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________________ 4. पूर्णता की प्राप्तिः - (i) केवलज्ञान का स्वरूप: जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश और ताप एक ही साथ विद्यमान रहता है उसी प्रकार केवलज्ञानी का ज्ञान तथा दर्शन एक ही साथ विद्यमान रहता है (160) । मूर्त-अमूर्त, चेतन - अन्य अचेतन द्रव्य को, स्व को और सभी पर को देखते हुए का ज्ञान प्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय होता है । इसलिए केवली के स्व तथा लोकालोक प्रत्यक्ष होता है (167) । ज्ञान के स्वपर प्रकाशपने के सिद्धान्त को ध्यान में रखते हुए आचार्य ने एक ओर ढंग से अपनी बात पुष्ट की है और कहा है: चूँकि ज्ञान स्वपरप्रकाशक है, इसलिए व्यवहार से अर्थात् बाह्य दृष्टि से ज्ञान पर को जानता हुआ स्व को भी जानता है। निश्चयदृष्टि अर्थात् अन्तरदृष्टि से ज्ञान स्व को जानता हुआ पर को भी जानता है (171, 159 ) । अतः केवलज्ञान स्व और पर की पूर्णता को लिए हुए है और केवलज्ञानी सदैव स्व और पर को अतीन्द्रियरूप से / प्रत्यक्षरूप से जानता है, चाहे दृष्टि बाह्य हो और चाहे आन्तरिक हो। (ii) केवली का व्यवहार : जानते हुए और देखते हुए भी केवली के इच्छा से युक्त वर्तन नहीं होता इस कारण वह कर्म का अबंधक कहा गया है (172)। फल की आकांक्षा से युक्त वचन जीव के बंध के कारण है । केवलज्ञानी के वचन फल की आकांक्षा-रहित होते हैं तथा उनका खड़े रहना, बैठना और विहार करना इच्छा से युक्त नहीं होता है, इसलिए उनके कर्म बंध नहीं होता है। (iii) सिद्ध का स्वरूपः जो आयुकर्म के क्षय से समयमात्र में लोक के अग्रभाग को प्राप्त करता है वह सिद्ध कहलाता है । कर्म से मुक्त / छूटा हुआ आत्मा लोक के अग्रभाग तक जहाँ तक धर्मास्तिकाय है वहाँ तक जाता है (176, 184)। वह सिद्ध परमात्मा शुद्ध, जन्म-जरा-मरण से रहित, आठ (6) नियमसार (खण्ड-2)
SR No.002305
Book TitleNiyamsara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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