. संजमणियमतवेण दु धम्मज्झाणेण सुक्कझाणेण। जो झायइ अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स। 124. किं काहदि वणवासो कायकिलेसो विचित्तउववासो। अज्झयणमोणपहुदी समदारहियस्स समणस्स। (136) नियमसार (खण्ड-2) Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 125. विरदो सव्वसावज्जे तिगुत्तो पिहिदिदिओ। ___तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे॥ 126. जो समो सव्वभूदेसु थावरेसु तसेसु वा। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे।। 127. जस्स सण्णिहिदो अप्पा संजमे णियमे तवे। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे॥ 128. जस्स रागो दु दोसो दु विगडि ण जणेइ दु। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे॥ 129. जो दु अट्टं च रुदं च झाणं वज्जेदि णिच्चसो। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे।। 130. जो दु पुण्णं च पावं च भावं वज्जेदि णिच्चसो। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे॥ 131. जो दु हस्सं रई सोगं अरतिं वज्जेदि णिच्चसो। __ तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे॥ 132. जो दुगंछा भयं वेदं सव्वं वज्जेदि णिच्चसो। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे॥ नियमसार (खण्ड-2) (137) Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 133. जो दु धम्मं च सुक्कं च झाणं झाएदि णिच्चसो। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे॥ 134. सम्मत्तणाणचरणे जो भत्तिं कुणइ सावगो समणो। तस्स दु णिव्वुदिभत्ती होदि त्ति जिणेहि पण्णत्त। 135. मोक्खंगयपुरिसाणं गुणभेदं जाणिऊण तेसिं पि। जो कुणदि परमभत्तिं ववहारणयेण परिकहिय। 136. मोक्खपहे अप्पाणं ठविऊण य कुणदि णिव्वुदी भत्ती। तेण दु जीवो पावइ असहायगुणं णियप्पाणं। 137. रायादीपरिहारे अप्पाणं जो दु जुंजदे साहू। सो जोगभत्तिजुत्तो इदरस्स य किह हवे जोगो॥ 138. सव्ववियप्पाभावे अप्पाणं जो दु जुंजदे साहू। सो जोगभत्तिजुत्तो इदरस्स य किह हवे जोगो॥ 139. विवरीयाभिणिवेसं परिचत्ता जोण्हकहियतच्चेसु। ___ जो जुंजदि अप्पाणं णियभावो सो हवे जोगो॥ 140. उसहादिजिणवरिंदा एवं काऊण जोगवरभत्ति। णिव्वुदिसुहमावण्णा तम्हा धरु जोगवरभत्ति।। (138) नियमसार (खण्ड-2) Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 141. जो ण हवदि अण्णवसो तस्स दु कम्मं भणंति आवासं। कम्मविणासणजोगो णिव्वुदिमग्गो त्ति पिज्जुत्तो। 142. ण वसो अवसो अवसस्स कम्म वावस्सयं ति बोद्धव्वा। जुत्ति त्ति उवाअं ति य णिरवयवो होदि णिज्जुत्ती॥ 143. वदि जो सो समणो अण्णवसो होदि असुहभावेण। तम्हा तस्स दु कम्मं आवस्सयलक्खणं ण हवे॥ 144. जो चरदि संजदो खलु सुहभावे सो हवेइ अण्णवसो। तम्हा तस्स दु कम्मं आवासयलक्खणं ण हवे॥ 145. दव्वगुणपज्जयाणं चित्तं जो कुणइ सो वि अण्णवसो। मोहंधयारववगयसमणा कहयंति एरिसय।। 146. परिचत्ता परभावं अप्पाणं झादि णिम्मलसहावं। ___अप्पवसो सो होदि हु तस्स दु कम्मं भणंति आवास।। 147. आवासं जह इच्छसि अप्पसहावेसु कुणदि थिरभाव। तेण दु सामण्णगुणं संपुण्णं होदि जीवस्स। 148. आवासएण हीणो पब्भट्टो होदि चरणदो समणो। पुव्वुत्तकमेण पुणो तम्हा आवासयं कुज्जा॥ नियमसार (खण्ड-2) (139) Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 149. आवासएण जुत्तो समणो सो होदि अंतरंगप्पा । आवासयपरिहीणो समणो सो होदि बहिरप्पा ॥ 150. अंतरबाहिरजप्पे जो वट्टइ सो हवेइ जप्पेसु जो ण वट्टइ सो उच्चइ बहिरप्पा | अंतरंगप्पा ॥ 151. जो धम्मसुक्कझाणम्हि परिणदो सो वि अंतरंगप्पा । झाणविहीणो समणो बहिरप्पा इदि विजाणीहि ।। 152. पडिकमणपहुदिकिरियं कुव्वंतो णिच्छयस्स चारितं । तेण दु विरागचरिए समणो अब्भुट्ठिदो होदि । । 153. वयणमयं पडिकमणं वयणमयं पच्चक्खाण नियमं च। आलोयण वयणमयं तं सव्वं जाण सज्झायं ।। 154. जदि सक्कदि कादुं जे पडिकमणादिं करेज्ज झाणमयं । सत्तिविहीणो जा जइ सद्दहणं चेव कायव्वं ॥ 155. जिणकहियपरमसुत्ते पडिकमणादिय परीक्खऊण फुडं । मोणव्वएण जोई णियकज्जं साहए णिच्वं ॥ 156. णाणाजीवा णाणाकम्मं णाणाविहं हवे लगी। तम्हा वयणविवादं सगपरसमएहिं वज्जिज्जो ॥ (140) नियमसार (खण्ड-2) Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 157. लभ्रूणं णिहि एक्को तस्स फलं अणुहवेइ सुजणत्ते। तह णाणी णाणणिहिं भुजेइ चइत्तु परतत्ति।। 158. सव्वे पुराणपुरिसा एवं आवासयं च काऊण। अपमत्तपहुदिठाणं पडिवज्ज य(पडिवज्जिय)केवली जादा॥ 159. जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं। केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं॥ 160. जुगवं वदृइ णाणं केवलणाणिस्स दंसणं च तहा। दिणयरपयासतावं जह वइ तह मुणेयव्वं। 161. णाणं परप्पयासं दिट्ठी अप्पप्पयासया चेव। __ अप्पा सपरपयासो होदि त्ति हि मण्णसे जदि हि। 162. णाणं परप्पयासं तइया णाणेण दंसणं भिण्णं। ण हवदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा॥ 163. अप्पा परप्पयासो तइया अप्पेण दंसणं भिण्णं। ण हवदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा।। 164. णाणं परप्पयासं ववहारणयेण दंसणं तम्हा। अप्पा परप्पयासो ववहारणयेण दंसणं तम्हा॥ नियमसार (खण्ड-2) (141) Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 165. णाणं अप्पपयासं णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा। . अप्पा अप्पपयासो णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा॥ 166. अप्पसरूवं पेच्छदि लोयालोयं ण केवली भगवं। जइ कोइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ। 167. मुत्तममुत्तं दव्वं चेयणमियरं सगं च सव्वं च। पेच्छंतस्स दु णाणं पच्चक्खमणिंदियं होइ॥ 168. पुव्वुत्तसयलदव्वं णाणागुणपज्जएण संजुत्तं। जो ण य पेच्छइ सम्मं परोक्खदिट्ठी हवे तस्स। 169. लोयालोयं जाणइ अप्पाणं णेव केवली भगवं। जइ कोइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ॥ 170. णाणं जीवसरूवं तम्हा जाणे, अप्पगं अप्पा। अप्पाणं ण वि जाणदि अप्पादो होदि विदिरित्त।। 171. अप्पाणं विणु णाणं णाणं विणु अप्पगो ण संदेहो। तम्हा सपरपयासं णाणं तह दंसणं होदि।। 172. जाणंतो पस्संतो ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो। केवलणाणी तम्हा तेण दु सोऽबंधगो भणिदो॥ (142) नियमसार (खण्ड-2) Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 173. परिणामपुव्ववयणं जीवस्स य बंधकारणं होइ। परिणामरहियवयणं तम्हा णाणिस्स ण हि बंधो।। 174. ईहापुव्वं वयणं जीवस्स य बंधकारणं होइ। ईहारहियं वयणं तम्हा णाणिस्स ण हि बंधो॥ 175. ठाणणिसेज्जविहारा ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो। तम्हा ण होइ बंधो साक्खटुं मोहणीयस्स। 176. आउस्स खयेण पुणो णिण्णासो होइ सेसपयडीणं। पच्छा पावइ सिग्धं लोयग्गं समयमेत्तेण॥ 177. जाइजरमरणरहियं णाणाइचउसहावं परमं कम्मट्ठवज्जियं सुद्ध। अक्खयमविणासमच्छेय।। 178. अव्वाबाहमणिंदियमणोवमं पुणरागमणविरहियं णिच्चं पुण्णपावणिम्मुक्कं। अचलं अणालंब।। 179. णवि दुक्खं णवि सुक्खं णवि पीडा णेव विज्जदे बाहा। __ णवि मरणं णवि जणणं तत्थेव य होइ णिव्वाणं॥ 180. णवि इंदिय उवसग्गा णवि मोहो विम्हिओ ण णिद्दा य। ण य तिण्हा व छुहा तत्थेव य होइ णिव्वाणं॥ नियमसार (खण्ड-2) (143) Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 181. णवि कम्मं णोकम्मं णवि चिंता णेव अट्टरुद्दाणि । णवि धम्मसुक्कझाणे तत्थेव य होइ णिव्वाणं ।। 182. विज्जदि केवलणाणं केवलसोक्खं च केवलं विरियं । केवलदिट्टि अमुत्तं अत्थित्तं सप्पदेसत्तं ॥ 183. णिव्वाणमेव सिद्धा सिद्धा णिव्वाणमिदि समुद्दिट्ठा । कम्मविमुक्को अप्पा गच्छइ लोयग्गपज्जंतं ।। 184. जीवाण पुग्गलाणं गमणं जाणेहि जाव धम्मत्थी । धम्मत्थिकायभावे तत्तो परदो ण गच्छंति॥ 185. णियमं णियमस्स फलं णिद्दिहं पवयणस्स भत्ती । पुव्वावरविरोधो जदि अवणीय पूरयंतु समयण्हा।। 186. ईसाभावेण पुणो केई णिंदंति सुंदरं मग्गं । तेसिं वयणं सोच्चाऽभत्तिं मा कुणह जिणमग्गे ।। 187. णियभावणाणिमित्तं (144) णच्चा मए कदं णियमसारणामसुदं । पुव्वावरदोसणिम्मुक्कं ।। जिणोवदेसं नियमसार (खण्ड-2) Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा.सं. परिशिष्ट-1 संज्ञा-कोश संज्ञा शब्द अर्थ लिंग अंतरंगप्प अन्तरात्मा अकारान्त पु. 149, 150, 151 अंधयार अंधकार अकारान्त पु., नपुं. 145 अक्ख इन्द्रिय अकारान्त नपुं. 175 अज्जव सरलता अकारान्त नपुं. 115 अज्झयण अध्ययन अकारान्त पु., नपुं. 124 अट्ठ प्रयोजन अकारान्त पु., नपुं. 92 विषय 175 अणायार अनाचार अकारान्त पु. 85 अणुभाग अनुभाग (बंध) अकारान्त पु. 98 अत्थित्त सत्ता अकारान्त नपुं. 182 अदिचार अकारान्त पु. 93 अप्प आत्मा अकारान्त पु. 8,102,116,119, 119, 146, 147, 161, 163, 164, 165, 166, 170, 171, 183 शुद्ध आत्म द्रव्य 127 स्व 161, 165 अप्पाण आत्मा अकारान्त पु. 83,95,107, 109, 111, 120, 121, 122, 123, 136, 169, 171 नियमसार (खण्ड-2) (145) दोष Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 अपना निज 137, 138,139, 146 अभ्यास अब्भास अभाव अभिणिवेस 159 82, 106 138, 184 139 अभाव आग्रह अरति अलोक अरति अकारान्त पु. अकारान्त पु. अकारान्त पु. इकारान्त स्त्री. अकारान्त पु. अकारान्त पु. इकारान्त पु. उकारान्त नपुं. अकारान्त पु. इकारान्त पु. अलोय अवसेस आइ आउ 131 112, 166, 169 99 121, 177 शेष 176 आदि आयुकर्म आत्मा वगैरह आद 92, 99, 100 आदि आदि 83, 114, 120, 137, 140, 154, 155 85 84 99 आयार आराहणा आलंबण आचरण आराधना अकारान्त पु. आकारान्त स्त्री. अकारान्त नपुं. ___ 119 आलुंछण अकारान्त नपुं. 108, 110 सहारा आलंबन आलुछन (उच्छेदन) आलोचना (देखना) आलोयण __ अकारान्त नपु. 107, 108, 109, 153 (146) नियमसार (खण्ड-2) Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसा आशा इंदिअ/इंदिय इन्द्रिय ईसा ईर्ष्या ईहा इच्छा उच्चारण उच्चारण उम्मग्ग मिथ्यामार्ग उवएस उपदेश उवदेस उपदेश उववास उपवास उवसग्ग उपसर्ग उवाअ उपाय उसह ऋषभ उस्सग्ग आकारान्त स्त्री. 104 अकारान्त पु., नपुं. 125, 180 आकारान्त स्त्री. 186 आकारान्त स्त्री. 172, 174, 175 अकारान्त नपुं. 122 अकारान्त पु. 86 अकारान्त पु. 109 अकारान्त पु. 187 अकारान्त पु., नपुं. 124 अकारान्त पु. 