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________________ कर्मों से शून्य, ज्ञानादि चार स्वभाववाला, अक्षय, अविनाशी और अखण्डित है (177)। वह सिद्ध परमात्मा अनन्त सुखसंपन्न, अतीन्द्रिय, अनुपम, पुण्यपाप से रहित, पुनरागमन से रहित, नित्य, अचल और अनालंब है (178)। सिद्ध भगवान के केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख और केवलवीर्य, अमूर्तत्व, अस्तित्व और सप्रदेशत्व होता है (182) । अंत में आचार्य का कहना है कि- जीव अनेक प्रकार के हैं, उनके कर्म अनेक प्रकार के हैं तथा उनकी लब्धियाँ अनेक प्रकार की होती हैं। इसलिए परमार्थ में लगे हुए साधक को स्व और परसिद्धान्त के विषय में लोगों के साथ शब्द-विवाद छोड़ देना चाहिये। नियमसार (खण्ड-2) डॉ. कमलचन्द सोगाणी पूर्व प्रोफेसर दर्शनशास्त्र, दर्शनशास्त्र विभाग सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर एवं निदेशक 'जैनविद्या संस्थान - अपभ्रंश साहित्य अकादमी (7)
SR No.002305
Book TitleNiyamsara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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