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________________ अनंतानंत भवों द्वारा उपार्जित शुभ-अशुभ कर्मसमूह बाह्य-अंतरंग तपरूपी चारित्र से नष्ट होता है इसलिए तप प्रायश्चित्त है (118)। आत्मस्वरूप के आलम्बन मात्र से जीव बहिर्मुखी सभी भावों का परिहार करने के लिए समर्थ है, इसलिए सभी बहिर्मुखी भावों का परिहार पूर्णरूप से ध्यान में घटित होता है (119)। शुभ-अशुभ बाह्य वचन कौशल को और रागादि भावों को रोक करके जो आत्मा को ध्याता है उसके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र घटित होता है (120)। 2. सिद्ध अवस्था की प्राप्ति के लिए आवश्यक है: (i) समाधि/सामायिकः बाह्य वचन उच्चारण की क्रिया को छोड़कर वीतराग भाव से जो अंतरंग में आत्मा को ध्याता है उसके परम-समाधि घटित होती है (122)। वनवास, कायक्लेश, अनेक प्रकार के उपवास, अध्ययन, मौन आदि कार्य समतारहित/ध्यानरहित श्रमण को क्या लाभ करेंगे? (124)। जो समस्त पापों से निवृत्त है, जो मन-वचन-कायरूप तीन गुप्तिवाला है, जिसके द्वारा इन्द्रियाँ नियन्त्रित की गई हैं उसके सामायिक/समभाव स्थिर होती है (125)। बाह्य प्रपंच से पराङ्मुख जिस साधु के बाह्य व अभ्यंतर संयम में, मर्यादित काल के आचरण स्वरूप नियम में तथा बाह्य और अभ्यंतर तप में शुद्ध आत्म द्रव्य अन्तर्वर्ती है उसके समभावरूप/सामायिक स्थिर होती है (127)। जो साधु शुभ परिणति से उपार्जित पुण्य कर्म को और हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रह के परिणाम से उत्पन्न होनेवाले पाप कर्म को सदैव छोड़ता है उसके समभावरूप/सामायिक स्थिर होती है (130)। जो साधु धर्म और शुक्ल ध्यान को नित्य ध्याता है उसके समभावरूप सामायिक स्थिर होती है। ऐसा केवली के शासन में कहा गया है (133)। नियमसार (खण्ड-2)
SR No.002305
Book TitleNiyamsara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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