180 अकारान्त पु. . 142 अकारान्त पु. 140 अकारान्त पु. 121 अकारान्त पु. 148 अकारान्त पु., नपुं. 92, 106, 107,110, 111, 117, 118, 141 142,143,144,146, 177, 181, 183 __ अकारान्त नपुं. 82 उत्सर्ग कम रीति कम्म कर्म करण करना पंचेन्द्रिय 113 कषाय कसाअ काय कारण काय अकारान्त पु. अकारान्त पु. अकारान्त नपुं. 115 121, 124 79,80,173,174 कारण नियमसार (खण्ड-2) (147) Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया किरिया आकारान्त स्त्री. 122, 152 किलेस क्लेश अकारान्त पु. 124 केवलणाण केवलज्ञान अकारान्त नपुं. 96, 182 केवलदसण केवलदर्शन अकारान्त नपुं. केवलदिट्ठि केवलदर्शन इकारान्त स्त्री. केवलसत्ति केवलशक्ति इकारान्त स्त्री. 96 केवलसोक्ख केवलसुख अकारान्त नपुं. ___182 केवलिसासण केवली का __अकारान्त नपुं. _125,126,127,128, शासन 129,130,131,132, इकारा अका 133 कोह क्खय खय गमण अकारान्त पु. 81, 114, 115 अकारान्त पु. 114 अकारान्त पु. 117, 176 अकारान्त नपुं.. 184 अकारान्त पु., नपुं. 107, 111,114, 135, 136, 145, 147, अकारान्त पु., न. 78 सम्यक्चारित्र अकारान्त नपुं. 91, 134 117, 118, 148 चारित्र अकारान्त नपुं. 152 (मिथ्या) चारित्र अकारान्त नपुं. 91 (सम्यक्) चारित्र 100 गुणठाण थान चरण चारित्र चरिअ चरित्त (148) नियमसार (खण्ड-2) Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित चिंता चित्त चेयण च्छेद छुहा जणण जप्प जरा ཤྲཱ ཡྻཱ ཝཱ जाइ जिणंद जिणवर जिणवरिंद जीव जीवठाण जुत्ति आचरण चारित्र चिंतन चिंता बुद्धि मन चेतन छेदन करना क्षुधा जन्म वचन-व्यापार जल्प (कथन) जरा जन्म जिनेन्द्रदेव जिन जिनदेव जिनेन्द्रदेव अरहंत जीव आत्मा जीवस्थान युक्ति नियमसार (खण्ड-2) अकारान्त नपुं. आकारान्त स्त्री. अकारान्त नपुं. अकारान्त पु. अकारान्त पु. आकारान्त स्त्री. अकारान्त नपुं. अकारान्त पु. आकारान्त स्त्री. इकारान्त स्त्री. अकारान्त पु. C अकारान्त पु. अकारान्त पु. अकारान्त पु. अकारान्त पु., नपुं. 82 152 114 181 116 145 167 110 180 179 95 150 177 177 134, 155, 187 86, 186 109 89 140 90, 101, 136, 147, 173, 174, 184 106, 119, 170 अकारान्त पु., नपुं. 78 इकारान्त स्त्री. 142 (149) Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोड़ जोग जोण्ह झाण ठाण ट्ठिदि णंताणंत णाण णाणाकम्म णाणागुण णाणाजीव (150) योगी इकारान्त पु. मन-वचन-काय अकारान्त पु. योग जिनेन्द्रदेव ध्यान खड़े रहना गुणस्थान स्थिति (बंध) अनंतानंत (मिथ्या) ज्ञान सम्यग्ज्ञान ज्ञान 155 100 137, 138, 139, 140, 141 अकारान्त पु. अकारान्त पु., नपुं. 89, 92, 93, 119, 129, 133, 151 इकारान्त स्त्री. अकारान्त पु. अकारान्त नपुं. 139 अकारान्त पु., नपुं. 175 158 98 118 91 91, 100, 134 102,116, 157,160, 161,162,164,165, 167, 170, 171,177 अनेक प्रकार के अकारान्त पु., नपुं. 156 कर्म अनेक प्रकार के अकारान्त पु., नपुं. 168 गुण अनेक प्रकार के अकारान्त पु., नपुं. 156 जीव नियमसार (खण्ड-2) Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णारय 77 णिग्गह नरक नियंत्रण निश्चय निश्चयनय णिच्छय णिच्छयणय णिज्जुत्ति णिण्णास व्याख्या विनाश णिद्धा निद्रा निमित्त णिमित्त . णियम णियमसार नियम अकारान्त पु. अकारान्त पु. 113 अकारान्त पु. 152 अकारान्त पु. 165 इकारान्त स्त्री. 142 अकारान्त पु. 176 आकारान्त स्त्री. 180 अकारान्त नपुं. 187 अकारान्त पु. 123,127,153, 185 अकारान्त पु. 187 अकारान्त पु. 111 अकारान्त नपुं. 179,180,181,183 इकारान्त स्त्री. 134,136,140,141 अकारान्त पु. 175 इकारान्त पु. 157 अकारान्त पु., नपुं. 107 नियमसार णिलय निवास णिव्वाण णिव्वुदि णिसेज्ज णिहि णोकम्म निर्वाण निर्वाण बैठना निधि शरीर नोकर्म तत्त्व EEEEEE BEE अकारान्त नपुं. 139 उकारान्त स्त्री. 121 इकारान्त स्त्री. 157 अकारान्त पु., नपुं. 117,118,123,127 अकारान्त पु. 126 अकारान्त पु. 160 नियमसार (खण्ड-2) (151) Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिण्हा थावर दंसण तृषा स्थावर दर्शन दव्व दिट्टि दिणयर दुक्ख दुगंछा दुच्चरित्त दूसण " घृणा बुरा आचरण आकारान्त स्त्री. 180 अकारान्त पु. 126 अकारान्त पु., नपुं. 100,102,160,162, 163,164,165,171 अकारान्त पु., नपुं. 121,145, 162,163, 167, 168 इकारान्त स्त्री. 161, 168 अकारान्त पु. 160 अकारान्त पु., नपुं. 179 आकारान्त स्त्री. 132 अकारान्त नपुं. 103 अकारान्त नपुं. 166, 169 अकारान्त पु., नपुं. 77 अकारान्त पु. 80, 128 93, 187 अकारान्त पु., नपुं. 89, 151, 181 133 अकारान्त नपुं. 123 इकारान्त पु. 184 अकारान्त पु. 184 अकारान्त नपुं. 95, 100, 105, देव दोस धम्म धर्मध्यान धम्मझाण धर्मध्यान धम्मत्थि धर्मास्तिकाय धम्मत्थिकाय धर्मास्तिकाय पच्चक्खाण प्रत्याख्यान 106, 153 107, 145, 168 पज्जअ/पज्जय पर्याय पज्जाअ पर्याय अकारान्त पु. अकारान्त पु. 