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________________ (ii) निर्वाण/योगभक्तिः जो श्रावक अथवा श्रमण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में भक्ति करता है उसके निर्वाणभक्ति होती है (134)। मोक्षमार्ग में अपने को स्थापित करके (जो) निर्वाणभक्ति करता है उससे वह असहाय गुणवाली (स्वतन्त्र गुणवाली) निज-आत्मा को प्राप्त करता है (136)। जो साधु रागादि के परिहार में तथा सर्वविकल्पों के अभाव में निज को लगाता है वह योगभक्ति से युक्त है (137, 138)। (iii) आत्म-स्वाधीनता/वशताः जो जीव अंतरंग में स्थित है तथा बाह्य प्रपंच से पराङ्मुख है वह अन्य के वश नहीं होता है उसके ही ध्यानस्वरूप आवश्यक कर्म होता है (141)। जो जीव अन्य के वश नहीं है वह अवश है तथा अवश का ध्यानस्वरूप कर्म आवश्यक है। इससे जीव अशरीरी (सिद्ध) होता है (142)। जो साधु अंतरंग और बाह्य जल्प में क्रियाशील होता है वह बहिरात्मा होता है और जो साधु अंतरंग और बाह्य जल्पों में क्रियाशील नहीं होता है वह अन्तरात्मा कहा जाता है और अन्तरात्मा ही स्ववश होता है (150)। जो श्रमण अशुभ भाव या शुभ भाव से युक्त होता है वह अन्य के वश होता है, इसलिए उसके आवश्यक लक्षणवाला ध्यानस्वरूप कर्म घटित नहीं होता है (143, 144)। जो श्रमण द्रव्य, गुण, पर्यायों में मन को लगाता है वह भी अन्य के वश है (145)। परभाव को छोड़कर जो साधु निर्मल स्वभाववाले निज-आत्मा को ध्याता है वह निश्चय ही आत्मा के वश होता है तथा उसके ही आवश्यक कर्म है (146)। 3. ध्यान व वचनव्यापारः नियमपूर्वक किया गया वचनमय प्रतिक्रमण, वचनमय प्रत्याख्यान, वचनमय नियम और वचनमय आलोचना- ये सब स्वाध्याय है (153)। यदि कोई प्रतिक्रमण आदि करने के लिए समर्थ है तो वह ध्यानमय प्रतिक्रमण करे। यदि कोई शक्तिरहित है तो श्रद्धान ही करे (154)। नियमसार (खण्ड-2) (5)
SR No.002305
Book TitleNiyamsara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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