77 (152) नियमसार (खण्ड-2) Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिकमण प्रतिक्रमण पडिक्कमण प्रतिक्रमण पड प्रकृति पयास प्रकाश परिचाग परित्याग परिणाम परिहार परोक्ख पवयण पह पायच्छित्त पाय छत्त पाव पीडा पुग्गल पुणरागमण पुण्ण पुरिस भावदशा परिणाम भाव फल की आकांक्षा परिहार परोक्ष प्रवचन मार्ग प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त पाप पीड़ा पुद्गल पुनरागमन पुण्य पुरुष नियमसार (खण्ड-2) अकारान्त नपुं. अकारान्त नपुं. इकारान्त स्त्री. अकारान्त पु. अकारान्त पु. अकारान्त पु. अकारान्त पु. अकारान्त नपुं. अकारान्त नपुं. 83,84,85,86,87, 88,89,92,93,94, 52,153,154,155 82, 91, 94 98, 176 160 93 109 110 113 173 119, 137 168 185 136 अकारान्त पु. अकारान्त पु., नपुं. 114,116,117, 118 अकारान्त पु., नपुं. 113 अकारान्त पु., नपुं. 130, 178 आकारान्त स्त्री. 179 अकारान्त पु., नपुं. 184 अकारान्त नपुं. 178 अकारान्त पु., नपुं. 130, 178 अकारान्त पु., नपुं. 135, 158 (153) Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्पदेस अकारान्त पु. 98 अकारान्त पु., नपुं. 157 फल 185 बंध बहिरप्प प्रदेशबंध परिणाम फल बंध बहिरात्मा बालक बाधा बोध भाव बाल बाहा बोह ब्भाव भगव भत्ति भगवान भक्ति अकारान्त पु. 173, 174, 175 अकारान्त पु., नपुं. 149, 150, 151 अकारान्त पु. 79 आकारान्त स्त्री. 179 अकारान्त पु. 116 अकारान्त पु. 114 अकारान्त पु. 159, 166, 169 इकारान्त स्त्री. 134, 135,136,137 138, 140, 185 अकारान्त नपुं. 105, 132 अकारान्त पु. अकारान्त पु. 83, 85,87, 88, 90, 97, 98, 112, 119,120,121,122, 139, 143, 144, 146, 147, 186 भय भय 118 भव भाव पर्याय 77 भाव आचरण 86 स्वभाव पदार्थ चित्तवृत्ति 102 113 (154) नियमसार (खण्ड-2) Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होना 119 130 114 भावणा आकारान्त स्त्री. 187 भावसुद्धि कर्म चिंतन आचरण भावशुद्धि प्राणी जीव भेद विशेष मार्ग मार्गणास्थान मनुष्य कामवासना मग मम्गणठाण मणुव ममत्त ममत्व इकारान्त स्त्री. 108, 112 अकारान्त पु.,नपुं. 104 126 अकारान्त पु., नपुं. 82, 106 135 अकारान्त पु. 86, 141, 186 अकारान्त पु., नपुं. 78 अकारान्त पु. 77 अकारान्त पु.,नपुं. 112 अकारान्त नपुं. 99 अकारान्त पु.,नपुं. 101, 177, 179 ईकारान्त स्त्री. 110 . इकारान्त पु. 117 अकारान्त पु., नपुं. 81 112, 115 आकारान्त स्त्री. 81 112, 115 अकारान्त नपुं. 90 अकारान्त नपुं. 91 इकारान्त पु. 116 मरण मरण भूमि महामुनि माण मान अहंकार माया माया कपट मिच्छत्त मिथ्यात्व मिच्छादसण मिथ्यादर्शन मुणि मुनि नियमसार (खण्ड-2) (155) Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेष्ठ मनि 92 मुणिवर मूल मेत्त मोक्ख मोण मोह मोह मोहणीय रति रयणा राग राय अकारान्त पु. अकारान्त नपुं. 110 अकारान्त नपुं. 176 अकारान्त पु. 135, 136 अकारान्त नपु. 124, 155 अकारान्त पु. 80, 145, 180 मोहनीय कर्म अकारान्त नपुं. 175 इकारान्त स्त्री. 131 कौशल आकारान्त स्त्री. 83, 120 राग अकारान्त पु. 80, 83, 128 राग अकारान्त पु. 120, 137 रौद्रध्यान अकारान्त नपुं. 89, 129, 181 लक्षण अकारान्त पु., नपुं. 102,108,143,144 लब्धि इकारान्त स्त्री. 156 लोक अकारान्त पु. 112, 166, 169 लोक का अग्रभाग अकारान्त नपुं. 176, 183 लोभ अकारान्त पु. 81, 112, 115 वनवास अकारान्त पु. 124 व्रत अकारान्त पु., नपुं. 113 वचन अकारान्त पु., नपुं. 120, 122, 173, 174, 186 शब्द उच्चारण शब्द व्यवहारनय अकारान्त पु. 135, 159, 164 लक्खण लद्धि लोय लोयग्ग लोह वणवास वद वयण 83 156 . ववहारणय (156) नियमसार (खण्ड-2) Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल्प विरिय 156 175 वारण निवारण ___ अकारान्त नपुं. 83 रोक 95, 120 विगडि विकार इकारान्त स्त्री. 128 विम्हिअ आश्चर्य अकारान्त पु. 180 वियडीकरण वियडीकरण अकारान्त नपुं. 108, 111 वियप्प विकल्प अकारान्त पु. 138 विराहणा अशुद्ध आराधना आकारान्त स्त्री. 84 वीर्य अकारान्त पु., नपुं. 182 विरोध विरोध अकारान्त पु. 185 विवाद विवाद अकारान्त पु. विहार विहार करना अकारान्त पु. विहाव विभाव अकारान्त पु. 107 स्त्रीवेद, पुरुषवेद, अकारान्त पु. नपुंसकवेद अकारान्त नपुं. 104 व्व व्रत अकारान्त पु., नपुं. 155 संयम अकारान्त पु. 113, 123, 127 संयोग अकारान्त पु. संतोस संतोष अकारान्त पु. संदेह अकारान्त पु. 171 संदोह समूह अकारान्त पु. 118 संवर अकारान्त पु. संसार अकारान्त पु. सज्झाय स्वाध्याय अकारान्त पु. संजम संजोग 102 115 संदेह रोकना 100 संसार 105 153 नियमसार (खण्ड-2) (157) Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्ति सद्दहण समअ समण समदा समद्दव समभाव समय समय समाहि समिदि शक्ति इकारान्त स्त्री. 154 श्रद्धान अकारान्त नपुं. 154 सिद्धान्त अकारान्त पु. 108, 156 श्रमण अकारान्त पु. 107, 124, 134, 143, 145, 148, 149, 151, 152 समता आकारान्त स्त्री. 124 अपनी नम्रता अकारान्त नपुं. 115 समभाव अकारान्त पु. 109, 110 अकारान्त पु. 176 समाधि इकारान्त पु., स्त्री. 104, 122, 123 समिति इकारान्त स्त्री. 113 समभाव अकारान्त नपुं. 104 सम्यक्त्व अकारान्त नपुं. 90 सम्यग्दर्शन 91 स्वरूप अकारान्त नपुं. 119, 166, 170 शल्य अकारान्त पु., नपुं. 87 स्वभाव अकारान्त पु. 96,146,147,177 श्रमणता अकारान्त नपुं. 147 सामायिक अकारान्त नपुं. 125, 126, 127, 128, 129, 130, 131, 132, 133 सामायिक __अकारान्त नपुं. 103 अकारान्त पु., नपुं. 134 सम्म सम्मत्त सरूव सल्ल सहाव सामण्ण सामाइग सामाइय सावग श्रावक (158) नियमसार (खण्ड-2) Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावज्ज साहु सील . सुक्क सुक्कझाण सुक्ख सु-जणत्त पाप अकारान्त पु. 125 साधु उकारान्त पु. 87, 88, 93, 137, 138 व्रतों की रक्षार्थ अकारान्त नपुं. _____113 भावना शुक्लध्यान अकारान्त नपुं. 89, 133 शुक्लध्यान अकारान्त नपुं. 123, 151, 181 अकारान्त 179 मनुष्य अवस्था अकारान्त 157 सूत्र 89,94, 155 शास्त्र अकारान्त नपु. 187 अकारान्त नपुं. 140 शोक अकारान्त पु. 131 हास्य अकारान्त नपुं. 131 निमित्त उकारान्त पु. सुख अकारान्त नपुं. सुद सुख 117 अनियमित संज्ञा आकारान्त स्त्री.अनि 115 खमया क्षमा से नियमसार (खण्ड-2) (159) Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश अकर्मक क्रिया अर्थ जा होना प्राण धारण करना स्थिर होना गा.सं. 101 101 125, 126, 127, 128,129, 130, 131, 132, 133 87 परिणम मर वट्ट रूपान्तरित होना मरना प्रवृत्ति करना होना क्रियाशील होना विद्यमान रहना 150 160 179, 182 विज्ज होना 118 विणस्स सक्क सिज्झ 106, 119, 154 नष्ट होना समर्थ होना सिद्ध होना होना 101 84, 85, 86, 87, 88, 95, 105, 116, 141, 144, 150, 156, 162, 163, 168 119,120,121,122, 123 113,137,138,139, 143 घटित होना (160) नियमसार (खण्ड-2) Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो 81, 82, 83, 94,134, 142, 143, 146, 147, 148,149, 152, 161, 167, 169, 170, 172, 173, 174, 175,176, 179, 180, 181 90, 166, 171 107 घटित होना नियमसार (खण्ड-2) (161) Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश सकर्मक गा.सं. क्रिया अणुहव इच्छ अर्थ भोगना 157 चाहना 147 कर करना 103, 154 करना 124 करना करना 148 85, 86, 93, 98, 134, 135, 136, 147, 186 लगाना 145 करना 106 कुव्व गच्छ जाना 183, 184 गेह ग्रहण करना 97 चर 144 चिंत करना चिंतन करना विचार करना उत्पन्न करना जीतना 91 जण 128 जय जाण जानना 115 97, 109, 117, 153, 159, 169, 170, 184 137, 138, 139 लगाना (162) नियमसार (खण्ड-2) Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान करना 83, 89, 95, 107, 120, 121 जिंद ध्याता है निंदा करना 122, 123, 133, 146 186 116, 140 धारण करना प्राप्त करना 104 छोड़ना पडिवज्ज परिवज्ज पवक्ख पस्स पाव कहना देखना प्राप्त करना देखना 97, 109, 159 136, 176 166, 168 141, 146, 166, 169 पेच्छ कहना भण भाव पा आचरण करना चिंतन करना 94 न करना 111 भुंज भोगना 157 मण्ण मानना छोड़ना जानना वज्ज विजाण विण वोसर 161 129, 130, 131, 132 151 171 जानना 99 103 त्यागना छोड़ना संपन्न करना समाप्त/नष्ट करना साह 155 हण 92 | नियमसार (खण्ड-2) (163) Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहयंति पूरयंतु मुच्चइ उच्च 3/1 (164) कहना पूर्ति करना छोड़ना अनियमित क्रिया 145 185 97 अनियमित कर्मवाच्य कहा जाता है 84, 85, 86, 87, 88, 89, 150 नियमसार (खण्ड-1 2) Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्त-कोश संबंधक कृदन्त गा.सं. 185 140, 158 83, 95, 120 91 कृदन्त शब्द अवणीय काऊण किच्चा चइऊण चइत्तु चत्ता जाणिऊण ठविऊण णच्चा 157 88 135 136 समझकर 94 अर्थ कृदन्त दूर करके संकृ करके संकृ करके संकृ अनि छोड़कर संकृ छोड़कर छोड़कर संकृ अनि जानकर संकृ स्थापित करके संकृ संकृ अनि जानकर प्राप्त करके छोड़कर छोड़कर परीक्षा करके संकृ अनि पाकर संकृ अनि छोड़कर संकृ संस्थापित करके संकृ सुनकर संकृ अनि संच 187 158 86,122, 139, 146 121 155 पडिवज्जिय परिचत्ता परिहरन्तु परीक्खऊण मोत्तूण लक्षूण वोसरित्ता संठवित्तु सोच्चा छोड़कर 83,84,85,87,89,95 157 104 109 186 नियमसार (खण्ड-2) (165) Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्बु 119, 154 106 धरि, हेत्वर्थक कृदन्त करने के लिए हेक धारण करने हेकृ के लिए भूतकालिक कृदन्त उन्नत भूक अनि चिंतन नहीं किया भूक 152 अब्भुट्टिद अभाविय 90 गया भक 140 116 148, 168 आवण्ण उक्किट्ठ उत्त उवट्ठिद कद कहिय 187 187 139 प्राप्त किया उत्कृष्ट भूकृ अनि कहा गया भूकृ अनि स्थित भूकृ अनि रचा गया भूकृ अनि कथित कहा गया प्राप्त हुआ भूकृ अनि गया हुआ भूकृ अनि हुआ युक्त भूक अनि दृढ़तापूर्वक लगा भूक 155 135 162, 163 158 137, 138, 149 92 हुआ णिहिट्ट 89 कहा हुआ भूकृ अनि प्रतिपादित किया 185 गया (166) नियमसार (खण्ड-2) Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101 134 148 108, 112, 135 णीरअ पण्णत्त पन्भट्ट परिकहिय परिणद परिहीण पिज्जुत्त पिहिद 151 149 141 125 117 भणि भणिद भाविय 114, 172 कर्मरहित हुआ भूकृ अनि कहा गया भूकृ अनि दूषित भूक अनि कहा गया पूर्ण विकसित हीन भूकृ अनि कहा गया नियन्त्रित किया गया कहा गया भूकृ कहा गया चिन्तन किया भूकृ गया अत्यन्त डरा भूक अनि हुआ लीन भूकृ अनि भूक अनि कहा गया वर्णित मुक्त/छूटा हुआ भूकृ अनि अन्तर्वर्ती भूकृ अनि कहा गया भूकृ अनि से की छु जी की छ . स स स स स का भीद 105 लीण . वज्जिद वण्णिद रहित 98 94, 162, 163 183 विमुक्क सण्णिहिद समुद्दिट्ट 127 110, 183 नियमसार (खण्ड-2) (167) Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि कृदन्त किया जाना विधिकृ कायव्व 113, 154 चाहिये बोद्धव्व 142 समझा जाना विधिकृ अनि चाहिये जानना चाहिये विधिकृ. छोड़ देना विधिकृ अनि मुणेयव्व वज्जिज्ज 160 156 चाहिये विण्णेय विधिकृ अनि 111 समझा जाना चाहिये वर्तमान कृदन्त करता हुआ वक विचार करता वकृ अनि कुव्वंत चिंतिज्ज 152 98 हुआ वकृ 172 जाणंत पस्संत पेच्छंत जानता हुआ देखता हुआ देखता हुआ 172 167 (168) नियमसार (खण्ड-2) Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषण-कोश गा.सं. अर्थ अंतरंग 150 शब्द अंतर अक्खय अगुत्ति अक्षय 177 88 मन-वचन-काय का असंयम 178 177 89, 129, 181 अचल अच्छेय अट्ट अणागय अणालंब अणिंदिय अणुमंतु 95 अचल अखण्डित आर्तध्यान आगे आनेवाला अनालंब अतीन्द्रिय अनुमोदना करनेवाला अनेक अनुपम अप्रमत्त अबंधक अभक्ति 178 167, 178 77, 78, 79,80, 81. अणेय 117 178 158 अणोवम अपमत्त अबंधग अभत्ति 172 186 167, 182 अमुत्त अमूर्त अवस 142 अवश अविनाशी अनन्त सुखस्वरूप अविणास अव्याबाह असहाय 177 178 असहाय 136 नियमसार (खण्ड-2) (169) Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असुह अशुभ आवश्यक 95, 118, 120, 143 141, 146, 147 142, 143 आवश्यक आवास आवस्सय आवासअ/ आवासय आवश्यक 144, 148, 149, 158 इदर 137, 138 अन्य अन्य इयर 167 उत्तम एक्क 157 102 82 ऐसा उत्तम कोई अकेला एरिस ऐसा एरिसय करनेवाला करनेवाला कारइदु करानेवाला केवल केवल केवलणाणि केवलज्ञानी केवलि कत्ति कत्तु 145 77, 78, 79, 80, 81 77, 78, 79, 80, 81 77, 78, 79, 80, 81 182 159, 160, 172 158, 159, 166, 169, 172, 175 108, 115 154 केवली चार प्रकार का चउविह झाणमय णाणाविह णाणि ध्यानमय अनेक प्रकार का ज्ञानी 156 96, 97, 157, 173, 174 (170) नियमसार (खण्ड-2) Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 नामक कषाय-रहित 105 लीन 114 178 णामधेय णिक्कसाय णिग्गहण णिच्च णिम्ममत्त णिम्मल णिम्मुक्क णिय 99 नित्य ममता-रहित निर्मल रहित 146 निज 178, 187 97, 114, 136, 139, 155, 187 142 अशरीरी णिरवयव णिरायार णिस्सल्ल शुद्ध 103 1 तिगुत्त 125 तिगुत्तिगुत्त 88 शल्य-रहित तीन गुप्तिवाला मन-वचन-काय की निर्दोष प्रवृत्तिवाला तिर्यंच में स्थित तीन प्रकार से तीन प्रकार का तिरियत्थ तिविह 103 103 तरुण तरुण थिर । 85, 86,98, 121 स्थिर संयमी दंत 105 दृढ़ 82 दिढ पच्चक्ख प्रत्यक्ष 167 नियमसार (खण्ड-2) (171) Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 183 84, 85 पज्जंत . पर्यन्त पडिकमणमअ आत्मध्यान-मय आत्मध्यान-सहित आत्मध्यान से युक्त पयास . प्रकाशक . (पयासय) प्रकाशित 86 87, 88 161, 171 165 पर 97,121,146, 156, 157, 161,162,163,164,171 . 109, 122, 123, 135 155 परम परम प्राथमिक/प्रधान ' सर्वोत्तम आदि पौराणिक 177 90,114,124,152,158 पहुदि पुराण 158 पुव्व 90, 148, 168 172, 173, 174, 175 185, 187 112 से युक्त पुव्वावर पूर्ववर्ती और परवर्ती प्पदरिसि देखनेवाला प्पयास(प्पयासय)प्रकाशक प्रकाशित बहुणा अधिक बाहिर बाह्य भव्व भव्य 161 162, 163, 164 117 102 112 (172) नियमसार (खण्ड-2) Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिण्ण मज्झत्थ भिन्न अंतरंग में स्थित 111, 162, 163 82, 111 167 107, 124, 173, 174, 177 98 रहित रहित रहिय वज्जिद वज्जिय वदिरित्त वयणमय रहित 177 107 भिन्न 153 वचनमय श्रेष्ठ वर 117 उत्तम 140 रहित 145 ववगय ववसायि जागरूक 105 वस वश 141, 142, 143, 144, 145, 146 124 अनेक प्रकार विनाश करनेवाला भिन्न 141 170 विमल 111 विचित्त विणासण विदिरित्त विमल विरद विरहिय विवज्जिय विवरीय विहीण 125 निवृत्त रहित 178 रहित 112 विपरीत रहित 139 151, 154 नियमसार (खण्ड-2) (173) Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 79 106 संजुत्त 4. " वीयराय वीतराग 122 वृद्ध संजद संयमी साधु 144 168 संपुण्ण 147 161, 171 स-अक्ख-अट्ठ इन्द्रिय-विषय-सहित । 175 सकीय निज-आत्मा 110 सग अपना 156, 167 स-प्पदेसत्त प्रदेशता-युक्त 182 सम समभाववाला 126 समज्जिय उपार्जित 118 समत्थ समर्थ 110 समयण्ह सिद्धान्त को जाननेवाले 185 सयल समस्त 95, 168 सासद शाश्वत 102 साहीण स्वाधीन 114 स्व 110 सिद्ध सिद्ध 183 186 सुंदर मनोज्ञ शुद्ध 177 95, 118, 120, 144 (174) नियमसार (खण्ड-2) Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुहमइअ 96 सुख से युक्त परीषहजयी सूर 105 शेष 102, 176 हीण रहित 148 अनियमित विशेषण 117 बहुणा अधिक संख्यावाची विशेषण 177 101 177 नियमसार (खण्ड-2) (175) Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वनाम-कोश सर्वनाम शब्द अर्थ लिंग गा.सं. अण्ण अम्ह अन्य पु., नपुं. मैं पु., नपुं. 4 क्या पु., नपुं. जो पु., नपुं. 5 141, 143, 144, 145 77,78, 79, 80, 81, 96,, 97, 98, 99, 100, 102, 103, 104 124, 166, 169 83, 85, 86, 87, 88, 89, 91, 94,95, 103, 106, 107, 109, 116, 120, 121, 122, 123, 126, 127, 128, 129, 130, 131, 132, 133, 134, 135, 137, 138, 139, 141, 143, 144, 145, 150, 151, 168 79,80, 82, 83, 84,85, 86, 87, 88, 89, 91, 92, 94,95, 96, 97, 98, 106, 113, 116,120,121,122, 123, 125, 126, 127, 128, 129, 130, 131, वह पु., नपुं. (176) नियमसार (खण्ड-2) Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132, 133, 134, 135, 136, 137, 138, 139, 141, 143, 144, 145, 146, 147, 149, 150, 151, 153, 157, 162, 163, 166, 168, 169, 172, 184, 186 93, 97, 103, 104, 126, 132, 153, 159 102; 119, 158, 167 117 सव्व सब पु., नपुं सभी समस्त 125 सर्व 138 नियमसार (खण्ड-2) .. (177) Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यय-कोश अव्यय अर्थ अणवरयं लगातार गा.सं. 113 99 83, 111, 112 पादपूरक शब्दस्वरूपद्योतक इति 134 इस प्रकार ऐसा इस प्रकार 141, 142, 161 96, 97,98, 125, 126, 127, 128, 129, 130, 131, 132, 133, 134, 183 109, 110, 151, 162, 163 108 शब्दस्वरूपद्योतक यहाँ इस प्रकार 115 92, 93, 98, 116, 179, 180, 181, 183 106, 158 इस प्रकार इस तरह 140 ऐसा 166, 169 117 किंचि किह केइ क्या कुछ भी कैसे थोड़ा सा 103 137, 138 97 (178) नियमसार (खण्ड-2) Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केणवि कोइ खलु कोई भी 186 किसी के भी साथ 104 कोई 166, 169 निस्सन्देह 144 पादपूरक 100, 115 और 99, 108, 115, 129, 130,133,153,167,182 पुनरावृत्ति भाषा की पद्धति 129, 130, 133 पादपूरक 160 79,80, 81, 113, 154, 161 154 यदि जम्हा 154, 161, 185 84,85, 86, 87, 88 94, 160 जह जा 154 जाव 184 515 - क्योंकि जिस प्रकार जब तक जहाँ तक एक ही साथ पादपूरक निश्चय ही न तो.. ... नहीं 160 154 णं - 104 ण 77, 78, 79, 80, 81 77, 78, 79, 80, 81, 104, 128, 141, 142, नियमसार (खण्ड-2) (179) Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 143, 144, 150, 162, 163, 166, 168, 170, 171, 172, 173, 174, 175, 184 78, 80, 81, 180 णवि 97 179, 180, 181 187 93 106, 116, 155 129, 130, 131, 132, 133 सदैव 114 णाम नामक णि णिच्चं सदैव णिच्चसो णिच्छयदो निश्चयपूर्वक पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय णिमित्तं प्रयोजन से द्वितीयार्थक अव्यय णियमा नियमपूर्वक पंचमीअर्थक अव्यय अनिवार्यतः णियमेण निश्चयनय से णिरवसेसेण पूर्णरूप से तृतीयार्थक अव्यय णिव्वियप्पेण निर्विकल्परूप से तृतीयार्थक अव्यय 106 120 159 ___91 121 (180) नियमसार (खण्ड-2) Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TEE 77, 78, 79, 80, 81 97, 169 179, 181 162, 163 98, 179, 180, 181 तइया तत्थ 94 तदा तम्हा उस समय इसलिये 92, 93, 118, 119,140, 143,144,148,156,164, 165, 170, 171,172, 173, 174, 175 94, 160 उस प्रकार वैसा 157 तथा तथा इसलिए इस कारण पादपूरक 171 160 103, 131 152 172 83, 85, 86, 87, 92, 93 112,117,119,129,130 133,134,136,137,138 143, 144, 152, 172 120, 141, 146 123 नियमसार (खण्ड-2) (181) Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 128, 147 128 किन्तु और 131, 167 अनन्तर 176 पच्छा परदो आगे 184 135 148 176 186 फुडं 155 तो भी प्रकटरूप से निष्ठापूर्वक तृतीयार्थक अव्यय भावणाए 111 मत 186 पादपूरक 98, 108, 136, 137, 138, 166, 168,169, 173, 174, 179, 180, 181 100, 115 114, 142, 158 89 तथा और पादपूरक तथा वि .. . . भी । 126, 142 145, 151 170 पादपूरक (182) नियमसार (खण्ड-2) Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसेसेण 84 सम्म 168 सव्वं 103, 119 पूर्णरूप से तृतीयार्थक अव्यय सम्यक् प्रकार से पूर्णरूप से द्वितीयार्थक अव्यय शीघ्रता से दीर्घकाल तक सुखपूर्वक द्वितीयार्थक अव्यय सिग्यं 176 90 105 पादपूरक निस्सन्देह निश्चय ही 77, 78, 79,80, 81 92, 93, 161 173, 174 146 नियमसार (खण्ड-2) (183) Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-2 छंद के दो भेद माने गए हैं1. मात्रिक छंद 2. वर्णिक छंद 1. मात्रिक छंद- मात्राओं की संख्या पर आधारित छंदो को मात्रिक छंद' कहते हैं। इनमें छंद के प्रत्येक चरण की मात्राएँ निर्धारित रहती हैं। किसी वर्ण के उच्चारण में लगनेवाले समय के आधार पर दो प्रकार की मात्राएँ मानी गई हैं- ह्रस्व और दीर्घ। ह्रस्व (लघु) वर्ण की एक मात्रा और दीर्घ (गुरु) वर्ण की दो मात्राएँ गिनी जाती लघु (ल) (1) (ह्रस्व) गुरु (ग) (s) (दीर्घ) (1) संयुक्त वर्गों से पूर्व का वर्ण यदि लघु है तो वह दीर्घ/गुरु माना जाता है। जैसे'मुच्छिय' में 'च्छि' से पूर्व का 'मु' वर्ण गुरु माना जायेगा। (2)जो वर्ण दीर्घस्वर से संयुक्त होगा वह दीर्घ/गुरु माना जायेगा। जैसे- रामे। यहाँ शब्द में 'रा'और 'मे' दीर्घ वर्ण है। (3) अनुस्वार-युक्त हस्व वर्ण भी दीर्घ/गुरु माने जाते हैं। जैसे- 'वंदिऊण' में 'व' ह्रस्व वर्ण है किन्तु इस पर अनुस्वार होने से यह गुरु (s) माना जायेगा। (4) चरण के अन्तवाला ह्रस्व वर्ण भी यदि आवश्यक हो तो दीर्घ/गुरु मान लिया जाता है और यदि गुरु मानने की आवश्यकता न हो तो वह ह्रस्व या गुरु जैसा भी हो बना रहेगा। 1. देखें, अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार) (184) नियमसार (खण्ड-2) Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. वर्णिक छंद- जिस प्रकार मात्रिक छंदों में मात्राओं की गिनती होती है उसी प्रकार वर्णिक छंदों में वर्गों की गणना की जाती है। वर्णों की गणना के लिए गणों का विधान महत्त्वपूर्ण है। प्रत्येक गण तीन मात्राओं का समूह होता है। गण आठ हैं जिन्हें नीचे मात्राओं सहित दर्शाया गया है यगण 55 मगण SSS तगण - 5ऽ। रगण SIS जगण ।5। भगण - ऽ।ऽ नगण सगण - ।। नियमसार में मुख्यतया गाहा छंद का ही प्रयोग किया गया है। इसलिए यहाँ गाहा छंद के लक्षण और उदाहरण दिये जा रहे हैं। लक्षणं गाहा छंद के प्रथम और तृतीय पाद में 12 मात्राएँ, द्वितीय पाद में 18 तथा चतुर्थ पाद में 15 मात्राएँ होती हैं। नियमसार (खण्ड-2) (185) Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरण ऽऽऽ ॥ऽऽ ।।ऽ ऽ ऽ ।। ।। ।। 5 5 उम्मगं परिचत्ता जिणमगे जो दु कुणदि थिरभाव। ऽ ।।।। ऽ ऽ॥ ।।।।।। ऽ ।ऽ ऽ ऽ सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा।। SsIl 555 1155 51511155 जो पस्सदि अप्पाणं समभावे संठवित्तु परिणाम। ऽ ऽ।।।। ।। ।।।। 5 । ॥ 5 आलोयणमिदि जाणह परमजिणंदस्स उवएस। 555 ।।ऽऽ रायादीपरिहारे ऽ ऽ।ऽ । ऽ ऽ सो जोगभत्तिजुत्तो 5 55 5 । ऽ।55 अप्पाणं जो दु जुंजदे साहू। ।ऽ । ।।।5 5 5 इदरस्स य किह हवे जोगो॥ 5 1151155 अंतरबाहिरजप्पे 55151 511 जप्पेसु जो ण वइ ऽ । ऽ । ऽ ।।। ऽ ऽ जो वइ सो हवेइ बहिरप्पा। 5 511 51555 सो उच्चइ अंतरंगप्पा॥ (186) नियमसार (खण्ड-2) Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक पुस्तकें एवं कोश 1. नियमसार 2. नियमसार 3. नियमसार : हिन्दी अनुवादकस्व. पण्डित परमेष्ठीदास न्यायतीर्थ (सत्साहित्य प्रकाशन एवं प्रचार विभाग, श्री कुन्दकुन्द कहान दिगम्बर जैन तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट, जयपुर, सप्तम संस्करण, 1993) : हिन्दी अनुवादक-श्री मगनलाल जैन (श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (सौराष्ट्र), 1965) : सम्पादक-श्री बलभद्र जैन (कुन्दकुन्द भारती प्रकाशन, नई दिल्ली, 1987) : हिन्दी अनुवादकपूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी (दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ) उत्तर प्रदेश, 1985) : प्रधान सम्पादकप्रो. (डॉ.) लालचंद जैन सम्पादन-अनुवाद डॉ. ऋषभचन्द जैन ‘फौजदार' (प्राकृत जैनशास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान वैशाली, बासोकुण्ड, मुजफ्फरपुर बिहार, 2002) 4. नियमसार 5. नियमसार नियमसार (खण्ड-2) (187) Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. पाइय-सद्द-महण्णवो : पं. हरगोविन्ददास त्रिविक्रमचन्द्र सेठ (प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी, 1986) 7. कुन्दकुन्द शब्दकोश : डॉ. उदयचन्द्र जैन (श्री दिगम्बर जैन साहित्य-संस्कृति संरक्षण समिति, दिल्ली, 1989) 8. प्राकृत-हिन्दी शब्दकोश : डॉ. उदयचन्द्र जैन (न्यु भारतीय बुक कॉर्पोरेशन, दिल्ली, 2005) 9. संस्कृत-हिन्दी कोश : वामन शिवराम आप्टे (कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1996) 10. हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण, : व्याख्याता श्री प्यारचन्द जी महाराज भाग 1-2 (श्री जैन दिवाकर-दिव्य ज्योति कार्यालय, मेवाड़ी बाजार, ब्यावर, 2006) 11. प्राकृत भाषाओं का : लेखक -डॉ. आर. पिशल हिन्दी अनुवादक - डॉ. हेमचन्द्र जोशी (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, 1958) 12. प्राकृत रचना सौरभ : डॉ. कमलचन्द सोगाणी (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, 2003) 13. प्राकृत अभ्यास सौरभ : डॉ. कमलचन्द सोगाणी (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, 2004) 14. प्रौढ प्राकृत रचना सौरभ, : डॉ. कमलचन्द सोगाणी भाग-1 (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, 1999) (188) नियमसार (खण्ड-2) व्याकरण Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. अपभ्रंश अभ्यास सौरभ : डॉ. कमलचन्द सोगाणी (छंद एवं अलंकार) (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, 2008) 16. प्राकृत-हिन्दी-व्याकरण : लेखिका- श्रीमती शकुन्तला जैन (भाग-1, 2) संपादक- डॉ. कमलचन्द सोगाणी (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, 2012, 2013) 17. प्राकृत-व्याकरण : डॉ. कमलचन्द सोगाणी (संधि-समास-कारक-तद्धित- (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, स्त्रीप्रत्यय-अव्यय) 2008) नियमसार (खण्ड-2) (189) Page #197 --------------------------------------------------------------------------  Page #198 -------------------------------------------------------------------------- _